गत 2 अप्रैल को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यालय ने विभिन्न देशों से आने वाले सामान पर उच्च ‘टैरिफ’ लगाने की घोषणा की, जिसे वे पारस्परिक ‘टैरिफ’ कहते हैं। चूंकि विभिन्न देश अमेरिका से आने वाले सामान पर अलग-अलग ‘टैरिफ’ लगाते हैं, इसलिए राष्ट्रपति ट्रम्प ने विभिन्न देशों पर अलग-अलग ‘टैरिफ’ लगाने का विकल्प चुना है। इस संदर्भ में, उन्होंने भारत पर 26 प्रतिशत ‘टैरिफ’ लगाने की घोषणा की।

राष्ट्रीय सह संयोजक, स्वदेशी जागरण मंच
इसका अर्थ यह है कि भारत से अमेरिका को निर्यात किए जाने वाले सामान पर 26 प्रतिशत ‘टैरिफ’ लगेगा। यह महत्वपूर्ण है कि ट्रम्प ने चीन पर 54 प्रतिशत ‘टैरिफ’ लगाया है, जबकि विएतनाम पर 46 प्रतिशत, श्रीलंका 44 प्रतिशत, थाईलैंड 36 प्रतिशत, ताइवान 32 प्रतिशत, दक्षिण अफ्रीका 30 प्रतिशत और जापान 24 प्रतिशत पारस्परिक ‘टैरिफ’ लगाया गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका व्यापार प्रतिनिधि (यूएसटीआर) के कार्यालय के अनुसार, इस पारस्परिक ‘टैरिफ’ को तय करने के लिए एक सूत्र का उपयोग किया गया। इसके अलावा, अमेरिकी प्रशासन ने कहा है कि अगर अन्य देश जवाबी कार्रवाई करते हैं, तो इस ‘टैरिफ’ को और भी बढ़ाया जा सकता है। इस संदर्भ में चीन की जवाबी कार्रवाई और अमेरिका से आयात पर ‘टैरिफ’ बढ़ाने के फैसले के बाद ट्रम्प प्रशासन ने चीन से आयात पर 104 प्रतिशत ‘टैरिफ’ लगाने का फैसला किया है।
डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन
अमेरिकी प्रशासन की ‘टैरिफ’ की एकतरफा घोषणा विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ के नियमों का पूरी तरह से उल्लंघन है। अमेरिका ने पहले भी डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन किया है; लेकिन इस बार उल्लंघन का पैमाना बहुत बड़ा है, क्योंकि ट्रम्प ने सभी देशों उच्च पारस्परिक ‘टैरिफ’ लगाया है। यह समझना होगा कि अब तक विभिन्न देश डब्ल्यूटीओ में अपनी प्रतिबद्धताओं के आधार पर आयात शुल्क लगाते रहे हैं। डब्ल्यूटीओ के जन्म के साथ ही प्रत्येक देश के लगाए जा सकने वाले आयात शुल्क, जिन्हें ‘बाउंड टैरिफ’ के रूप में जाना जाता है, एक समझौते के माध्यम से निर्धारित किया गया था। इस मामले में, भारत द्वारा लगाया जा सकने वाला ‘बाउंड टैरिफ’ औसतन 50.8 प्रतिशत है। यह अलग बात है कि भारत वास्तव में केवल 6 प्रतिशत का औसत भारित आयात शुल्क (एप्लाइड टैरिफ) लगा रहा है, जो ‘बाउंड टैरिफ’ से काफी कम है।
उच्च आयात शुल्क लगाने का कारण
जब राष्ट्रपति ट्रम्प अपने व्यापारिक साझेदारों के बारे में शिकायत करते हैं कि वे अमेरिका से आने वाले माल पर उच्च शुल्क लगाते हैं, जबकि अमेरिका इन देशों से आने वाले माल पर बहुत कम शुल्क लगाता है, तो यह कोई वैध शिकायत नहीं है। हमें यह समझना होगा कि वे देश डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुसार अपने सीमा शुल्क की सीमा के भीतर ही आयात शुल्क लगाते हैं, जो पहले किए गए समझौतों के अनुसार है। ऐसे में यह जानना महत्वपूर्ण है कि अमेरिका ने पहले के ‘टैरिफ’ और व्यापार पर सामान्य समझौते (गैट) के अंतर्गत समझौतों में अन्य देशों के उच्च आयात शुल्क लगाने को क्यों स्वीकार किया?
