नागपुर में जब डॉ. हेडगेवार का जन्म हुआ, तब देश में अंग्रेजों का शासन था। नागपुर उस समय एक ऐसा केंद्र था, जहां देश की मुक्ति के लिए स्वतंत्रता संग्राम की कई प्रकार की धाराओं के लोग उपलब्ध थे। उन सबके कारण जो वातावरण बना था, उस वातावरण में डॉक्टर साहब का जन्म हुआ। इसलिए डॉक्टर जी जन्मजात देशभक्त थे। इसलिए उनकी वाणी में देशभक्ति धधकती थी। उनकी देशभक्ति किसी प्रतिक्रिया के कारण नहीं थी। उनकी देशभक्ति ऐसी थी कि इस राष्ट्र में हमने जन्म लिया है, इसलिए यह हमारा ऋ ण है, हमारा कर्तव्य है। उनके संपर्क में आने वाले भी देशभक्ति की उस स्फूर्ति और प्रेरणा को लेकर ही जाते थे। ऐसे कई उदाहरण हैं।

सरकार्यवाह, रा.स्व.संघ
डॉक्टर जी ने जो संगठन आरंभ किया, वह आज विश्व में अध्ययन का विषय बना हुआ है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में हर साल अनेक पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। जो लोग संघ पर अध्ययन कर रहे हैं, वे संघ के स्वयंसेवक नहीं हैं। उनमें से अधिकतर लोग संघ से बाहर के हैं। हालांकि, संघ किसी को बाहरी नहीं मानता। यहां बाहरी से मेरा आशय ऐसे लोगों से है, जिन्होंने संघ के साथ काम नहीं किया है। ये ऐसे लोग हैं, जिन्होंने संघ को समझने का प्रयास किया है। भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में रहने वाले लोग भी संघ पर पुस्तकें लिख रहे हैं। संघ कार्य के संदर्भ में, संघ विचार के बारे में, संघ समाज में क्या बदलाव लाया है, ऐसे बहुत सारे विषयों पर अनेक लोगों ने पुस्तकें लिखी हैं। पिछले एक दशक में एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
देश, स्वतंत्र होने से 7 साल पहले 1940 में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार का स्वर्गवास हो गया था। लेकिन आज इतने वर्ष बाद भी उनके बारे में अध्ययन किया जाता है! उन्होंने ऐसा क्या किया, जिसके कारण ‘राष्ट्र सर्वोपरि’, ‘देश के लिए जीवन का हर क्षण देना चाहिए’ कहने वाले लोग हर पीढ़ी में जन्म ले रहे हैं और संघ-स्थान पर तैयार हो रहे हैं। ऐसा कौन-सा मंत्र, कौन-सा तंत्र डॉ. हेडगेवार ने दिया? यह अध्ययन का विषय बना हुआ है। इसलिए लोग संघ ही नहीं, संघ निर्माता पर भी अध्ययन कर रहे हैं।
श्रेय नहीं लिया कभी
डॉ. हेडगेवार कहते थे कि ‘मैं संघ संस्थापक नहीं हूं, क्योंकि मैं कोई नया काम नहीं कर रहा हूं।’ उन्होंने कभी नहीं कहा कि उन्होंने संघ आरंभ किया है। जिस दिन अपने घर के ऊपर के कमरे में 16 लोगों के साथ संघ आरंभ किया, उस दिन उन्होंने कहा था कि हम लोग संघ कार्य आरंभ करेंगे। उस दिन संघ का नाम भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं रखा गया। छह महीने बाद सभी सहयोगियों को साथ बैठाकर उन्होंने उनसे पूछा कि अपने कार्य का नाम क्या रखा जाए? लोकतांत्रिक तरीके से यह तय हुआ कि इसका नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ होगा। फिर चार महीने बाद उन्होंने सभी को बताया कि संघ का उद्देश्य क्या होना चाहिए, यह आप सब लिखकर लाइए। फिर इस पर चर्चा की कि संघ का गुरु कौन होना चाहिए। उन्होंने कभी स्वयं को गुरु नहीं माना। किसी व्यक्ति को गुरु नहीं माना। उन्होंने कहा- ‘भगवा ध्वज गुरु है।’ वे विशिष्ट प्रकार की सोच के व्यक्ति थे। उन्होंने यह नहीं कहा कि मैं कोई नया कार्य आरंभ कर रहा हूं। उन्होंने कहा, ‘‘भारत में यहां की प्राचीन संस्कृति-परंपरा के आधार पर युगानुकूल संदर्भ में समाज को संगठित करने का प्रयत्न हर युग में होता रहा है। उसी कार्य को मैं इस संदर्भ में प्रस्तुत करना चाहता हूं। मैं कोई नया कार्य आरंभ नहीं कर रहा हूं।’’ उन्होंने किसी नए संगठन के निर्माण का श्रेय नहीं लिया। बस यही कहा कि यह समाज का काम है, समाज के लोग करेंगे।
