वन भूमि को राैंदते बुलडोजर
तेलंगाना सरकार का एक निर्णय हैदराबाद के फेफड़ों पर कुल्हाड़ी चलाने जैसा है। हैदराबाद विश्वविद्यालय से सटी कांचा गाचीबोवली की 400 एकड़ घनी, तरह-तरह के जीवों से भरी वनभूमि को आईटी पार्क के लिए नीलाम करना किसी बड़े अनिष्ट का संकेत है। यह सिर्फ़ जमीन का टुकड़ा नहीं, बल्कि एक जीता-जागता पारिस्थितिकी तंत्र है–पेड़ों, अनगिनत पशु-पक्षियों और एक गहरी सांस्कृतिक चेतना का घर।
विडम्बना देखिए, इसी हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी और पर्यावरण मंत्रालय ने ‘पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील’ घोषित किया है। यहां का शांत वातावरण शोध और शिक्षा के लिए बहुत अच्छा है, लेकिन लगता है, सरकार ने यह सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझी कि आईटी पार्क जैसी भारी-भरकम गतिविधियां इस पूरे शांत और ज़रूरी ताने-बाने को कैसे तहस-नहस कर देंगी।
इस वन क्षेत्र में आधी रात को जब सरकारी ठेकेदारों के बुलडोजर गरजे, तो पूरा इलाका जंगली जानवरों की चीखों से दहल उठा। अंधेरे में चमकती मशीनें, उनकी गड़गड़ाहट और जान बचाकर भागते मोर, सियार, और अन्य जीवों का चीत्कार इतना डरावना था कि यह सब देखकर सोशल मीडिया पर लोगों का गुस्सा फूट पड़ा।
इस हलचल में कुछ पुरानी यादें ताजा हो गईं। गांव-देहात में बड़े-बुज़ुर्ग हमेशा कहते थे— ‘शाम ढलने के बाद पेड़-पौधों को हाथ नहीं लगाते।’ क्यों? क्योंकि हमारी सदियों पुरानी समझ और अनुभव ने सिखाया था कि प्रकृति का सम्मान कैसे करें। ‘सायं वृक्षस्पर्शो न सेव्यः।’ आयुर्वेद और पारंपरिक खेती का ज्ञान भी यही कहता है कि शाम के समय पेड़-पौधों में जीवन ऊर्जा का प्रवाह धीमा हो जाता है और वे अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
यह सिर्फ़ एक परम्परा नहीं, हमारी संस्कृति की उस गहरी समझ का प्रतीक है जो प्रकृति के साथ तालमेल और संवेदनशीलता को पूजने योग्य मानती है। यह साथ मिलकर जीने का वही सिद्धांत है जिस पर मनुष्य और पर्यावरण का संबंध टिका है। लेकिन जब सरकार ही इस संवेदनशीलता को कुचलकर, रात के अंधेरे में जंगलों का सौदा करने लगे, तो यह विकास नहीं, विनाश को बुलावा है।
तेलंगाना बायोडायवर्सिटी बोर्ड (2019) के अनुसार, कांचा गाचीबोवली के इन जंगलों में 200 से ज़्यादा पक्षी प्रजातियां, कई तरह के रेंगने वाले जीव और स्तनधारी जीव बसते हैं। यह इंडियन ग्रे हॉर्नबिल, पेंटेड स्टॉर्क, नेवले, सियार और कम दिखने वाली तितलियों का घर है। विकास के नाम पर चलने वाली कुल्हाड़ियों के बीच इन निरीहों का क्या होगा? क्या उन्हें कहीं और बसाना संभव भी है? यह तथाकथित विकास असल में सैकड़ों प्रजातियों के जीवन को हमेशा के लिए खत्म करने जैसा निर्दयी निर्णय है।
जानकार बताते हैं कि शहरों के बीच ऐसे जंगल ‘अर्बन कार्बन सिंक’ की तरह काम करते हैं, यानी शहर के गंदे धुएं को सोखते हैं। इसरो (2021) और एनबीडीबी की रिपोर्ट कहती है कि यह हरा-भरा क्षेत्र हर साल लगभग 2,000 टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है। इसे खत्म करने का मतलब है हैदराबाद के बढ़ते तापमान और प्रदूषण को और बढ़ावा देना। सवाल यह है कि क्या पेड़ों की जगह उगने वाले ऊंचे-ऊंचे आईटी टावरों की चमक, धरती की बढ़ती प्यास और गर्मी को शांत कर पाएगी? बिना सोचे-समझे किया गया विकास तो हमेशा ही मुसीबतों को न्योता देता है।
