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तेजोमय जीवन का वैदिक दर्शन 

सद्गुण चिंतन तथा ईश्वर से सद्गुणों की याचना हमारी संस्कृति की प्राचीन काल से स्थापित ऋषि परंपरा है। ऐसे धारण करने योग्य श्रेष्ठ गुणों को ही हमारे यहां धर्म कहा गया है (धारणात् धर्म)। वेदों में सद्गुण सम्पन्न जीवन के सूत्र हैं

by हनुमान सिंह राठौड़
Apr 3, 2025, 11:25 am IST
in भारत, संस्कृति
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हमारे यहां कुटुम्ब में सद्गुणों के आदान हेतु एक वैदिक प्रार्थना है-

तेजोऽसि तेजो मयि धेहि। वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि। 
बलमसि बलं मयि धेहि। ओजोऽस्योजो मयि धेहि। 
मन्युरसि मन्युं मयि धेहि। सहोऽसि सहो मयि धेहि।। (यजुर्वेद 19-9)

हनुमान सिंह राठौड़
पूर्व क्षेत्र कार्यवाह
 उत्तर पश्चिम क्षेत्र, रा.स्व.संघ

अर्थात्-‘हे परमेश्वर, आप तेज स्वरूप हैं अत: हमारे अंदर तेज स्थापित कीजिए। हे प्रभु, आप पौरुषवान हैं अत: हममें वीरता भरिए। हे शक्तिधाम, आप बल के भंडार हैं अत: हमें बल से भरपूर कीजिए। हे ईश, आप ओजस्वी हैं, हमें ओज प्रदान कीजिए। हे मननयुक्त रोषवान्­, हमें अनीति-प्रतिरोध की क्षमता प्रदान करें। हे सर्व नियंत्रक, आप सबको नियंत्रण में रखने वाले हैं, हम में भी अनुशासन-भावना भरिए।’

सद्गुण चिंतन तथा ईश्वर से सद्गुणों की याचना हमारी संस्कृति की प्राचीन काल से स्थापित ऋषि परंपरा है। ऐसे धारण करने योग्य श्रेष्ठ गुणों को ही हमने धर्म कहा है (धारणात् धर्म)-

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। 
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥
धृति, क्षमा, दम (अधर्म से मन को रोकना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तर्बाह्य शुद्धि), इन्द्रिय-निग्रह (मन को लोलुपता से रोकना), धी (बुद्धि को सत्कार्यों, सत्­संकल्पों में लगाना), विद्या (यथार्थ ज्ञान और उसका यथार्थ उपयोग), सत्य (जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही समझना), अक्रोध (शांत भाव का ग्रहण), ये धर्म के दश लक्षण हैं।

पारिवारिक समृद्धि के मूल गुणों की भी चर्चा अपने वाड्मय तथा दैनिक व्यवहार में है-
उत्थानं संयमो दाक्ष्यम् अप्रमादो धृति: स्मृति:। 
समीक्ष्य च समारम्भो विद्धि मूलं भवस्य तत्।। 
अर्थात् परिश्रम, आत्म-नियंत्रण, कुशलता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और परिपक्व विचार-विमर्श के बाद कार्य का प्रारम्भ-ये समृद्धि के मूल हैं।
यहां इसी प्रकार परिवार में पोषणीय अष्ट दल कमल के समान अष्टावधानों पर विचार करना उचित जान पड़ता है।

1. बल- संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ के अनुसार बल का अर्थ है-शारीरिक शक्ति, सैन्य दल, गोंद, देहयष्टि, रक्त, अंकुर, कौआ। परिवार का बल क्या है? शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् अत: परिवारजन का शरीर स्वस्थ होना ही चाहिए, किंतु यह आरोग्य धर्म की साधना के लिए है। परिवार की दृष्टि से संगठित, सामूहिक बल अपेक्षित है। ‘विधायी धर्म का संरक्षण’ करने के लिए समाज की ‘विजय शालिनी संगठित कार्य शाक्ति’ के निर्माण की प्राथमिक कार्यशाला परिवार है। शारीरिक के साथ नैतिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक बल तथा आर्थिक समृद्धि की साधना भी परिवार के लिए आवश्यक है।