जब कार्यकर्ताओं ने सरसंघचालक घोषित करके उन्हें पहली बार प्रणाम दिया, तब सितंबर 1933 में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, ‘‘इस संघ का जन्मदाता अथवा संस्थापक मैं न होकर आप सब हैं। इसका मुझे पूरी तरह ज्ञान है। आपके द्वारा उत्पन्न संघ का आपकी इच्छा एवं आज्ञा से मैं धात्री का काम कर रहा हूं। इसके आगे भी आपकी इच्छा और आज्ञा होगी, तब तक यह काम मैं करता रहूंगा तथा यह काम करते हुए कितने भी संकट आएं और मान-अपमान सहन करने की बारी आई तो भी मैं अपना कदम पीछे नहीं हटाऊंगा। परंतु मेरे इस काम के लिए अयोग्य होने के कारण मुझसे संघ का नुकसान होता हो, ऐसा यदि आपको लगे तो दूसरा योग्य व्यक्ति इस स्थान के लिए ढूंढ निकालिए। मैं उनकी आज्ञानुसार काम करता रहूंगा।’’
संगठन शास्त्र के ज्ञाता
डॉ. हेडगेवार ने कभी यह नहीं सोचा कि यह मेरा ‘आर्गनाइजेशन‘ है, इसे मैं चलाऊंगा। उन्होंने न कभी ऐसा सोचा और न ऐसा व्यवहार किया। उन्होंने सामूहिकता और टीम वर्क को हर प्रकार से पोषित किया। डॉक्टर जी का व्यक्तित्व आत्मविलोपी तो है ही, वे संगठन शास्त्र के ज्ञाता भी थे। समाज को संगठित अवस्था में दिखना चाहिए, इसलिए संगठन की आवश्यकता है। चूंकि संगठन व्यक्तियों से बनता है, इसलिए व्यक्ति निर्माण की आवश्यकता है। व्यक्ति निर्माण और संगठन कार्य, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। समाज में व्यक्ति कैसे चाहिए? सभी कहेंगे कि देशभक्त चाहिए, ईमानदार-प्रामाणिक चाहिए, सेवाभावी चाहिए। ठीक है, ये सब कहां तैयार होंगे? यह अपने घर के संस्कारों से, विद्यालयों की शिक्षा से, समाज के वातावरण से, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक नेतृत्व से होना चाहिए। लेकिन हुआ क्या? स्वतंत्रता आंदोलन में ही लोग एक-दूसरे की टांग खींचने वाले क्यों बने? क्रांतिकारियों में ऐसे लोग भी हुए, जिन्होंने दूसरे के बारे में पुलिस को बताकर उसे जेल भिजवाया और खुद को बचाया। ऐसा हुआ है, इतिहास में है।
“मैं देश के लिए सर्वस्व समर्पित कर दूं, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। तेरा वैभव अमर रहे मां, हम दिन चार रहें, न रहें।” इस भाव को जीवन में चरितार्थ करने वाले लोगों को तैयार किए बिना एक समाज अपने वैभव को प्राप्त नहीं कर सकता। इस विचार से डॉ. हेडगेवार जी ने क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेकर, कांग्रेस का विदर्भ प्रांत सह सचिव बनकर, स्वतंत्रता आंदोलन का सब प्रकार का अनुभव लेने के पश्चात इस मूल कार्य की आवश्यकता को समझा और उसका विचार रखा। जिसके लिए उन्होंने शेष जीवन समर्पित कर दिया, उसका परिणाम आज हम सबके सामने है। वे ऐसे संवेदनशील, साहसी, धीरज रखने वाले व्यक्ति थे। संगठन शास्त्र का एक-एक बिंदु कैसा होना चाहिए, मनुष्य की ‘साइकोलॉजी’ को व्यक्तिगत और सामूहिक दृष्टि से उन्होंने समझा। इन पर बहुत अध्ययन हो चुके हैं। लीडरशिप क्वालिटी को कैसे विकसित करना चाहिए, टीम वर्क को कैसे विकसित करना चाहिए, इसके बारे में डॉ. हेडगेवार जी ने जो किया, वह आज प्रबंधन के विद्यार्थियों के लिए अध्ययन का विषय बना हुआ है। ऐसी पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं।