डब्ल्यूटीओ के जन्म से पहले, विभिन्न देश अपने यहां अपने उद्योगों की रक्षा के लिए बहुत अधिक आयात शुल्क के अलावा मात्रात्मक प्रतिबंध (क्यू आर) लगाते थे। इसके साथ ही, विभिन्न देश अपने उद्योगों की रक्षा के लिए विदेशी पूंजी के प्रवेश पर कई प्रकार के प्रतिबंध भी लगाते थे। अमेरिका और अन्य विकसित देश यह चाहते थे कि भारत और अन्य विकासशील देश अपने आयात शुल्क कम करें और ‘क्यू आर’ लगाना बंद करें, ताकि उनके माल को इन गंतव्यों पर बिना किसी बाधा के निर्यात किया जा सके। इसके साथ ही वे यह भी चाहते थे कि विकासशील देश अपने बौद्धिक संपदा कानूनों में बदलाव करें, विकसित देशों की पूंजी को अपने देशों में प्रवेश की अनुमति दें, कृषि पर समझौता करने के लिए सहमत हों और सेवाओं को गैट समझौतों का हिस्सा बनने की अनुमति दें।
ये शर्तें विकासशील देशों को स्वीकार्य नहीं थीं। ऐसी स्थिति में विकसित देशों ने विकासशील देशों को अधिक आयात शुल्क लगाने की अनुमति दी, ताकि विकासशील देश उनकी शर्तों को मान लें। यानी विकासशील देशों को दुनिया के बाकी हिस्सों से आयातित वस्तुओं पर अधिक शुल्क लगाने की अनुमति के बदले विकसित देशों को बहुत सारे लाभ देने पड़े थे। वस्तुत: विकासशील देशों द्वारा अधिक आयात शुल्क लगाने की अनुमति विकसित देशों द्वारा दान के रूप में नहीं, बल्कि सौदेबाजी के रूप में दी गई थी। ऐसी स्थिति में अगर अब अमेरिकी प्रशासन यह कहता है कि भारत अमेरिका की तुलना में अधिक शुल्क लगा रहा है, तो इसका कोई औचित्य नहीं है।
डब्ल्यूटीओ प्रणाली ने अमेरिका और अन्य विकसित देशों को बहुत लाभ पहुंचाया, क्योंकि इसने एक मजबूत पेटेंट और अन्य आईपीआर (बौद्धिक संपदा अधिकार) व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया, जिससे उनकी दवा और अन्य कंपनियों को उनके बौद्धिक संपदा के लिए रॉयल्टी के रूप में लाभ हुआ, विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के लिए विकासशील देशों के दरवाजे खुले; और भारत सहित विकासशील देशों में अमेरिकी कृषि उत्पादों के लिए बाजार भी खुल गए।
डब्ल्यूटीओ के अस्तित्व को नकारा
हम कह सकते हैं कि अमेरिका का एकतरफा ‘टैरिफ’ लगाना डब्ल्यूटीओ के नियमों और भावना दोनों के खिलाफ है। यहां यह समझना होगा कि हालांकि डब्ल्यूटीओ का पूर्ववर्ती ‘गैट’ यानी टैरिफ और व्यापार पर सामान्य समझौता, मुक्त व्यापार के सिद्धांत पर काम करता था, लेकिन ‘गैट’ के पास विभिन्न देशों को उच्च आयात शुल्क या मात्रात्मक प्रतिबंध लगाने से रोकने का कोई अधिकार नहीं था। लेकिन वह एक शक्तिशाली संगठन रहा है और इसमें किए गए समझौते कानूनी रूप से बाध्यकारी हैं। ऐसे में अमेरिका की एकतरफा ‘टैरिफ’ की घोषणा का मतलब यह है कि डब्ल्यूटीओ के नियमों की पूरी तरह से अवहेलना की गई है।
