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भारतीय ज्ञान परंपरा में जैन मत का योगदान: संस्कृत साहित्य से लेकर काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण तक

भारतीय ज्ञान परंपरा के संवर्धन में जैन मत का विशेष योगदान रहा है। इस बात के स्पष्ट प्रमाण पुराणों सहित अन्य भारतीय ग्रंथों में मौजूद हैं।

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भारतीय ज्ञान परंपरा के संवर्धन में जैन मत का विशेष योगदान रहा है। इस बात के स्पष्ट प्रमाण पुराणों सहित अन्य भारतीय ग्रंथों में मौजूद हैं। योगवशिष्ठ, श्रीमदभागवत, विष्णुपुराण, पदम्पुराण, मत्स्यपुराण आदि प्राचीन ग्रंथों में जैन मत का उल्लेख मिलता है।

भारतीय संस्कृत साहित्य का अधिकांश भाग जैन-ग्रन्थ भण्डारों में सुरक्षित है। जैसलमेर, नागौर एवं बीकानेर के ग्रन्थागार इस तथ्य के साक्षी हैं। इन ग्रन्थागारों के द्वारा संस्कृत साहित्य के इतिहास की कड़ियाँ प्रकाश में आ सकी हैं। संस्कृत के रचनाकारों के साथ-साथ हमें महामना जैन मुनियों का भी ऋणी होना चाहिए, जिन्होंने अपने संस्कृतानुराग के कारण कई दुर्लभ एवं विस्मत संस्कृत ग्रन्थों पर ध्यान केन्द्रित कर उन्हें काल के भयंकर थपेड़ों से और इतिहास की खूखार तलवार से बचाये रखा। डॉ. सत्यव्रत ने ठीक ही कहा है, “यह सुखद आश्चर्य है कि जैन साधकों ने अपने दीक्षित जीवन तथा निश्चित दृष्टिकोण की परिधि में बद्ध होते हुए भी साहित्य के व्यापक क्षेत्र में झाँकने का साहस किया, जिसके फलस्वरूप वे साहित्य की विभिन्न विधाओं एवं उसकी विभिन्न शैलियों की रचनाओं से भारती के कोश को समृद्ध बनाने में सफल हुए हैं।”

महावीर स्वामी के बाद जैन परंपरा मेंन आचार्य पादलिप्त का उल्लेख सामने आता है। उनका कालखंड ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य के आसपास माना गया है। उन्होंने प्राकृत भाषा में एक बहुत ही सुन्दर रचना ‘तरंगावली’ के नाम से लिखी है। यह पुस्तक मूलतः जैन महाराष्ट्रीय प्राकृत में निर्माण की गई है। गद्य और पद्य दोनों का ही विलक्षण समन्वय इसमें किया गया है। आचार्य वीरभद्र के शिष्य नेमनाथ ने इसे प्राकृत में ही 100 गाथा परिमाण का संक्षिप्त संस्करण तैयार किया है। इसके अतिरिक्त जैन नित्यकर्म, जैन दीक्षा, प्रतिष्ठा-पद्धति तथा शिल्प-निर्माण-कलिका नामक ग्रंथों को आचार्य देव ने संस्कृत भाषा में ही लिखा है। सम्राट विक्रमादित्य वैदिक परंपरा को मानते थे लेकिन उनके शासन में अन्य मतों को भी पूरा सम्मान मिलता था। उनके नवरत्नों में एक जैन संत सिद्धसेन दिवाकर भी शामिल थे।

11-12वीं शताब्दी में होने वाले आचार्य हेमचन्द्र संस्कृत के उद्भट विद्वान् थे। संस्कृत वाङमय के क्षेत्र में आचार्य हेमचन्द्र का विस्मयकारी योगदान है। प्रमाणमीमांसा उनकी जैनन्याय की अनूठी रचना है। त्रिशष्टिशलाका पुरुषचरित प्रसिद्ध महाकाव्य है। सिद्धहेमशब्दानुशासन लोकप्रिय व्याकरणग्रंथ है। जैनाचार्य ब्रह्म जिनदास ने हिन्दी के साथ संस्कृत भाषा में भी काव्य रचना की, जिनमें पद्मपुराण, जम्बूस्वामीचरित्र, हरिवंशपुराण मुख्य हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि संस्कृत साहित्य के सम्वर्धन में जैन मुनियों, आचार्यों एवं विद्वानों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

कन्नड भाषा से संबंध

कन्नड़ भाषा के जन्मदाता, उसके साहित्य को समृद्ध करने बाले ओर कन्नड़ की महानतम देन, देने वाले जैन कवि ही थे। इस समस्त धार्मिक प्रचार, प्रभाव एवं सम्रद्धि का श्रेय महावीर स्वामी के बाद जैन धर्म के प्रमुख आचार्य भद्गबाहु स्वामी को है, जिन्होंने अनेक उपसर्ग सहन कर आहँती संस्कृति का प्रचार किया।

काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण

1206 में गौरी की मृत्यु के बाद दिल्ली का सुलतान कुतुबुद्दीन ऐबक बन गया। इसके बाद 1260 तक तुर्कों का काशी पर कब्जा बना रहा। हालाँकि, इसी समयाविधि में हिन्दुओं ने स्थानीय स्तर पर अपना दबदबा फिर से बना लिया था। इसका एक उदाहरण इल्तुतमिश के शासन में मिलता है। दरअसल, गुजरात के एक जैन दानकर्ता वास्तुपाल द्वारा विश्वनाथ मंदिर की पूजा के लिए धनराशि भेजने का उल्लेख मिलता है। यह पैसे उन्होंने विश्वनाथ मंदिर के पुनः स्थापना के लिए भेजे थे।

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