समाज के पुरुषार्थ को जगाने वाले संगठन शिल्पी डॉ. हेडगेवार न केवल संगठन शास्त्र के ज्ञाता थे, बल्कि संगठन के निर्माता भी थे। विचार की दृष्टि से वे प्रखर राष्ट्रभक्त थे। देश के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे। देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने 1921 और 1931 में दो बार जेल यात्रा की। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के हर आयाम में कार्य किया। समाज के आत्मविश्वास और पुरुषार्थ को जगाए बिना राष्ट्र वैभव संपन्न नहीं हो सकता। कालक्रम में समाज के अंदर अवनति आ गई। अपने समाज में तीन प्रकार के दोष हैं। पहला, हम आत्माभिमान शून्य हो गए। दूसरा, हम अपने स्वार्थ को त्यागने में असमर्थ रहे और आत्मकेंद्रित हो गए। मैं पहले, देश बाद में। तीसरा, संगठित शक्ति का अभाव।
चार लोग एकत्र आएंगे तो हमारे अलगाव क्या-क्या हैं, कैसे हम भिन्न हैं, इसकी चर्चा ज्यादा होती है। हम कैसे समान हैं, यह चर्चा कम होती है। डॉक्टर जी ने इन तीनों दोषों को पहचाना और उनके आधार पर समाज के लिए कार्य आरंभ किया। संस्कृत में ‘केशवाष्टकम्’ नाम से डॉ. हेडगेवार जी पर एक रचना हुई है, उसमें कहा गया है-
यो ‘डॉक्टरेति’ भिषजां पदमादधानो
विज्ञातवान् भरतभूमिरुजां निदानं।
संघौषधं समुदपादि नवं च येन
तं केशवं मुहुरहं मनसा स्मरामि।।
वे एक डॉक्टर थे। उन्होंने डॉक्टरी की पढ़ाई की थी। डाक्टरी तो नहीं की, लेकिन उस डॉक्टर ने भारत भूमि, इस मिट्टी के जो रोग हैं, उनको पहचान कर औषध तैयार किया। ‘संघौषधं’ दिया तथा वह रोग दूर होने की स्थिति आ गई, ऐसा इसमें कहा गया है। उन्होंने विचार और सामाजिक सुधार की दृष्टि से बहुत सारे कार्य किए। बाल विवाह रोकने के लिए स्वयं आगे खड़े रहे। गोरक्षा के लिए गए। संघ ने पहले दिन से जाति, अस्पृश्यता के बारे में कभी सोचा तक नहीं। इतना ही नहीं, डॉ. हेडगेवार जी ने सामाजिक समरसता के लिए डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के साथ पुणे में चर्चा-संवाद किया। बाद में बाबासाहेब संघ के कार्यक्रम में आए। सालुके जी ने उस बातचीत को अपनी डायरी में लिखा है। उस पर पुस्तक भी छपी है।
प्रखर स्वतंत्रता सेनानी
स्वतंत्रता के बारे में डॉ. हेडगेवार जी स्पष्ट थे। 1920 में नागपुर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। डॉ. हेडगेवार उस अधिवेशन की व्यवस्था में थे, स्वागत समिति में थे। उस समय उनकी आयु 30-31 वर्ष थी। नेशनलिस्ट यूनियन नाम से एक मंच बना था। उसकी एक सभा हुई। उन्होंने कांग्रेस अधिवेशन के लिए दो प्रस्ताव नागपुर की स्वागत समिति की ओर से रखे। पहला प्रस्ताव था—कांग्रेस पूर्ण स्वराज्य की घोषणा करे। उन्होंने ‘विशुद्ध स्वातंत्र्य’ शब्द प्रयोग किया। यानी अंग्रेजों को यहां से जाना चाहिए, अपना देश हम संभालेंगे। यह तब तक कांग्रेस के प्रस्ताव में नहीं था। इसलिए उन्होंने यह विचार रखा। दूसरा प्रस्ताव उन्होंने रखा—कांग्रेस को भारत में प्रजातंत्र की स्थापना करके विश्व के देशों