विश्लेषण

डॉ. आंबेडकर की पत्रकारिता का ‘सांस्कृतिक अवदान’

बाबा साहब ने देश के दलितों, वंचितों, शोषितों, मजदूरों और स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा, सम्मान एवं अधिकार दिलाने के लिए बहुविध प्रयत्न किए। इसके लिए उन्होंने पत्रकारिता को एक कारगर औजार के रूप में बखूबी अपने सामाजिक आंदोलनों में इस्तेमाल किया।

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सार्थक शुक्ला

भारत के संविधान के शिल्पकार डॉ. भीमराव आंबेडकर ने समाज में व्याप्त जाति-भेद, ऊँच-नीच एवं अस्पृश्यता के विरुद्ध अथक संघर्ष किया। सर्वथा अतार्किक, मनुष्य विरोधी घृणित मान्यताओं व रूढ़ियों के कारण विद्यार्थी- काल से ही डॉ. आंबेडकर को पग-पग पर अपमान, उपेक्षा और तिरस्कार का सामना करना पड़ा। उन्होंने देश के दलितों, वंचितों, शोषितों, मजदूरों और स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा, सम्मान एवं अधिकार दिलाने के लिए बहुविध प्रयत्न किए। इसके लिए उन्होंने पत्रकारिता को एक कारगर औजार के रूप में बखूबी अपने सामाजिक आंदोलनों में इस्तेमाल किया, उनका मानना था कि- “जैसे पंख के बिना पक्षी होता है, वैसे ही समाचार-पत्र के बिना आंदोलन होते हैं।”

पत्रकारिता के माध्यम से ‘राष्ट्रीय चेतना’ का प्रज्ज्वलन

अपने आंदोलनों को पंख देने के लिए डॉ. आंबेडकर ने चार पत्र निकाले इनमें पहला है मूकनायक, जो 1920 से 1923 तक छपा। कुछ समय बाद बंद हो गया, बंद पड़ने के बाद कुछ दिनों तक ‘अभिनव मूकनायक’ के नाम से भी यह छपता रहा। इसके अतिरिक्त वर्ष 1927 से 1929 तक ‘बहिष्कृत भारत’, वर्ष 1930 में ‘जनता’ और 1956 में ‘प्रबुद्ध भारत’ भी  निकाला। ‘मूकनायक’ व बहिष्कृत भारत’ दोनों ही पत्र पाक्षिक थे। ध्यातव्य है कि ‘जनता’ का ही नाम बदलकर ‘प्रबुद्ध भारत’ कर दिया गया था। ‘मूकनायक’ और ‘बहिष्कृत भारत’ का संपादन स्वयं डॉ. आंबेडकर करते थे, जब कि शेष दो पत्रों का संपादन उनके दिशा-निर्देशन में होता था, हालाँकि ये सभी बाबासाहब के आंदोलन के मुखपत्र ही थे।

उन्होंने ‘मूक नायक’ और ‘बहिष्कृत भारत’ तथा अन्य पत्रों के माध्यम से समतामूलक समाज की स्थापना के लिए सामाजिक क्रांति का उद्घोष किया। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि जाति-विहीन समाज हिंदुओं के व्यापक हित में है और इसी पर समृद्ध, आत्मनिर्भर एवं पूर्ण विकसित राष्ट्र का निर्माण अवलंबित है। डॉ. आंबेडकर की पत्रकारिता किसी संकीर्ण विचारधारा तक सीमित नहीं थी। वे एक दूरदर्शी विचारक थे, जिन्होंने पत्रकारिता को सामाजिक सुधार, न्याय, समानता और राष्ट्र निर्माण का माध्यम बनाया। आंबेडकर ने ब्रिटिश नीतियों की मुखर आलोचना की, विशेषकर उन नीतियों की जो भारतीय समाज में विभाजन और दमन को बढ़ावा देती थीं। उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता की विसंगतियों को उजागर किया। यह कार्य एक सच्चे राष्ट्रवादी की पहचान है।