परिवार में सबके योग से तुल्य बल बनता है। चाणक्य सूत्र का कथन है, ‘शक्तिहीनो बलवन्तमाश्रयेत्’ अर्थात् परिवार में परस्पर सहकार से शक्तिहीन को बलवान का आश्रय स्वत: मिल जाता है। बल से ही साहस आता है। ‘साहसे लक्ष्मी वसते’ जहां साहस है वहीं श्री का, समृद्धि का, लक्ष्मी का निवास स्वाभाविक है। गीता (7-11) में भगवान ने कहा है, ‘बलम् बलवतां चाहम्’ अर्थात् बलवानों का आसक्ति, कामना रहित बल मैं हूं। अत: बल की साधना ईश्वर की आराधना ही है। किंतु बल की साधना वैयक्तिक है। मेरे लिए कोई दूसरा बल की साधना नहीं कर सकता। साधना समूह में की जा सकती है किंतु ‘महात्मना परेण साहसं न कर्त्तव्यम्’ अर्थात् बड़े बनने वाले दूसरों के बल पर साहस नहीं करते, अपने बल पर कार्य करते हैं। अपना बल सबका बल बने तब क्रमश: परिवार, समाज व राष्ट्र का बल बनता है। इस बल-साधना के लिए योगासन, प्राणायाम, मुद्रा, पारिवारिक खेल, व्यायाम आदि की नियमित परम्परा परिवार में प्रारम्भ करनी चाहिए।

2. शील- शील की साधना और शीलवान बनने की कामना वैदिक ऋषि की परम्परा का अनुवर्तन है-
॥ॐ॥ उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुन:। 
उतागश्चक्क्रुषं देवा देवा जीवमया पुन:।। 
(ऋग्वेद 10-137-1; अथर्ववेद 4-13-1) 
अर्थात् हे देवो! मुझे अच्छे पुण्यमय सच्चरित्र रूप मार्ग पर जाने के लिए ही सावधान करें, प्रेरित करें तथा हे देवो! विषयाषक्ति रूप प्रमाद से मुझे अलग करके समुन्नत बनाएं। हे देवो! पाप अपराध को किए हुए या करते हुए मुझे पुन: उससे बचाएं-रक्षा करें तथा हे देवो! मुझे शोभन, पवित्र, शांतिमय, आनंदमय जीवन से युक्त करें।
शील का शाब्दिक अर्थ है: आचरण, स्वभाव, सौंदर्य। किंतु आचरण या स्वभाव कैसा? यह प्रश्न भारतीय चिंतन परम्परा का मूल आधार है। अत: अपने यहां शील से तात्पर्य है-सदाचरण, दैवी स्वभाव और चारित्रिक सौंदर्य। सुभाषित है-

‘राष्ट्र समाजत: सिध्येत् समाजो व्यक्तिभिस्तथा। 
व्यक्ति: चरित्रत: सिध्येत् चरित्रमुच्चशिक्षया।।’ 
अर्थात् राष्ट्र समाज से, समाज व्यक्ति से, व्यक्ति चरित्र से तथा चरित्र उच्च कोटि की शिक्षा से सिद्ध होता है। उच्च कोटि की शिक्षा से तात्पर्य कुटुम्ब में केवल सैद्धान्तिक शिक्षा से नहीं है, अपितु अनुकरण से आचरणीय शिक्षा के आदर्श उदाहरणों की उपस्थिति से है। गीता (3-21) में इसी ओर संकेत है-

‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: । 
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।’ 
अर्थात् परिवार, समाज, राष्ट्र में श्रेष्ठ लोग जिन प्रमाणभूत बातों का आचरण करते हैं, सामान्यजन उनका अनुसरण करते हैं। अत: परिवार में बड़ों का यह दायित्व है कि उनका आचरण व्यवहार, उनके जीवन-मूल्य परिजनों के लिए प्रेरणा बनें और उनका अनुकरण करने में उन्हें गर्व की अनुभूति हो। नीतिकार का कथन है कि शास्त्र-ज्ञान के अभाव में शिष्टजनों के आचरण का अनुगमन करें-‘शास्त्राभावे शिष्टाचारमनुगच्छेत।’ परिवार के वरिष्ठों, मुखियाओं के मन-वचन-कर्म में एकरूपता होना आवश्यक है। ’ मनष्यैकम्, वचस्यैकम्, कर्मस्यैकम’, यह आप्त वचन है। कहा है-