को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त कराना चाहिए। यानी उनकी दृष्टि वैश्विक थी। उन्होंने कहा कि भारत की स्वतंत्रता सिर्फ भारत के लोगों की मुक्ति नहीं है, बल्कि उससे भी अधिक है। हमें विश्व के उन देशों को भी मुक्त कराना है जो औपनिवेशिक पूंजीवादी ताकतों के कारण कष्ट भोग रहे हैं। बाद में जब कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में रावी के तट पर नेहरू जी ने पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा तो डॉ. हेडगेवार ने पूरे देश में पत्रक भेजा कि 26 जनवरी (1930) को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सभी शाखाओं में स्वतंत्रता दिवस आनंद से मनाना चाहिए, भाषण होना चाहिए और कांग्रेस के अभिनंदन का प्रस्ताव पारित होना चाहिए। संघ की शाखाओं में ऐसे कार्यक्रम हुए भी। ऐसे थे डॉ. हेडगेवार।
सरल एवं सुस्पष्ट संदेश
डॉ. हेडगेवार जी ने रा.स्व .संघ के कार्य की नींव हिंदू समाज की मनोवैज्ञानिक स्थिति को ध्याकन में रखते हुए बड़े ढंग से रखी। यह संगठन ‘व्य क्तिवादी’ न बने, इसलिए एक कुशल संघटक के नाते अथक परिश्रम किया और एक नया उदाहरण सभी सार्वजनिक कार्यकर्ताओं के सम्मुरख प्रस्तुसत किया। उनकी कार्यशैली की खूबी यह भी रही कि बहुत सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग करके वे संघ की विचारधारा को प्रस्तुकत करते थे, जिससे छोटा बालक भी उसे हृदयंगम करने में आसानी का अनुभव करता था और बड़े-बड़े विद्वान भद्र पुरुष भी उसके निहितार्थ की गहराई में जाकर उसे समझ लेने में समर्थ होते थे।
“ डॉक्टर जी ने देश के लिए मर-मिटने का संदेश अथवा आदेश स्वायंसेवकों को न देते हुए सभी के सम्मुरख आदर्श प्रस्तुित कर सभी को शिक्षा दी कि देश के लिए जीना सीखो। जीवन में हर क्षण और हर कण समर्पित भावना से उपयोग में लाने की श्रेष्ठष आदत डालो।’’-श्रीगुरुजी
तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें
“डॉक्टर जी पर अंग्रेजी में प्रकाशित दो पुस्तकों का विशेष रूप से उल्लेख करूंगा। एक है माननीय एच.वी. शेषाद्रि द्वारा लिखित ‘डॉ हेडगेवार: द इपोक मेकर।’ हालांकि, यह डॉक्टर साहब की पूर्ण जीवनी नहीं थी। फिर भी एक दृष्टि से अंग्रेजी में यह अधिकृत ग्रंथ के नाते उपलब्ध है। दूसरी पुस्तक है डॉ. राकेश सिन्हा द्वारा लिखित ‘आधुनिक भारत के निर्माता : डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार’। इस पुस्तक में कुछ ऐसी जानकारी है, जो संभवत: ना.हा. पालकर को उस समय किसी कारणवश उपलब्ध नहीं हो पाई होगी। ना.हा. पालकर ने डॉक्टर जी के बारे में काफी शोध करके, उनके साथ कार्य करने वाले लोगों से मिलकर, उनके पत्रों के आधार पर तथा उस समय के समाचार-पत्रों से मिले तथ्यों के आधार पर ‘डॉ. हेडगेवार चरित’ शीर्षक से एक अधिकृत जीवनी मराठी में प्रकाशित की। विगत दशकों में भारत की प्राय: हर भाषा में उसका अनुवाद हुआ है। अंग्रेजी में कुछ लोगों ने एक-दो बार प्रयत्न किए, परंतु किसी न किसी कारण से वह कार्य पूर्ण नहीं हो पाया। अनिल नैने जी के प्रयास से यह पुस्तक ‘मैन ऑॅफ द मिलेनिया : डॉ. हेडगेवार’ अंग्रेजी में सबके समक्ष आई है। यह पुस्तक अंग्रेजी और हिंदी, दोनों भाषाओं में है। इसलिए ऐसा मानना चाहिए कि ना.हा. पालकर जी की पुस्तक, मा. शेषाद्रि जी की पुस्तक और राकेश सिन्हा की पुस्तक, इन तीनों को मिलाकर डॉ. हेडगेवार की जीवनी पूर्ण हो जाती है। ये तीनों पुस्तकें आप जरूर पढ़िए।
