पाकिस्तान में मुस्लिम महिलाओं के अधिकार की राह पर एक बहुत बड़ा फैसला आया है। लाहौर उच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया है कि अब यदि मुस्लिम महिला भी खुला अर्थात अपनी शादी को समाप्त करने की पहल करती है तो भी उसे हक-ए-मेहर से वंचित नहीं किया जा सकता है।
लाहौर उच्च न्यायालय के जज जस्टिस राहील कामरान ने अपने फैसले में यह जोर देकर कहा कि इस्लामिक कानून और निकाहनामा के अंतर्गत एक शौहर के लिए यह बाध्यता होती है कि वह हक-ए-मेहर दे, बशर्ते बीवी बिना किसी ठोस कारण के खुला नहीं मांगती है तो। हालांकि, जो मामला सामने आया है, उसमें महिला ने यह सारे कारण बताए हैं कि किस कारण उसने अपने शौहर से खुला लिया।
मुस्लिम महिला भी अपने शौहर से खुला ले सकती है अर्थात अपने निकाह को खत्म कर सकती है। जस्टिस कामरान ने फेडरल शरिया कोर्ट के फैसले का संदर्भ देकर इसे और स्पष्ट करते हुए कहा कि अगर बीवी अपने शौहर के अत्याचारों से दुखी होकर खुला मांगती है तो उस हक-ए-मेहर लौटाने की जरूरत नहीं है और अगर उसने केवल इसलिए खुला मांगा है कि उसे शौहर पसंद नहीं है आदि आदि, तो उसे हक-ए-मेहर लौटाना होता है।
जज ने यह भी कहा कि निकाहनामा एक अनुबंध है और जब तक इसमें परिवर्तन करने के बहुत बाध्यकारी कारण न हों, उसे तोड़ा नहीं जा सकता है। एक बीवी का खुला लेना, अपने आप ही शौहर द्वारा हक-ए-मेहर देने की जिम्मेदारी को खत्म नहीं कर सकता है। मुस्लिम समुदाय में खुद से खुला लेने वाली महिलाओं को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है। भारत में भी जब तीन तलाक समाप्त करने को लेकर मामले सामने आ रहे थे, तो कई मुस्लिम महिलाओं ने इस बात का उल्लेख किया था कि उन्हें इसलिए परेशान किया जा रहा है कि वह खुद से खुला ले लें। मगर वे ऐसा नहीं करना चाहती हैं, क्योंकि खुला लेने से उनकी छवि खराब होगी और सारा दोष उन्हीं पर आएगा।
लाहौर में जिस मामले में फैसला दिया गया है, उसमें शादी को नौ साल हो गए थे। और जज ने कहा कि महिला ने एक भी काम ऐसा नहीं किया, जिससे यह साबित हो कि उसने अपनी शादीशुदा जिम्मेदारी उठाने में कोई कसर छोड़ी हो। और ऐसे में उस महिला को हक-ए-मेहर न दिया जाना उसके साथ अन्याय है। मगर उसके साथ ही सोशल मीडिया पर इस फैसले के खिलाफ लोग बोलने लगे हैं। फ़ेसबुक पर startup Pakistan नामक पेज ने जब इस समाचार को साझा किया, तो लोगों ने इस फैसले को शरीयत के खिलाफ बताया। कई लोग इसके विरोध में आए और यह कहा कि शरीयत से हटकर कुछ भी स्वीकार्य नहीं है। तो वहीं कुछ लोगों ने इसे फेमिनिज़्म से जोड़ दिया।
एक यूजर ने मजाक उड़ाते हुए यह लिखा कि “स्ट्रॉंग इंडिपेंडेंट वुमन को शौहर को छोड़ने के बाद पैसा चाहिए।“ दरअसल यही वह उपहास की भावना होती है, जो किसी भी महिला को एक खराब शादी से बाहर आने से रोकती है। उसे ही दोषी ठहराया जाता है। एक यूजर ने लिखा कि कुरान और हदीस से हटकर कोई भी नियम स्वीकार्य नहीं है। हम इस्लाम के नाम पर एक अजीब समाज में रहते हैं, जहां पर इस्लाम नहीं है।
एक यूजर ने लिखा कि खुला लेने पर कोई हक-ए-मेहर नहीं है। यह केवल आदमी द्वारा तलाक दिए जाने पर ही है। तो किसी ने लिखा कि इस कारण खुला के मामले बढ़ेंगे। एक यूजर ने लिखा कि अधिकतर औरतें पैसों के ही पीछे रहती हैं। ऐसे कानून केवल तलाक के मामले ही बढ़ाएंगे। एक यूजर ने लिखा कि पाकिस्तान में फैमिली कोर्ट सिस्टम सबसे घटिया है। केवल आदमी को ही दहेज देना होता है। वहीं एक यूजर ने लिखा कि कमेन्ट सेक्शन देखने से लगता है कि पाकिस्तान में औरतों के साथ घरेलू हिंसा कितनी आम है।
इस मामले को लेकर सोशल मीडिया पर चर्चा हो रही है, परंतु सबसे रोचक एक टिप्पणी रही जिसमें लिखा था कि एक महिला के लिए हक-ए-मेहर क्यों इतनी जरूरी है? आप एक खराब शादी से बाहर आ गईं, इससे बढ़कर और क्या चाहिए? खवामखा का ईगो!
पाकिस्तान चूंकि मुस्लिम देश है, वहाँ पर मुस्लिम महिलाएं अपने मामले लेकर कोर्ट में जा सकती हैं और अपनी लड़ाई लड़ती हैं। भारत में स्थितियाँ मुस्लिम महिलाओं के लिए बहुत अलग है। वे अपने मामले लेकर कोर्ट नहीं जा सकती हैं, क्योंकि यदि वे ऐसा करती हैं तो उन्हें ऐसा महसूस कराया जाता है कि उन्होनें बहुत बड़ा अपराध कर दिया है क्योंकि उनके द्वारा मामला बाहर ले जाने पर हिंदुवादी ताकतों को मजबूती मिलेगी और भाजपा और संघ परिवार को फायदा होगा।
तीन तलाक को लेकर भी यही हुआ था और ऐसा कहा जा रहा था कि यह ठीक है कि मुस्लिम महिलाओं को समस्या है, मगर उनके द्वारा आवाज उठाने पर संघ और भाजपा को फायदा होगा। यह विडंबना है कि पाकिस्तान की महिलाएं अपने हक के लिए कोर्ट जा सकती हैं, मगर भारत में मुस्लिम महिलाएं कहीं न कहीं अभी भी अपनी समस्याओं को लेकर कोर्ट जाने से हिचकती हैं।
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