पाकिस्तान में एक बार फिर से अहमदी समुदाय के एक व्यक्ति की हत्या कर दी गयी है। यह हत्या कट्टरपंथी टीएलपी के सदस्यों ने की है। यह हत्या हाल ही के दिनों में अहमदी मुस्लिमों पर बढ़ रही हिंसा की घटना की एक और कड़ी है। टीएलपी के सदस्य कराची में अहमदी समुदाय के इबादतगाह के पास खड़े होकर प्रदर्शन कर रहे थे।
तभी उन्हें पीड़ित लईक चीमा आता हुआ दिखाई दिया। उन्होंने उसे घेर लिया और उसे जमकर मारा। चीमा को अस्पताल लेकर जाया गया, मगर अस्पताल ले जाने से पहले ही चीमा की मौत हो गयी।
इसे लेकर अहमदी समुदाय के प्रवक्ता आमिर महमूद का कहना है कि यह हमला तहरीक इ लबैक पाकिस्तान ने कराया है। यह संगठन कुछ समय के लिए अस्थाई रूप से आतंकी संगठन के रूप में प्रतिबंधित भी किया जा चुका है। दरअसल पाकिस्तान में अहमदी समुदाय को मुस्लिम नहीं माना जाता है। यह और भी हैरानी की बात है कि अहमदी समुदाय ने पाकिस्तान निर्माण में योगदान ही नहीं किया था, बल्कि मुस्लिमों के लिए अलग मुल्क होना चाहिए, इस सपने को भी जिया था। ये एक अहमदी मुस्लिम जफरुल्ला खान ही थे, जिन्होनें वर्ष 1940 में लाहौर रेसोल्यूशन लिखा था, जिसे पाकिस्तान प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है। यहाँ तक कि जफरुल्ला खान पाकिस्तान के पहले विदेश मंत्री भी बने थे।
मगर आज उसी मुल्क में, जिसके लिए अहमदी समुदाय ने कुर्बानियां दीं, उन्हें अपने इबादतगाहों को मस्जिद भी कहने का अधिकार नहीं है। मुस्लिमों के नाम पर, मुस्लिमों के लिए बने हुए पाकिस्तान में ही उनके साथ भेदभाव नहीं होता है, बल्कि उन्हें तो हज का भी अधिकार नहीं है।
वर्ष 1974 में पाकिस्तान की संसद ने इस समुदाय को गैर मुस्लिम घोषित कर दिया था। अहमदी समुदाय तो खुद को मुस्लिम मानते हैं, मगर पाकिस्तान सहित अन्य कोई भी मुस्लिम मुल्क उन्हें मुस्लिम का दर्जा नहीं देता है। दरअसल जहां इस्लाम में यह स्पष्ट लिखा है कि मोहम्मद ही उनके आख़िरी पैगम्बर थे तो वहीं अहमदी समुदाय के मुस्लिमों का मानना है कि उनके समुदाय का आरम्भ करने वाले मिर्जा गुलाम अहमद जो हैं, वह पैगम्बर मोहम्मद के बाद एक और पैगम्बर हैं और वही आख़िरी पैगम्बर हैं।
इसी बात को लेकर उनकी अन्य लोगों के साथ तनातनी रहती है। उन्हें अल्पसंख्यकों वाले लाभ भी नहीं मिलते हैं, क्योंकि अल्पसंख्यकों के लाभ लेने के लिए उन्हें यह घोषणा करनी होगी कि वे मुस्लिम नहीं हैं। मगर चूंकि वे स्वयं को मुस्लिम ही मानते हैं और कहते हैं तो वे इस शर्त को मानने के लिए तैयार नहीं हैं और यही कारण है कि उनके पास अल्पसंख्यकों जितने भी अधिकार नहीं है।
इसे ही लेकर इनके साथ भेदभाव अपने चरम पर है। इन्हें मुस्लिमों के जैसे कोई काम करने की इजाजत नहीं है। उन्हें ईद आदि को सार्वजनिक मनाने की इजाजत नहीं है और हाल ही में इस समुदाय के लगभग 50 लोगों पर ईद की नमाज अदा करने पर ऍफ़आईआर दर्ज हुई थी।
इसी क्रम में चीमा की हत्या शायद हुई है। क्या यह अचंभित करने वाला वाकया नहीं है कि जिस मुल्क के लिए अपनी ही जमीन के साथ अहमदी समुदाय के लोगों ने वफा नहीं निभाई, वह मुल्क उनके साथ ही वफा नहीं निभा रहा है। अहमदी समुदाय के प्रवक्ता महमूद ने कहा कि हमारे समुदाय के एक आदमी की पहचान की गयी और फिर उसे डंडे और ईंटों से मारा गया। पुलिस ने अहमदी समुदाय के लगभग 25 लोगों को सुरक्षा के लिए हिरासत में लिया है। पुलिस ने स्थानीय मीडिया से बात करते हुए कहा कि उन्होंने टीएलपी की रैली को ध्यान में रखते हुए अतिरिक्त पुलिस को तैनात किया है।
महमूद ने द एसोसिएटेड प्रेस के साथ घटना का वीडियो साझा किया है, जिसमें दिख रहा है कि टीएलपी के सदस्य उनकी इबादतगाह के बाहर अहमदी-विरोधी नारे लगा रहे थे। महमूद का यह भी कहना है कि टीएलपी के समर्थक हर शुक्रवार इसी प्रकार का प्रदर्शन करते हैं।
पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने भी इस घटना की निंदा की है। मगर फिर वही प्रश्न आता है कि क्या अहमदी मुस्लिम अपने आपको अल्पसंख्यक समझते हैं?
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