भारत में अनेक ऐसे विलक्षण गणितज्ञ हुए हैं, जिन्होंने न केवल भारतीय गणित को नई दिशा दी बल्कि विश्व स्तर पर अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाया। इन महान गणितज्ञों में श्रीनिवास अयंगर रामानुजन का नाम सर्वोपरि है। उनकी गणितीय प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि उन्होंने अपनी संक्षिप्त जीवन यात्रा में गणित को न केवल समृद्ध किया बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मजबूत आधार भी तैयार किया। गणित के क्षेत्र में उनका योगदान इतना गहरा और प्रभावशाली था कि आधुनिक गणित एवं विज्ञान की नींव को उन्होंने ही मजबूती प्रदान की। वे संख्या सिद्धांत, अनंत श्रेणी, गणितीय विश्लेषण तथा निरंतर भिन्न अंशों के क्षेत्रों में इतने सक्रिय और सृजनशील थे कि उन्होंने ऐसे कई सूत्रों और प्रमेयों की खोज की, जो आज भी विश्वभर के गणितज्ञों को प्रेरणा देते हैं।
रामानुजन ने हालांकि कभी औपचारिक रूप से गणित का प्रशिक्षण नहीं लिया था लेकिन उनका झुकाव बचपन से ही गणित की ओर था। उन्होंने 12 वर्ष की आयु में ही त्रिकोणमिति पर आधारित एक प्रसिद्ध पुस्तक को बिना किसी सहायता के हल कर लिया था और उसी दौरान उन्होंने अपने स्तर पर कई प्रमेयों की खोज भी कर ली थी। स्कूली शिक्षा के दौरान उन्हें उनकी गणितीय प्रतिभा के लिए कई पुरस्कार और योग्यता प्रमाणपत्र प्राप्त हुए। वर्ष 1904 में उनके उत्कृष्ट गणितीय प्रदर्शन के लिए उन्हें ‘के. रंगनाथ राव पुरस्कार’ दिया गया। उन्हें कुंभकोणम के गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज में छात्रवृत्ति मिली लेकिन गणित के प्रति उनका प्रेम इतना प्रबल था कि वे अन्य विषयों की पढ़ाई में रुचि ही नहीं ले पाए। अन्य विषयों की कक्षाओं में भी वे केवल गणितीय सवालों को हल करते रहते थे, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे छात्रवृत्ति खो बैठे लेकिन उन्होंने गणित के साथ अपना रिश्ता कभी नहीं तोड़ा।
वर्ष 1909 में 22 वर्ष की उम्र में उनका विवाह मात्र दस वर्षीया जानकी से हुआ। पारिवारिक आर्थिक स्थिति पहले से ही अच्छी नहीं थी, ऐसे में विवाहोपरांत जिम्मेदारियों का बोझ भी बढ़ गया। नौकरी की तलाश में उन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज के प्रोफेसर ई. डब्ल्यू. मिडलमास्ट की सिफारिश के साथ मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क पद के लिए आवेदन किया और 30 रुपये मासिक वेतन पर उन्हें नौकरी मिल गई लेकिन वह नौकरी महज जीविका का साधन थी, उनके मन में गणित की जिज्ञासा निरंतर बढ़ती ही जा रही थी। काम के बीच समय निकालकर वे खाली कागजों पर गणितीय प्रश्न हल करते रहते थे। यही दौर उनके गणितीय जीवन का निर्णायक समय साबित हुआ।
रामानुजन की प्रतिभा की पहचान सबसे पहले भारत में गणितज्ञ रामास्वामी अय्यर ने की, जिन्होंने उन्हें नैलोर के कलेक्टर आर. रामचंद्र राव से मिलवाया। हालांकि कलेक्टर उनके लिए कोई स्थायी नौकरी का प्रबंध नहीं कर सके लेकिन उन्होंने उन्हें कुछ आर्थिक सहायता अवश्य दी। रामानुजन आत्मसम्मानी व्यक्ति थे और वे किसी की दया पर निर्भर नहीं रहना चाहते थे। उन्हें सम्मानजनक नौकरी की तलाश थी, जिससे वे स्वतंत्र और आत्मनिर्भर जीवन जी सकें। उसी दौरान उनकी रुचि और प्रतिभा को देखकर कई लोगों ने उन्हें प्रोत्साहित किया कि वे अपने शोध कार्यों को यूरोपीय गणितज्ञों तक पहुंचाएं। वर्ष 1913 में रामानुजन ने यूरोपीय गणितज्ञों से संपर्क साधने का प्रयास किया और अपनी गणनाओं, प्रमेयों और समीकरणों को पत्रों के माध्यम से भेजना शुरू किया। उनके द्वारा भेजे गए गणितीय दस्तावेजों ने प्रसिद्ध ब्रिटिश गणितज्ञ जी.एच. हार्डी को बहुत प्रभावित किया। हार्डी ने उनकी विलक्षणता को तुरंत पहचाना और उन्हें इंग्लैंड बुला लिया।