याद रखिए, हैदराबाद पहले ही 2020 में भयानक शहरी बाढ़ का प्रकोप झेल चुका है। उस बाढ़ ने दिखाया था कि कैसे अवैध कब्ज़े और गलत निर्माण पानी के प्राकृतिक बहाव के रास्तों को रोककर संकट को कई गुना बढ़ा देते हैं। कांचा क्षेत्र में भी कई मौसमी तालाब और पानी के नाले हैं। इन्हें खत्म करना भविष्य की बाढ़ को सीधा बुलावा देना है। (स्रोत: जीएचएमसी हाइड्रोलॉजिकल स्टडी 2020, एनआईडीएम अर्बन फ्लड रिपोर्ट 2021)
यह लड़ाई सिर्फ़ ज़मीन की नहीं, सोच की भी है। यह उसी मानसिकता का प्रतीक है जिसमें सब कुछ हथिया लेने की भूख ही विनाश का कारण बनती है। रात के अंधेरे में यह नीलामी दिखाती है कि पारदर्शिता, लोगों से बातचीत और पर्यावरण की चिंता जैसे ज़रूरी मूल्यों को नजरअंदाज कर दिया गया है।
जब पेड़ों पर बने घोंसले उजड़ते हैं, जब कोयल, तोते और चातक की आवाज़ें खामोश हो जाती हैं, तो यह सिर्फ़ एक प्राकृतिक घटना नहीं, एक नैतिक सवाल भी है– क्या इस धरती पर सिर्फ़ मानवों का अधिकार है? पक्षियों के प्रजनन, हिरणों और नेवलों के ठिकानों को रौंदकर जो विकास होगा, वह अंदर से खोखला होगा, क्योंकि उसकी नींव में हजारों दबी हुई आहें होंगी।
प्रकृति के प्रति आदर भारतीय जीवनशैली का आधार रहा है। ‘वृक्ष देवता’, ‘वनदेवी’, ‘पंचवटी’ – ये सिर्फ़ किताबी बातें नहीं, जीवन जीने के तरीके रहे हैं। ऐसे में पेड़ों को रात में काटना, जब वे सबसे शांत हालत में होते हैं, यह केवल पर्यावरण का नहीं, हमारी संस्कृति का भी अपमान है।
हैदराबाद विश्वविद्यालय देश का एक जाना-माना शोध संस्थान है। वहां का ‘ग्रीन कैंपस’ परंपरा छात्रों को सिर्फ़ ज्ञान ही नहीं, प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता भी सिखाता है। इस शांत परिसर के पास ऊंची इमारतें, बढ़ता ट्रैफिक और गंदगी, पढ़ाई और शोध के वातावरण को नष्ट कर देगा।
बेंगलुरु और गुरुग्राम में आईटी पार्कों के नाम पर हरियाली मिटाने के परिणाम हम देख चुके हैं – बढ़ता कार्बन धुआं, गहराता जल संकट और ‘अर्बन हीट आइलैंड’ (शहरों का ज़्यादा गर्म होना)। कांचा गाचीबोवली को भी उसी विनाशकारी रास्ते पर धकेला जा रहा है। यह एक चेतावनी है जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र के ‘टिकाऊ विकास लक्ष्यों’ के प्रति वचनबद्धता जताई है, जिनमें ‘जलवायु कार्रवाई’, ‘भूमि पर जीवन’, और ‘टिकाऊ शहर’ शामिल हैं। तेलंगाना सरकार का यह फ़ैसला इन तीनों लक्ष्यों का सीधा उल्लंघन है और हमारी राष्ट्रीय ज़िम्मेदारियों के विरुद्ध है।
प्रश्न उठता है, ऐसे में क्या कोई रास्ता है? अगर विकास ज़रूरी है, तो क्या विनाश ही एकमात्र रास्ता है? विकल्प मौजूद हैं: इस क्षेत्र को ‘शहरी पारिस्थितिक वन संरक्षित क्षेत्र’ घोषित किया जा सकता है। आईटी पार्क को शहर में खाली पड़ी पुरानी औद्योगिक जमीन पर बनाया जा सकता है।
कांचा गाचीबोवली की यह 400 एकड़ ज़मीन महज़ एक भूखंड नहीं, एक जीती-जागती विरासत है, एक जैविक संस्कृति है, और हैदराबाद की हरी पहचान है। विकास की अंधी दौड़ में अगर हम उन चीज़ों को ही रौंद देंगे जो हमें जीवन देती हैं, तो आखिर में न विकास बचेगा, न जीवन।
याद रखें, जो समाज निरीह चीखों को अनसुनी कर देता है, वह एक दिन अपने ही भविष्य की चीत्कार नहीं सुन पाएगा।
x@hiteshshankar
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