समतापूर्ण – सर्वसमावेशी समाज का निर्माण ही पत्रकारिता का उद्देश्य

डॉ. आंबेडकर अपनी तेजस्वी पत्रकारिता के माध्यम से जहाँ एक ओर दलित एवं शोषित वर्ग में साहस एवं स्वाभिमान का संचार कर रहे थे, ‘पढ़ो, संगठित हो जाओ और संघर्ष करो’ का मंत्र फूँक रहे थे तो वहीं दूसरी ओर बहुत ही तार्किक ढंग से सवर्ण समाज को ‘समता’ का बोध भी प्रदान कर रहे थे। उनकी पत्रकारिता की पहुँच केवल दलितों तक सीमित नहीं थी, बल्कि पत्रकारिता के माध्यम से हिन्दू समाज के सभी वर्गों का प्रबोधन करना ही उनका उद्देश्य था। समतापूर्ण समाज का निर्माण करने के लिए दलित वर्ग में आत्मविश्वास जगाना जितना आवश्यक था और उतना ही आवश्यक सवर्ण समाज को यह समझाना कि मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं करना, सबको बराबरी का हक देना।

मूकनायक में बाबासाहब ने 14 आलेख लिखे, पहले ही अंक में वे लिखते हैं- “हमारे इन बहिष्कृत लोगों पर हो रहे तथा भविष्य में होने वाले अन्याय पर उपाय सुझाने हेतु तथा भविष्य में इनकी होने वाली उन्नति के लिए जरूरी मार्गों पर चर्चा हो,  इसके लिए पत्रिका के अलावा और कोई दूसरी जमीन नहीं है”

इसी तरह पत्रकारिता के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए डॉ. आंबेडकर ने लिखा है – “सारी जातियों का कल्याण हो सके, ऐसी सर्वसमावेशक भूमिका समाचार-पत्रों को लेनी चाहिए। यदि वे यह भूमिका नहीं लेते हैं, तो सबका अहित होगा”

डॉ. आंबेडकर की पत्रकारिता का सांस्कृतिक अवदान

शीर्षस्थ विधिवेत्ता, प्रखर चिंतक, क्रांतिकारी समाज-सुधारक डॉ. बाबासाहेब भीमराव रामजी आंबेडकर के ऐतिहासिक अवदान उनके पत्रकारीय कृतित्व का दिग्दर्शन व उसमें बाबासाहेब के सांस्कृतिक चिंतन का दृष्टिकोण समझना एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय जान पड़ता है, विशेषतः आज के इस युग में।

आंबेडकर ने ‘मूकनायक’ की दिशा स्पष्ट करने के लिए संत तुकाराम की चौपाई पहले अंक से ही छापी। मराठी में छंद का नाम है ओवी:

काय करूं आतां धरूनियां भीड।

निःशंक हे तोंड वाजविलें॥

नव्हे जगीं कोणी मुकीयांचा जाण।

सार्थक लाजून नव्हे हित॥

इसका अर्थ है – मैं क्यों पीछे हटूं? मैंने अब हिचक छोड़ दी है और बोलना शुरू कर दिया है। इस धरती पर गूंगे की बात सुनता कौन है? शालीनता भर ओढ़ने से कुछ नहीं मिलता।

‘बहिष्कृत भारत’ में भी संत ज्ञानेश्वर की ‘ओवी’ छपी है। ज्ञानेश्वर ने बारहवीं सदी में पहली बार भगवद्गीता पर मराठी में टीका लिखी, जिसका नाम ‘ज्ञानेश्वरी’ है, यह उसी का छंद है, इन पंक्तियों में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं:

आता पार्थ निःशंकु होई, या संग्रामा चित्त देई॥

एथ हे वाचनी काही, बोलो नये॥

अर्थात – हे पार्थ अब केवल एक ही विकल्प है – संग्राम

‘अब केवल संग्राम। संग्राम के अलावा कुछ नहीं।’

संस्कृति का संबंध मनुष्य की जीवन-पद्धति से, जीवन-शैली से तथा उसके द्वारा निर्मित सभी सामाजिक संस्थाओं के साथ है, इस अर्थ में ही बाबासाहेब का संपूर्ण चिंतन ही संस्कृति के अंतर्गत आता है। उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चिंतन पर पर्याप्त रूप में विचार किया गया है यद्यपि ये तीनों ही इकाइयाँ संस्कृति से ही संबंधित हैं। इन तीनों के अलावा शिक्षा, साहित्य, कला का समावेश भी संस्कृति के अंतर्गत होता है।

ज्ञातव्य है कि डॉ. बाबासाहब ने अपने मार्गदर्शन तथा गुरु के रूप में तीन महापुरुषों के नाम लिये हैं वे हैं – महात्मा गौतम बुद्ध, महात्मा कबीर तथा महात्मा ज्योतिबा फुले।

