जिस प्रकार दिन-रात के 24 घंटों में ईश्वर की उपासना के लिए प्रात:काल की ब्रह्मबेला और संध्याकाल की गोधूलि बेला को सनातन हिन्दू संस्कृति के वैदिक मनीषियों ने सर्वोत्तम बताया है, ठीक उसी प्रकार सर्वाधिक फलदायी वार्षिक साधनाकाल के रूप में नवरात्रों की संकल्पना की गयी है। ऋतुओं के संधिकाल में पड़ने वाले चैत्र व आश्विन के महीने हमारी दो मुख्य फसलों रबी व खरीफ के उत्पादन के होते हैं। नयी कृषि उपज के हवन के द्वारा मां शक्ति की साधना-आराधना का विधान हमारे तत्वदर्शी मनीषियों की अनुपम जीवन दृष्टि का परिचायक है। हमारे ऋषियों ने नवरात्र की अमृत बेला को प्राणों का उत्सव माना है।
नवरात्र के दिव्य साधनाकाल की महत्ता की व्याख्या करते हुए गायत्री महाविद्या के महामनीषी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ‘’ गायत्री महाविज्ञान’’ में लिखते हैं, ‘’हमारे वैदिक मनीषी मानवी चेतना के मर्मज्ञ ही नहीं; दैहिक और पर्यावरणीय विज्ञान के भी पारंगत विद्वान थे। उन्होंने अपने सुदीर्घ साधनापरक शोधों के आधार पर यह तथ्य प्रतिपादित किया था कि जिस तरह यह सम्पूर्ण विश्व ब्रह्मांड सत-रज और तम इन तीन मौलिक गुणों से बना है; ठीक उसी तरह हमारी मानव देह भी इन तीनों मौलिक गुणों का सम्मिश्रण होती है। नवरात्र काल की नौ दिवसीय साधना मानवी काया में मौजूद इन तीनों गुणों में संतुलन साधकर साधक को एक अलौकिक आनंद की अनुभूति कराती है।
ऋतुओं के संधिकाल की इस विशिष्ट बेला में सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह मानवीय चेतना को गहराई से प्रभावित करते हैं। इसीलिए नवरात्र के नौ दिनों में आन्तरिक दृढ़ता के साथ संकल्पपूर्वक की गयी मां शक्ति की छोटी सी भावपूर्ण उपासना से चमत्कारी नतीजे हासिल किये जा सकते हैं। जैसे कोई शिशु अपनी मां के गर्भ में नौ महीने रहकर एक पूर्ण जीव के रूप में दुनिया में जन्म लेता है। वैसे ही नवरात्र काल की नौ दिवसीय साधना साधक को नवजीवन देती है। प्रार्थना, उपवास, ध्यान और मौन के माध्यम से नवरात्र का पर्व जिज्ञासु को अपने सच्चे स्रोत की ओर यात्रा करता है। प्रार्थना से मन निर्मल होता है, ध्यान के द्वारा अस्तित्व की गहराइयों में डूबकर आत्म साक्षात्कार होता है, उपवास के द्वारा शरीर विषाक्त पदार्थ से मुक्त होकर स्वस्थ हो जाता है तथा मौन के द्वारा हमारे वचनों में शुद्धता आती है।‘’
माँ दुर्गा के नौ स्वरूपों का दिव्य तत्व दर्शन
माँ दुर्गा के नौ स्वरूपों और हर नाम में छिपी दैवीय शक्ति को पहचानना ही नवरात्र उत्सव का मूल उत्स है। माँ दुर्गा के नौ स्वरूपों की युगानुकूल व्याख्या करते हुए आचार्यश्री लिखते हैं कि शास्त्रों में शैलपुत्री का हिमराज हिमालय की पुत्री के रूप उल्लेख है किन्तु इसका वास्तविक अर्थ है-चेतना की सर्वोच्चतम अवस्था। जब हम किसी भी अनुभव या भावना के शिखर तक पहुंचते हैं तो दिव्य चेतना के उद्भव का अनुभव करते हैं। यही है शैलपुत्री का वास्तविक अर्थ।