अब जबकि हम डब्ल्यूटीओ के प्रति पूरी तरह से अवहेलना देख रहे हैं, तो ‘टैरिफ’ और व्यापार पर सामान्य समझौते (गैट) में ट्रिप्स, ट्रिम्स, सेवाओं और कृषि समझौतों के बारे में नए सिरे से सोचने का समय आ गया है। इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ट्रिप्स पर समझौते ने रॉयल्टी व्यय के मामले में हमें भारी नुकसान पहुंचाया है, और इसका सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करने की हमारी क्षमता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। भारत द्वारा रॉयल्टी व्यय, जो एक अरब अमेरिकी डॉलर से कम था, अब सालाना 17अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक हो चुका है।
डब्ल्यूटीओ और इसकी तथाकथित नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रणाली के कारण, भारत चीन की ‘डंपिंग’ और अनुचित सब्सिडी जैसी अनुचित व्यापार प्रथाओं का शिकार रहा है; और चीन जैसी गैर-बाजार अर्थव्यवस्था को भी सर्वाधिक पसंदीदा राष्ट्र (एमएफएन) का दर्जा देने की बाध्यता, अमेरिका जैसे विकसित देशों से सब्सिडी वाले कृषि उत्पादों से अनुचित प्रतिस्पर्धा, भारत सहित विकासशील देशों द्वारा भारी रॉयल्टी व्यय, ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो दिखाते हैं कि भारत सहित अन्य विकासशील देश डब्ल्यूटीओ के तहत कैसे पीड़ित हैं।
जो लोग 1990 के दशक से अमेरिकी दबाव में अपनाई गई मुक्त व्यापार नीति के प्रबल समर्थक रहे हैं, वे अब डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियों से घबरा गए हैं। भारत के वे सभी विशेषज्ञ जो मुक्त व्यापार के लाभों का बखान करते थे, अब ट्रम्प की नीतियों पर निशाना साध रहे हैं, लेकिन आज, वे विकासशील देशों को मुक्त व्यापार की नीति का उपदेश नहीं दे सकते। चूंकि मुक्त व्यापार नीतियों को अपनाने से भारत और अन्य देशों में विनिर्माण में गिरावट आई, जिससे नौकरियां खत्म हुईं और विदेशों पर निर्भरता बढ़ी, लिहाजा इस नीति में उचित बदलाव लाने की तत्काल आवश्यकता है। पिछले पांच वर्ष में भारत ने आत्मनिर्भर भारत की नीति के माध्यम से देश में उन सभी वस्तुओं के विनिर्माण को बढ़ावा देने का निर्णय लिया है, जिनमें वह चीन सहित अन्य देशों पर निर्भर था।
इस नीति ने लाभ देना शुरू कर दिया है। पर इसकी सफलता में सबसे बड़ी बाधा यह है कि हमारे आयात शुल्क अभी भी बहुत कम हैं। यदि आत्मनिर्भर भारत नीति को सफल होना है, तो हमें चीन से आयात पर अंकुश लगाना होगा। आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कहते हैं कि भले ही अमेरिका आयात शुल्क बढ़ा दे, भारत को अपना आयात शुल्क और कम कर देना चाहिए। इस सलाह को आर्थिक रूप से विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता। हमें यह समझने की जरूरत है कि अतीत में मुक्त व्यापार के सबसे बड़े पैरोकार, जैसे कि अमेरिका, अब अपने-अपने राष्ट्रीय हित में संरक्षणवादी बन रहे हैं। इसलिए, अमेरिका के पारस्परिक शुल्कों के बाद, मुक्त व्यापार नीतियां अब प्रासंगिक नहीं रहेंगी। आज जब मुक्त व्यापार के सबसे बड़े साधन डब्ल्यूटीओ का अस्तित्व ही खतरे में है, तब मुक्त व्यापार की वकालत करने का कोई औचित्य नहीं है। वैसे तो आपसी हितों को देखते हुए भारत अमेरिका समेत अन्य देशों के साथ व्यापार समझौते कर सकता है, लेकिन ट्रम्प के दौर में जबकि दूसरे देश संरक्षणवादी हो रहे हों, मुक्त व्यापार को लेकर कोई हठधर्मिता नहीं हो सकती। भारत को इस अवसर का लाभ उठाना होगा और अपने उद्योगों को सुरक्षात्मक माहौल में वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करना होगा।