इन तीनों के विचारों के संस्कारों के कारण ही उन्हें एक नई दृष्टि मिली। इन तीनों के विचारों का बहुत ही गहरा प्रभाव उनकी दृष्टि व सोच पर हुआ। उनके पिता कबीर पंथ में दीक्षित थे अतएव वे बचपन से ही कबीर के भजन सुनते गाते भी थे। केलुसकर गुरुजी ने उन्हें महात्मा गौतम बुद्ध की जीवनी भेंट की थी। बुद्ध के जीवन से वे इतने प्रभावित हुए कि बाद में उन्होंने बुद्ध धर्म तथा महात्मा गौतम बुद्ध के व्यक्तित्व का गहन अध्ययन किया। मृत्यु के कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने ‘बुद्ध एंड हिज धम्म’ नामक पुस्तक भी अंग्रेजी में लिखी। महात्मा फुले की मृत्यु जिस वर्ष हुई, वही वर्ष बाबासाहब के जन्म का वर्ष भी है। युवावस्था में वे फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज के संपर्क में आए। समग्र फुले को उन्होंने पढ़ा, उससे भी उन्हें बहुत प्रेरणा मिली। बाबासाहब के चिंतन के मूल में इन तीन महापुरुषों का व्यक्तित्व और कृतित्व महत्त्वपूर्ण है। इसमें भी कोई दो मत नहीं है कि इन तीनों के विचारों को आत्मसात कर बाबासाहब उनके चिंतन को और आगे ले जाते हुए ही नजर आते हैं

महात्मा फुले के समान उनके शिष्य डॉ. बाबासाहब भी अछूतों की उन्नति के लिए शिक्षा को ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व शक्तिशाली विकल्प है।

विचारों का स्वतंत्र एवं मौलिक स्वरूप एवं अंत्योदय की भावना: राष्ट्रवाद का मानवीय आधार

डॉ. आंबेडकर की पत्रकारिता का केंद्र बिंदु सबसे कमजोर वर्ग था। उनका मानना था कि जब अंतिम व्यक्ति को न्याय मिलेगा, तभी राष्ट्र सच्चे अर्थों में स्वतंत्र और सशक्त होगा। यही श्रद्धेय दीनदयाल जी की दृष्टि में भी राष्ट्रवाद का अत्यंत मानवीय और उदार स्वरूप है। डॉ. आंबेडकर किसी भी विदेशी विचारधारा के अंधानुकरण शामिल में नहीं थे। उन्होंने मार्क्सवाद, पूँजीवाद, गांधीवाद इत्यादि सभी का अध्ययन किया तथा भारतीय समाज के लिए जो उन्हें श्रेष्ठ लगा वही प्रस्तुत किया। यह स्पष्ट रूप से एक मौलिक राष्ट्रवादी पत्रकार की पहचान है, जो अपने देश की मिट्टी से जुड़े विचारों को पहचान कर प्रसारित करता था। साम्यवादियों की यह स्थापना थी कि वर्ण और जाति व्यवस्था विशिष्ट अर्थव्यवस्था की देन है। अछूतों की अवनति के मूल में उनका आर्थिक शोषण है। अछूतों की समस्या सामाजिक न होकर आर्थिक है। परंतु बाबासाहब इस स्थापना से सहमत नहीं हैं।

वे स्पष्टतः लिखते हैं- “भारत के दलित समाज की उन्नति का प्रश्न आर्थिक प्रश्न है-ऐसा माना जाता है। पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। इस दलित समाज की उन्नति का अर्थ उन्हें अन्न, वस्त्र तथा निवास की सुविधा देकर फिर से उच्च वर्ग की सेवा करने में जुटाना नहीं है। उनकी उन्नति का अर्थ है उनमें जो हीनता ग्रंथि पैदा हुई है, उसे नष्ट करना। उन्हें उनकी अस्मिता का, स्वाभिमान का अहसास करा देना। यही इनकी मुख्य समस्या है। उनमें उच्च शिक्षा के प्रचार-प्रसार के अलावा अन्य किसी भी पद्धति से इस समस्या को निबटाना संभव नहीं है। हमारी सभी सामाजिक व्यवस्थाओं पर यही एकमात्र औषधि है।