मां दुर्गा के दूसरे स्वरूप ब्रह्मचारिणी का अर्थ है एक ऐसी ऊर्जा जो अनन्त में विद्यमान होकर भी सतत गतिमान रहती है। ब्रह्म अर्थात वह जो सर्वव्यापक व सर्वज्ञ हो, जिसका न कोई आदि हो न अंत। ब्रह्म के इसी स्वरूप में सतत करने वाली शक्ति का नाम है ब्रह्मचारिणी। समझना होगा कि वासना हमेशा सीमित बंटी हुई होती है जबकि ब्रह्मचर्य सर्व-व्यापक चेतना है।
देवी मां के तृतीय ईश्वरीय स्वरूप चन्द्रघण्टा साधक की मानसिक सुदृढ़ता की कारक शक्ति है। चन्द्रमा हमारे मन का प्रतीक है। सामान्य तौर पर मन चंचल व चलायमान होता है। प्राय: हम अपने मन से ही उलझते रहते हैं और नकारात्मक विचारों से छुटकारा पाने और अपने मन को साफ करने के लिये सतत संघर्ष करते रहते हैं। समझना होगा कि हम कहीं भी चले जाएं, चाहे हिमालय पर ही क्यों न भाग जाएं; हमारा मन हमारे साथ ही भागेगा। कारण कि यह हमारी छाया के समान है। अतः इन विचारों से पीछा छुड़ाने के संघर्ष में न फंसें। “चंद्र” हमारी बदलती हुई भावनाओं का प्रतीक है (ठीक वैसे ही जैसे चन्द्रमा घटता व बढ़ता रहता है)। “घंटा” का अर्थ है जैसे मंदिर के घण्टे-घड़ियाल। मंदिर के घण्टे-घड़ियाल को किसी भी प्रकार बजाएं, उसमें से हमेशा एक ही ध्वनि आती है। ठीक उसी प्रकार जब एक अस्त-व्यस्त मन जो विभिन्न विचारों, भावों में उलझा रहता है, जब एकाग्र होकर ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाता है, तब उसके अंतस में ऊपर उठती हुई एक दैवीय शक्ति का उदय होता है जिससे हमारा अस्त-व्यस्त मन एकाग्रचित्त हो जाता है। यही है मां चन्द्रघण्टा का तत्वदर्शन।
मां शक्ति के चौथे ईश्वरीय स्वरूप कूष्माण्डा का संस्कृत में अर्थ होता है गोलाकार कद्दू। मगर यहां इसका आशय प्राणशक्ति से है। भारतीय परंपरा के अनुसार पूर्वकाल में कद्दू का सेवन मात्र ब्राह्मण, महाज्ञानी ही करते थे। कद्दू को सीताफल व गंगाफल के नाम से भी जाना जाता है। इसके गुण के बारे में ऐसा कहा गया है कि यह हमारी प्राणशक्ति, बुद्धिमत्ता और शक्ति को बढ़ाता है, प्राणों को अपने अंदर सोखता है और साथ ही प्राणों का प्रसार भी करता है। इसीलिए इसे धरती पर सबसे अधिक प्राणवान और ऊर्जा प्रदान करने वाली सब्जी कहा गया है। सम्पूर्ण सृष्टि गोलाकार कद्दू के समान है। इसमें हर प्रकार की विविधता पाई जाता है। छोटे से बड़े तक। “कू” का अर्थ है छोटा, “ष्” का अर्थ है ऊर्जा और “अंडा” का अर्थ है ब्रह्मांडीय गोला। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ऊर्जा का संचार छोटे से बड़े में होता है। बीज से बढ़ कर फल बनता है और फिर फल से दोबारा बीज हो जाता है। एक कद्दू के समान आप भी अपने जीवन में प्रचुरता और पूर्णता अनुभव करें। साथ ही सम्पूर्ण जगत के हर कण में ऊर्जा और प्राणशक्ति का अनुभव करें। इस सर्वव्यापी, जागृत, प्रत्यक्ष बुद्धिमत्ता का सृष्टि में अनुभव कराने वाली देवी को मां कूष्मांडा के नाम से जाना जाता है।