‘यथा चित्तं तथा वाचो, यथावाचस्तथाक्रिया:। 
चित्ते वाचि क्रियायां च, साधूनामेकरूपता।।’ 
जैसा मन वैसी वाणी, जैसी वाणी वैसी क्रिया। सज्जन लोगों के मन, वाणी और क्रिया में सदैव एकरूपता रहती है। परिवार भी एक लघु साम्राज्य है। चाणक्य सूत्र है, ‘राज्यमूलमिन्द्रियजय:, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना जिस प्रकार साम्राज्य की सुदृढ़ता का आधार है, उसी प्रकार परिवारजन की विषयलोलुपता या स्वार्थ परायणता परिवार को सदोष व निर्बल बना देती है। इन्द्रिय-जय का मूल है विनय-‘इन्द्रियजयस्यमूलं विनय:’ और विनय प्राप्त होती है परिवार में आयु वृद्ध एवं ज्ञान वृद्ध परिजनों के सानिध्य-संवाद-श्रद्धा अनुकरण से विनयस्यमूलं वृद्धोपसेवा।’ अत: कहा है कि सबका भूषण विनय है-‘सर्वस्य भूषणं विनय:।’ गीता (17-15) में उद्वेग न करने वाली वाणी; प्रिय, हितकारक एवं यथार्थ भाषण तथा स्वाध्यायपूर्वक वाणी-संयम को वाणी का तप कहा है-

‘अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रिय हितं च यत्। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्गयं तप उच्चते।।’ शीलवान होना एक तपस्या है। इच्छित की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला पराकाष्ठा का एकनिष्ठ प्रयत्न तप कहलाता है। नीतिकारों ने जितेन्द्र्रियता को तपस्या का सार कहा है-‘तप: सार इन्द्र्रिय निग्रह।’ इन्द्रिय-निग्रह व्यसनान्मुख होने से रोकता है। व्यसनहीन सात्विक जीवन शील अर्थात् सद्गुणों के आदान की भावभूमि तैयार करता है। अत: कहा है, ‘न व्यसनपरस्य कार्याव्याप्ति:’, व्यसन में आसक्ति से कार्य सफल नहीं हो पाते। इन्द्रियों के इच्छित पर चलने वाला शक्तिशाली व्यक्ति या परिवार भी नष्ट हो जाता है-‘इन्द्रियवशवर्ती चतुरंगवानपि विनश्यति।’ 

मनुष्य की वृद्धि और विनाश अपने व्यवहार पर निर्भर करता है-‘आत्मायत्तौ वृद्धि विनाशों’, अत: परिवार में वाणी का संयम बहुत आवश्यक है। कर्कश, कठोर वाणी अग्नि दाह से भी अधिक दाहक होती है ‘अग्निदाहादपि विशिष्टं वाक्पारुष्यम्’। कहा भी है-‘मीठा-मीठा बोल, तोल-तोल बोल।’ पारिवारिक विघटन का बड़ा कारण कटु वचन या व्यंग्यपूर्ण वाणी होती है। यह एक दोष बहुत से गुणों के होते हुए भी घातक होता है-‘बहूनपि गुणानेको दोषे ग्रसति’- व्यक्ति का एक भी दोष बहुत से गुणों को दोष बना डालता है। सूत्रकार का कथन है कि वृद्धि या विनाश वाणी के अधीन है-‘जिह्वायत्तौ वृद्धिविनाशौं’, और प्रियवादी का कोई शत्रु नहीं होता-‘प्रियवादिनो न शत्रु:।’

मनुष्य अपनी सुशीलता, सज्जनता और चरित्र का कदापि त्याग न करे। ‘कदाचिदपि चरित्रं न लंघयेत’। परिजनों, विशेषकर अभिभावकों को अपना समस्त प्रयत्न करके अपने चरित्र की रक्षा करना अभिप्रेत है-‘सर्वदा सर्वयत्रेन चरित्रमनुपालयेत्’ क्योंकि ‘शीलेन सर्वं जगत’, शील से परिवार तो क्या, समस्त संसार को वश में किया जा सकता है। किंतु इसके लिए अपने शील पर दृढ़ता कितनी चाहिए? सूत्रकार कहते हैं कि जिस प्रकार सिंह भूख से व्याकुल होने पर भी घास नहीं खाता, वैसे ही चरित्रवान संकट में भी अपने मूल्यों से विचलित नहीं होता। ‘क्षुधार्तो न तृणं चरति सिंह।’ अत: हमें अपने आर्य (श्रेष्ठ) स्वभाव को प्रत्येक परिस्थिति में बनाए रखना चाहिए-‘आर्यवृत्तमनुतिष्ठेत।’ इसके लिए अपनी श्रेष्ठ कुल-परम्परा का गौरव स्मरण-चर्चा-अनुसरण करना चाहिए- ‘कुलानुरूपम् वृत्तम’, क्योंकि कहावत है कि जैसा कुल वैसा आचार-‘यथाकुलम तथाऽऽ चारू:।’