घरेलू उद्योग की सुरक्षा
यह साबित हो चुका है कि ऐसे बहुपक्षीय समझौते भारत जैसे विकासशील देशों के लिए अच्छे नहीं हैं। अब समय आ गया है कि जब अमेरिका जैसे विकसित देश डब्ल्यूटीओ की अवहेलना कर रहे हैं, तो हमें डब्ल्यूटीओ में ट्रिप्स समेत अन्य शोषणकारी समझौतों से बाहर आने की रणनीति के बारे में सोचना चाहिए। साथ ही, डब्ल्यूटीओ के विघटन के बाद अब मात्रात्मक प्रतिबंध लगाना संभव हो सकेगा। ऐसी स्थिति में, हम आरक्षण की नीति को फिर से लागू कर विकेंद्रीकरण और रोजगार सृजन के लिए एक बड़ा प्रयास कर सकते हैं और अपने छोटे उद्योगों की रक्षा और संवर्धन के लिए कुछ ऐसे उत्पादों को छोटे उद्योगों के लिए आरक्षित कर सकते हैं।
अब जबकि राष्ट्रपति ट्रम्प ने दुनिया भर से अपने आयात पर ‘टैरिफ’ लगा दिया है, तो हमें इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए एक अलग रणनीति बनानी होगी। ऐसे कई क्षेत्र हैं जिन्हें लाभ हो सकता है, क्योंकि हमारे निर्यात को अमेरिका में नए बाजार मिल सकते हैं, जबकि चीन के निर्यात को ट्रम्प प्रशासन द्वारा लगाए गए उच्च पारस्परिक टैरिफ (अब 104 प्रतिशत) के कारण नुकसान हो सकता है। साथ ही, चूंकि यूरोपीय संघ और अन्य देश वैश्विक मूल्य शृंखला में नई साझेदारी के लिए आगे आ रहे हैं, लिहाजा रक्षा जैसे क्षेत्रों में, हमें बहुत लाभ हो सकता है।
द्विपक्षीय समझौतों की जरूरत
नए परिदृश्य में, भारत को बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के बजाय द्विपक्षीय व्यापार समझौतों के साथ अपने विदेशी व्यापार को बढ़ाना चाहिए। हालांकि, अमेरिका और अन्य देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते करते समय, राष्ट्रीय हितों की रक्षा की जानी चाहिए, खासकर हमारे किसानों और छोटे उद्यमियों की।
हमने देखा है कि पिछले 10 वर्ष में सरकार व्यापार समझौतों पर बातचीत करते समय किसानों के हितों और उनकी आजीविका की रक्षा कर रही है, चाहे वह ऑस्ट्रेलिया के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) से कृषि को बाहर करना हो, या डेयरी और कृषि पर इसके प्रतिकूल प्रभाव की चिंताओं के कारण क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) से बाहर आना हो। जहां तक कृषि और लघु उद्योग का सवाल है, इस नीति को जारी रखने की जरूरत है, खासकर जहां किसानों और श्रमिकों की आजीविका प्रभावित हो रही हो।
इसके अलावा, भारतीय रुपए में विदेशी व्यापार को बढ़ाने के लिए सरकार का प्रयास सराहनीय है। हालांकि, यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाना चाहिए कि स्विफ्ट जैसी पश्चिमी प्रणाली को हमारे देश पर दबाव बनाने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल न करने दिया जाए। आज पूरी दुनिया भू-आर्थिक विखंडन के दौर से गुजर रही है और इस परिदृश्य में सफलता की कुंजी ‘राष्ट्र प्रथम’ की नीति है।
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