बाबासाहब को आप उनके समय का सर्वाधिक ‘पढ़ाकू व्यक्ति’ यदि कहें तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी विभिन्न ज्ञान शाखाओं पर उनका अध्ययन आश्चर्यचकित करने वाला था, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, इतिहास, राजनीति, कानून, वाणिज्य से लेकर संत साहित्य तक उनका गहन अध्ययन था। इनमें से प्रत्येक विषय पर उन्होंने लिखा भी है और जो लिखा है, वह मौलिक है, प्रमाणिक है। हजारों ग्रंथों का संग्रह उनके पास था, शास्त्रार्थ हेतु बाद में उन्होंने प्रयत्नपूर्वक संस्कृत भी सीखी। वेद, उपनिषद्, पुराण, संस्कृत महाकाव्य, नाटक भी उन्होंने पढ़े उनके कई प्रकाशित लेखों से विस्तृत अध्ययन के प्रमाण हमें प्राप्त होते हैं। जिस किसी भी विषय पर उन्हें लिखना या पढ़ना होता, उसकी मौलिक पुस्तकें वे खरीद लेते, उन्हें पढ़ते, चिंतन-मनन करते और फिर स्वयं उस विषय पर सिद्धहस्त होकर लिखते । वे कई भाषाओँ के ज्ञाता थे अंग्रेजी, पर्शियन, मराठी पर उनका अधिकार था ही, इसके साथ-साथ  हिंदी-गुजराती भी बोल लेते थे। संत साहित्य की सीमाओं को उन्होंने जिस प्रकार से रेखांकित किया, ठीक उसी प्रकार उसकी विशेषताओं को भी रेखांकित कर स्पष्ट किया। लेखन या कहें कि अन्य भी किसी क्षेत्र में उन्होंने अतिवादी भूमिका को कहीं भी नहीं अपनाया।

‘मनुजऋण’ चुकाने का साधन ‘पत्रकारिता’

डॉ. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर एक सव्यसाची पत्रकार थे। सामाजिक प्रबोधन और सामाजिक न्याय के तत्त्वों का आधार ही उनकी पत्रकारिता का मूल था।

3 फरवरी, 1928 के ‘बहिष्कृत भारत’ में ‘बहिष्कृत भारताचे ऋण हे लौकिक ऋण नव्हे काय ?’ शीर्षक के अंतर्गत लिखते हुए वे महाभारत का एक श्लोक उद्धृत करते हैं जिसमें चार ऋण बताए गए हैं- पितृऋण,  देवऋण, ऋषिऋण और मनुजऋण ।

इन चार ऋणों को कैसे चुकाया जाए, इसका विवेचन महाभारत में हुआ है। बाबासाहब लिखते हैं कि इन चार ऋणों में से तीन ऋणों का संबंध अलौकिकता के साथ, अध्यात्म के साथ है। इनमें से एक ही ऋण लौकिक स्वरूप का है और वह है ‘मनुजऋण’ उनके संपूर्ण चिंतन में मनुष्य ही केंद्र में है। इस मनुष्य को उसकी व्यथाओं से मुक्त करने का प्रत्येक को प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार का प्रयत्न करना ही मनुजऋण चुकाना है। वे पत्रकारिता को मनुजऋण चुकाने का एक साधन मानते हैं। यह दृष्टि अपने आप में मौलिक और महत्त्वपूर्ण है। पत्रकारिता वास्तव में मनुष्य को कल्याण की ओर ले जाने का माध्यम है – ऐसा वे मानते थे। पत्रकारिता को उन्होंने लौकिक ऋण चुकाने हेतु ही स्वीकार किया था।

बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर जैसा कृतसंकल्पित पत्रकार आज के पत्रकारिता के युग की आवश्यकता है, डॉ. आंबेडकर की पत्रकारिता की महत्ता व उनके पत्रकार जीवन का सार समझना हो तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने अपनी पुस्तक ‘डॉ. आंबेडकर और सामाजिक क्रान्ति की यात्रा’ में जो लिखा वह पर्याप्त है,  उन्होंने लिखा – “भारतीय समाचार-पत्र जगत की उज्ज्वल परंपरा है, परंतु आज चिंता की बात यह है कि संपूर्ण समाज का सर्वांगीण विचार करने वाला, सामाजिक उत्तरदायित्व को मानने वाला, लोकशिक्षण का माध्यम मानकर तथा एक व्रत के रूप में समाचार-पत्र का उपयोग करने वाला डॉ. आंबेडकर जैसा पत्रकार दुर्लभ है।”

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