परिवार में ईर्ष्या या विघटन का एक कारण श्रेय लेने की उत्कट इच्छा या आत्म-श्लाघा/आत्म-प्रशंसा होता है, अत: इससे बचना चाहिए-‘आत्मा न स्तोतव्य:।’ कुटुम्ब में दूसरे हमारी प्रशंसा करें, यह इच्छा भी सुशीलता का लक्षण नहीं है, किंतु किसी भी परिजन के अच्छे कार्य का उल्लेख तथा प्रशंसा करना प्रोत्साहन के लिए आवश्यक है। जैसे भारत की ऋषि परम्परा ने शील के उच्चतम आदर्श स्थापित किए जिन पर गर्व करते हुए मनु महाराज विश्व का आह्वान करते हैं कि आर्य-चरित्र कैसा होता है, इसकी शिक्षा लेनी है तो भारत में स्वागत है। यह आत्म-श्लाघा नहीं है, यह अत्यन्त साहस का कार्य है, क्योंकि ऐसी घोषणा के लिए ‘मेरी चरित्र-चादर पर एक भी दाग नहीं है’, कबीर के ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ जितना आत्मविश्वास चाहिए-

‘एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:। 
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवा:।।  (मनुस्मृति 2-20) 
अर्थात् इस देश के ऋषि प्रज्ञा प्राप्त आप्त पुरुषों के सान्निध्य से पृथ्वी पर रहने वाले सब मनुष्य अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें। मनु स्मृति (2-159) का ही उपदेश है कि (कुटुम्ब/समाज में) वैर-बुद्धि का परित्याग कर सब मनुष्यों के कल्याण के मार्ग का उपदेश करें और उपदेष्टा मधुर, सुशील युक्त वाणी बोलें, जो धर्म की उन्नति चाहे वह सदा सत्य मार्ग पर चले और सत्य का ही उपदेश करे-

अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम्। 
वाक्चैव मधुराश्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता।। 
कार्य की सिद्धि के लिए शौच-सदाचार आदि का पालन एक प्रकार का अंकुश बताया गया है। फलों से लदी हुई वृक्ष की शाखा को जैसे अंकुश से अपनी ओर झुकाकर उसके पके फल तोड़े जाते हैं उसी प्रकार शील कार्य सिद्धि में सहायक होता है-

अंकुशं शौचमित्याहुरथार्नामुपधारणे। 
आनाम्य फलितां शाखां पक्कं प्रशातयेत्।। 
कुटुम्ब में शील-सम्पन्नता के लिए प्रारम्भ कहां से करें? सहजता से सदाचरण के एक-एक संकल्प से प्रारम्भ कर सकते हैं। नागरिक कर्त्तव्यों में परिवार और बाहर दोनों प्रकार का व्यवहार आता है। इस पर सहज चर्चा की जा सकती है। ‘क्या करना’ की अपेक्षा ‘क्यों करना’ स्वीकार हो जाता है तो आचरण स्वस्फूर्त तथा सुगम हो जाता है।

