कश्मीर में एक बार फिर से जिहादी आतंकी हमला हुआ है, जिसमें आतंकियों ने पर्यटकों से धर्म पूछा, नाम पूछा और गोली चला दी। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि हिंदुओं पर उनके धर्म के आधार पर कश्मीर में हमला हुआ हो। कश्मीर में पहले भी ऐसे हमले होते रहे हैं। और कभी-कभी छिटपुट तो कभी बड़े हमले होते ही रहे हैं। मगर फिर भी पहलगाम का जिहादी हमला इसलिए लोगों को चौंका रहा है कि इस बार पीड़ितों के परिजन साफ कह रहे हैं कि धर्म पूछा, नाम पूछा और फिर गोली मार दी।
मगर भारत का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जो परिजनों की, और जो सामने थे, जिन्होनें इन जिहादियों के आतंक को झेला, उनकी बातों को नकारते हुए यह कह रहा है कि “मारने से पहले नाम नहीं पूछा। आतंकी हमला निंदनीय है, मगर इसकी आड़ में नफरत फैलाने वालों को बढ़ावा न दिया जाए।“
कथित सेक्युलर लेखिकाओं और पत्रकारों की ओर से जो यह विमर्श बनाया जा रहा है, वह घातक है और स्तब्ध करने वाला है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर वे क्या कारण हैं कि जो उन्हें हिन्दू पीड़ा के प्रति इस सीमा तक असंवेदनशील कर देते हैं? प्रश्न यह उठता है कि वे कौन से कारण हैं, जो उन्हें इस सीमा तक उस देश के नागरिकों के प्रति कृतघ्न बनाते हैं जहाँ के संसाधनों से ही उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है।
नेहा सिंह राठौर नाम की एक गायिका ने आतंक के शिकार मृतकों की सूची साझा करते हुए एक्स पर पोस्ट किया कि अगर आतंकवादी धर्म पूछकर हिंदुओं को मार रहे थे, तो सईद हुसैन शाह को क्यों मार दिया? ‘आपदा में अवसर’ वालों की राजनीति का शिकार मत बनिए।
ऐसा ही कुछ कथित लेखक दराब फारुकी ने लिखा कि “जब नाम पूछकर गोली मार रहे थे तो गलती से हुसैन शाह ने अपना नाम हेमांग शाह बता दिया होगा।“
जैसे सबकी मौत दुर्भाग्यपूर्ण है, वैसे ही सैयद हुसैन शाह की मौत भी दुर्भाग्यपूर्ण और परिवार के लिए त्रासद है, क्योंकि वे ही अपने घर मे एकमात्र कमाने वाले थे। मगर सैयद हुसैन शाह की मौत के बहाने उन परिजनों को झूठा ठहराने का प्रयास करना, अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।
कश्मीरी आतंकियों के लिए उन कश्मीरी मुस्लिमों को मारना नई बात नहीं है, जो उनके जिहाद के सपने का हिस्सा नहीं बनते हैं, जैसे उन्होनें पूर्व में भी एक कश्मीरी अभिनेत्री अमरीन बट की हत्या कर दी थी। अब सैयद हुसैन शाह की हत्या किसी कॉलेटरल डैमेज का हिस्सा है या फिर जिहादी आतंकियों की आइडेंटिटी से उन्होनें अपनी आइडेंटिटी नहीं जोड़ी तो उनकी हत्या कर दी गई, वह बाद में ही पता चलेगा।
जो लाबी यह कह रही है कि धर्म नहीं पूछा, बस गोलियां चला दीं, कलमा पढ़ने को नहीं बोला तो उन्हें इस हमले में जीवित बचे असम विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर देबाशीष भट्टाचार्य की आपबीती सुननी चाहिए। उन्होनें बताया कि कैसे उन्होनें कलमा पढ़कर अपनी जान बचाई। उन्होनें न्यूज 18 को बताया कि “मैं अपने परिवार के साथ एक पेड़ के नीचे सो रहा था. तभी मैंने अचानक अपने आस-पास लोगों की फुसफुसाहट सुनी. लोग कलमा पढ़ रहे थे. स्वाभाविक रूप से मैंने भी इसे पढ़ना शुरू कर दिया. कुछ ही क्षणों बाद वर्दी पहने आतंकवादी वहां पहुंचे. उनमें से एक हमारी ओर आया और मेरे बगल में लेटे व्यक्ति के सिर में गोली मार दी.’”
उन्होनें बताया कि फिर वह आदमी उनकी ओर आया और उनसे पूछा कि वे क्या कर रहे हैं, तो वे और भी जोर से कलमा पढ़ने लगे। उन्हें नहीं पता कि उन्हें ऐसा करने के लिए क्या कारण मजबूर किया, मगर वह किसी कारण मुड़ा और चला गया।“
वहीं नेहा सिंह राठौर ने यह भी लिखा कि कलमा पढ़ने के लिए कैसे बोला जा सकता है? मारे गए शुभम द्विवेदी की पत्नी ने कहा कि जैसे ही उन्होनें यह बताया कि वे लोग मुसलमान नहीं हैं, वैसे ही शुभम द्विवेदी के सिर पर गोली मार दी।
राजनेता सलमान निजामी ने सैयद हुसैन शाह की मौत के बहाने यह साबित करने का प्रयास किया कि “आतंक का कोई रिलीजन नहीं होता।“ उन्होनें लिखा कि एक बहादुर कश्मीरी पहलगाम में पर्यटकों को बचाते हुए मारा गया।
मगर भारत का वह वर्ग जो लगातार हिंदुओं को और हिन्दू पहचान का सम्मान करने वाले मुस्लिमों की आतंकियों द्वारा हत्या पर चुप ही रहता है, वह अचानक से ही मुखर हो गया है कि मारने वालों ने मरने वालों का नाम और धर्म नहीं पूछा। यह सब भाजपा और संघ वाले झूठ फैला रहे हैं।
कथित बड़े लेखक और प्रगतिशील पत्रकार परेशान हैं कि उन लोगों को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है कि वे लोग इस घटना की निंदा करें। वे लोग निंदा कर रहे हैं, परंतु तमाम किन्तु और परंतु के साथ। वे कटघरे में मोदी और संघ को खड़ा करके निंदा कर रहे हैं, जबकि निंदा करनी चाहिए उस जिहादी मानसिकता की, जो लगातार निशाना बना रही है उन निर्दोषों को जो जिहाद के पागलपन में शामिल नहीं होते।
यह भी एक प्रश्न है कि मस्जिद के आगे किसी हिन्दू पर्व के दौरान भगवा झण्डा लहराने या फिर शोभायात्रा निकालने से ही इन कथित प्रगतिशील लेखकों, लेखिकाओं और राजनेताओं को हिन्दू आतंकवाद नजर आ जाता है, उन्हें मृतकों के परिजनों के साफ-साफ कहने में भी यह क्यों नहीं दिखाई दे रहा है कि आखिर ये हत्याएं किस मानसिकता ने की हैं?
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