अप्रैल 1914 में रामानुजन समुद्री जहाज से एक महीने की लंबी यात्रा कर इंग्लैंड पहुंचे, जहां उन्हें कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में स्थान मिला। उसके बाद उनका गणितीय जीवन नई ऊंचाईयों तक पहुंच गया। कैम्ब्रिज में उन्होंने हार्डी के साथ मिलकर कई शोधपत्रों पर कार्य किया, विशेषकर संख्या सिद्धांत में उनके कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण माने गए। उनकी ख्याति इतनी तेजी से फैली कि 1917 में उन्हें ‘लंदन मैथेमेटिकल सोसायटी’ का सदस्य बनाया गया और 1918 में इंग्लैंड की सबसे प्रतिष्ठित संस्था ‘रॉयल सोसायटी’ ने उन्हें अपना फैलो नियुक्त किया। यह सम्मान प्राप्त करने वाले वे सबसे कम उम्र के भारतीय बने। उसी वर्ष उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने एक विशेष शोध कार्य के लिए बी.एस.सी. की उपाधि से सम्मानित किया।
रामानुजन को ‘गणितज्ञों का गणितज्ञ’ कहा गया। उनके द्वारा किए गए कार्यों की गहराई और जटिलता इतनी अधिक थी कि उन्होंने अपने जीवन में लगभग 3884 प्रमेयों का संकलन किया, जिनमें से अधिकांश की सत्यता अब तक प्रमाणित की जा चुकी है लेकिन कुछ ऐसे भी प्रमेय और सूत्र हैं, जिनका रहस्य आज भी अनसुलझा बना हुआ है। उनके गणितीय लेखन और विश्लेषण इतने प्रभावशाली थे कि उस समय की श्रेष्ठतम विज्ञान पत्रिकाएं भी उन्हें प्रमुखता से प्रकाशित करती थीं। रामानुजन की गणितीय खोजों को आज के आधुनिक गणित और विज्ञान की नींव माना जाता है। उनकी प्रसिद्ध खोजों में ‘रामानुजन प्राइम’, ‘रामानुजन थीटा फंक्शन’ और ‘मॉक थीटा फंक्शन्स’ उल्लेखनीय हैं, जिनका प्रभाव आज भी गणित और भौतिकी के विविध क्षेत्रों में देखा जाता है।
हालांकि इंग्लैंड की जलवायु, खानपान और जीवनशैली उनके स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं थी। अत्यधिक परिश्रम और अस्वास्थ्यकर जीवनशैली के कारण उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। बाद में पता चला कि वे तपेदिक (टीबी) से ग्रस्त हो गए हैं। डॉक्टरों की सलाह पर वे मार्च 1919 में भारत लौट आए लेकिन भारत लौटने के बाद भी उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया। उनके इलाज के लिए कई प्रयास किए गए, लेकिन दुर्भाग्यवश यह महान प्रतिभा 26 अप्रैल 1920 को महज 32 वर्ष की आयु में कुंभकोणम में इस दुनिया को अलविदा कह गई। रामानुजन का जीवन अल्पकालीन अवश्य रहा लेकिन उनके कार्य इतने महान थे कि उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी गणनाओं और प्रमेयों पर शोध कार्य चलता रहा। उनके निधन के बाद करीब 5000 से अधिक गणितीय प्रमेयों को प्रकाशित किया गया, जिनमें से कई को आज भी विशेषज्ञ पूरी तरह हल नहीं कर पाए हैं। उनकी हस्तलिखित पाण्डुलिपियां आज भी मद्रास विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में तीन खण्डों में सुरक्षित हैं। उनकी प्रतिभा को श्रद्धांजलि देने के लिए कई संस्थानों और वैज्ञानिकों ने उनके कार्यों पर अध्ययन किया है।
वर्ष 1991 में रॉबर्ट काइनिजेल ने ‘द मैन हू न्यू इनफिनिटी’ नामक एक जीवनी लिखी, जो रामानुजन के जीवन और कार्यों पर आधारित थी। उसी पुस्तक पर 2016 में एक फिल्म भी बनाई गई, जिसे ब्रिटेन और भारत दोनों में सराहा गया। यह फिल्म एक ऐसे भारतीय युवक की प्रेरणादायक कहानी है, जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी गणित को अपना जीवन बना लिया और अपनी विलक्षणता से दुनिया को चौंका दिया। रामानुजन का जीवन इस बात का उदाहरण है कि प्रतिभा को किसी औपचारिक शिक्षा या संसाधन की नहीं, बल्कि केवल समर्पण, जिज्ञासा और आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। आज जब हम उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें स्मरण करते हैं तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम उनके जीवन से प्रेरणा लें और विज्ञान तथा गणित के प्रति उत्साह को बढ़ावा दें।
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