परिवार में सबके विचारों के समन्वय से किए जाने वाले कार्य सदा सुखकारी होते हैं

3. ओज- ओजस के संस्कृत वाड्मय में प्रयोग ‘प्राण-बल, सामर्थ्य, शक्ति, दीप्ति, उत्पादन-शक्ति, धात्विक आभा’ आदि अर्थों में हुए हैं। ओज धातु का अर्थ योग्य या बलवान होना है। ओज का सामान्य अर्थ साधना व चारित्रिक बल के कारण निर्मित व्यक्तित्व, उसका आभा मण्डल है। कुटुम्ब का भी अपना ओज/तेज होता है। यह तेज कुल-परम्परा से सत्कर्मों के परिणामस्वरूप समाज में निर्मित प्रतिष्ठा का परिणाम होता है। प्रत्येक आने वाली पीढ़ी जब अपने कर्त्तव्य से इस प्रतिष्ठा में सकारात्मक योग करती है तो यह प्रतिष्ठा उसके ओज में वृद्धि करती है। यदि कुटुम्ब के सदस्य अपनी कुल-परम्परा के विपरीत आचरण करते हैं तो इससे समाज में होने वाली नकारात्मक प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप तेज क्षीण होता है और प्रतिष्ठा धूमिल होती है। भर्तृहरि (नीति शतक-35) का कथन है कि इस परिवर्तनशील संसार में कौन नहीं मरता? अर्थात् जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। वास्तव में उसी का जन्म लेना सार्थक है जो अपने कुल को गौरवान्वित करता है, अपने वंश की समुन्नति करने में सहायक होता है-

‘परिवर्तिनि संसारे मृत: को वा न जायते।
स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्नतिम।।’
काव्य-शास्त्र में तेज, प्रताप या दीप्ति; जिससे वीरता, उल्लास जैसी भावनाएं जाग्रत हों, ओजपूर्ण या ओजस्वी कविता कहलाती है। परिवार में स्वाध्याय तथा श्रव्य दृश्य सामग्री में ओजपूर्ण काव्य, कथा के समावेश से परिजनों में ओज भाव का प्रादुर्भाव होता है।

आयुर्वेद में सप्त धातुओं के सार को ओज कहते हैं। आयुर्वेद में ओज को प्राण और जीवन का आधार माना गया है। हमारे शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता ओज से मिलती है। हमारा पूरा व्यक्तित्व ओज पर निर्भर होता है। सप्त धातु के संतुलन का सूत्र, जिसका पालन परिवार में किया जाना चाहिए, इस प्रकार है-‘ऋत भुक, हित भुक, मित भुक।’ अर्थात् ऋतु के अनुसार, ऋतु के अनुसार भी अपनी वात-पित-कफ प्रकृति के अनुसार हितकारक तथा जो हितकारक है उसका भी अति भोज नहीं करना, आयुर्वेद की दृष्टि से आदर्श सात्विक आहार-शास्त्र है जो ओज वृद्धि का आधार है।

ओज-गुण की दृष्टि से हमारे विचारों में जितनी अधिक सात्विकता, पवित्रता, सकारात्मकता होगी, उतने ही हम अधिक ओजस्वी, तेजस्वी होंगे। इसके अतिरिक्त प्राणायाम, ध्यान, साधना और उपासना भी ओजपूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

4. धृति- इसके शाब्दिक अर्थ हैं- धैर्य, धारण करना, ग्रहण, पकड़ना, ठहराव, स्थैर्य, तुष्टि, प्रीति तथा मन की धारणा (सात्विक, राजसिक, तामसिक)। महाभारत के आदि पर्व में धृति की परिभाषा दी गई है कि अपनी इच्छा के अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थों की प्राप्ति होने पर चित्त में विकार न होना ही धृति है। ‘इष्टानिष्टार्थसम्पतौ चित्तस्याविकृतिधृति:’। हमारे साहित्य में धैर्य के सम्बन्ध में पर्याप्त चिंतन मिलता है। चाणक्य सूत्र का कथन है- ‘नास्प्यधृतेरैहिकामुष्मिकम्’, अर्थात् अधीरता से वर्तमान और भविष्य दु:खमय हो जाता है तथा फल अप्राप्त हो जाता है। सफलता के लिए धैर्य अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि असफलता का अर्थ है सफलता के मार्ग का संधान बाकी है। दोहाकार ने इसे एक उदाहरण से समझाया है-‘धीरे-धीरे रे मना, धीरज सब कुछ होय। माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।’ अर्थात हे मन! धैर्य रख। धैर्य से ही सफलता मिलती है। माली द्वारा किसी वृक्ष को एक साथ सौ घड़े पानी देने से तुरंत फल नहीं मिलेंगे, ऋतु आने पर ही वृक्ष पुष्प-फल देगा।
(क्रमश:) 

 

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