जीवन का संदेश
डॉ. हेडगेवार जी के जीवन के कई आयाम हैं। उनके जीवन का संदेश क्या है? ‘मैन ऑफ द मिलेनिया : डॉ. हेडगेवार’ पुस्तक के मूल संस्करण, जो मराठी में है, की प्र्स्तावना में श्रीगुरुजी लिखते हैं, ‘‘परम पूजनीय डॉ. हेडगेवार के कष्टपूर्ण, परिश्रमी एवं कर्मठ जीवन से सर्वसाधारण व्यक्ति को एक आशा का ही संदेश मिलता है। दरिद्रता, प्रसिद्धि विहीनता, बड़ों की उदासीनता, परिस्थिति की प्रतिकूलता, पग-पग पर बाधाएं, विरोध, उपेक्षा, उपहास आदि के कटु अनुभव के साथ-साथ स्वीकृत कार्य की पूर्ति के लिए आवश्यक साधनों का अत्यंत अभाव आदि कितनी भी कठिनाइयां मार्ग में आएं तो भी अपने कार्य से कार्य के साथ तन्मय होकर मुक्तसङ्गोऽनहंवादी वृत्ति से सुख-दुख, मान-अपमान, यश-अपयश आदि किसी की भी चिंता न करते हुए यदि कोई प्रयत्नशील रहेगा, तो उसे अवश्य सफलता मिलेगी। डॉ. हेडगेवार जी के जीवन का यही संदेश है।’’ रास्ते में बाधाएं आएंगी, लेकिन आपका रास्ता सत्य का है। अपने हृदय के अंदर हमने संकल्प लिया है कि इस मार्ग पर मैं जाऊंगा, लक्ष्य प्राप्त करूंगा और किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करूंगा। जीवन को स्वच्छ, चरित्रवान, शुद्ध रखूंगा। जो ऐसे आगे बढ़ेगा, उसको आज नहीं तो कल सफलता मिलनी ही चाहिए। यही डॉक्टर जी के जीवन का संदेश है।
माननीय दतोपंत ठेंगड़ी 12 साल राज्यसभा सदस्य रहे। वे श्रमिक क्षेत्र के बड़े नेता थे। बहुत सारे लोगों से उनका संपर्क रहता था। बालकृष्ण जी कम्युनिस्ट नेता थे। डॉक्टर जी की जन्म शताब्दी के समय 1989 में देशभर में स्वयंसेवकों ने डॉक्टर जी के चित्र लगाए तो लोगों ने पूछा ये कौन है? उन्हें बताया गया कि ये आरएसएस के संस्थापक हैं। लोगों को मालूम नहीं था, क्योंकि उस समय इंटरनेट जैसे संचार माध्यम नहीं थे। इसलिए लोगों को मालूम नहीं था कि ये आदमी कौन है। कभी चित्र देखा नहीं था। उस समय संसद परिसर में तीन-चार लोग बैठकर चर्चा कर रहे थे। ठेंगड़ी जी सुन रहे थे। कम्युनिस्ट नेता बालकृष्ण जी भी राज्यसभा में थे। एक व्यक्ति ने बातचीत में कहा कि जिनकी शताब्दी मना रहे हैं, उन्हें जानता कौन है? ठेंगड़ी जी ने कुछ नहीं कहा, पर बालकृष्ण जी ने कहा- नहीं, आप ऐसा नहीं कह सकते। आदमी आज प्रसिद्ध होते हैं, दिखते हैं, बड़े हैं, ऐसा हमको लगता है, लेकिन ऐसा है नहीं। किसी व्यक्ति की महानता इस बात से निर्धारित होती है कि उसकी छाया भविष्य पर कितने समय तक दिखाई देगी। डॉक्टर जी का जीवन कार्य, संदेश और विचार इतिहास में दूर तक मिलता है। इसलिए डॉ. हेडगेवार को ‘मैन ऑफ द मिलेनिया’ कह सकते हैं।
हम संघ के लोग इतने शुष्क हैं कि हम धन्यवाद भी नहीं देते। हम कई बार कहते भी हैं कि संघ को दूर से समझने का प्रयत्न मत करिए। संघ में आइए, संघ के लोगों को नजदीक से देखिए। आपको ठीक लगे तो काम करते रहिए, ठीक नहीं लगे तो चले जाइए। संघ को समझने के लिए दिमाग के साथ दिल भी चाहिए, क्योंकि संघ उस प्रकार के व्यक्ति के कारण बना है।
(1 मार्च, 2024 को सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘मैन ऑफ द मिलेनिया :
डॉ. हेडगेवार’ के विमोचन के अवसर पर दिए गए उद्बोधन का संपादित अंश)
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