मां के पांचवां स्वरूप स्कंदमाता को भगवान कार्तिकेय (स्कन्द) की माता के नाम से जाना जाता है जो ज्ञानशक्ति और कर्मशक्ति के समन्वय की सूचक हैं। स्कन्दमाता वो दैवीय शक्ति हैं जो व्यवहारिक ज्ञान को सामने लाती है और उस ज्ञान को कर्म में बदलती हैं। स्कंदमाता ज्ञान और क्रिया के स्रोत का प्रतीक हैं। इस प्रकार का ज्ञान व्यवहारिक ज्ञान होता है। हम अक्सर कहते हैं कि ब्रह्म सर्वव्यापी है किंतु जब सामने कोई चुनौती या मुश्किल स्थिति आती है तब आप क्या करते हैं? समस्या या मुश्किल स्थिति में आपके ज्ञान का क्रियात्मक होना जरूरी होता है। स्कंदमाता कर्म व सही व्यवहारिक ज्ञान के सर्वोत्तम समन्वय की प्रतीक हैं।
देवी दुर्गा का छठा रूप मां कात्यायनी क्रोध के उस रूप का प्रतीक है जो सृष्टि में सृजनता, सत्य और धर्म की स्थापना करता है। मां कात्यायनी का दिव्य रूप सूक्ष्म जगत में नकारात्मकता का विनाश कर धर्म की स्थापना करता है। ऐसा कहा जाता है कि ज्ञानी का क्रोध भी हितकर और उपयोगी होता है जबकि अज्ञानी का प्रेम भी हानिप्रद हो सकता है। इस प्रकार मां कात्यायनी क्रोध का वह रूप है, जो सब प्रकार की नकारात्मकता को समाप्त कर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है।
मां शक्ति का सातवां कालरात्रि स्वरूप का अति भयावह व उग्र है। सम्पूर्ण सृष्टि में इस रूप से अधिक भयावह और कोई दूसरा नहीं। किन्तु तब भी यह रूप मातृत्व को समर्पित है। देवी मां का यह रूप ज्ञान और वैराग्य प्रदान करता है।
जबकि देवी मां का आठवां महागौरी स्वरूप सौन्दर्य का उच्चतम प्रतिमान है। एक ओर मां कालरात्रि जो अति भयावह, प्रलय के समान हैं और दूसरी ओर पूर्ण करुणामयी देदीप्यमान मां महागौरी सबको आशीर्वाद देती हुईं। इसकी अनुभूति के लिये आप शून्यता में जाइए अपने भीतर। एक बार आप वहां पहुंच गये तो अगला कदम वो है जहां आपको सभी जागृत शक्तियां दिखाई देंगी तथा इस ध्यान के चरम बिंदु पर आसीन मिलेगा मां महागौरी का अलौकिक रूप। देवी महागौरी आपको भौतिक जगत में प्रगति के लिए आशीर्वाद देती हैं ताकि आप संतुष्ट होकर अपने जीवनपथ पर आगे बढ़ें।
देवी का नवां सिद्धिदात्री स्वरूप हमें जीवन में अद्भुत सिद्धि, क्षमता प्रदान करता है ताकि हम सब कुछ पूर्णता के साथ कर सकें। सिद्धि का अर्थ है विचार आने से पूर्व ही काम का हो जाना। आपके विचारमात्र से ही आपकी इच्छा का पूर्ण हो जाना यही सिद्धि है। सिद्धि हमें जीवन के हर स्तर में सम्पूर्णता प्रदान करती है। यही है देवी सिद्धिदात्री की महत्ता।
उत्साहित करते हैं नवरात्रिक साधना पर हुए व्यापक शोध
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज से संबद्ध ब्रह्मवर्चस्व शोध संस्थान तथा उत्तराखंड के देवसंस्कृति विश्वविद्यालय तथा में नवरात्रिक साधना पर हुए व्यापक शोध के नतीजे खासे उत्साहित करने वाले हैं। इन शोध निष्कर्षों का सार यह है कि नवरात्र काल में की गयी छोटी सी अनुष्ठानपरक साधना से न केवल मन-मस्तिष्क के भावनात्मक असंतुलन का निदान होता होता है वरन हृदय की आन्तरिक शक्ति भी बढ़ती है। इस साधना से संचित शक्ति से मनुष्य के अंतस में न सिर्फ आध्यात्मिक ऊर्जा का जागरण होता है वरन व्यक्तित्व के विकास के साथ यह साधना साधक को आत्मसाक्षात्कार की राह भी दिखाती है।
यूं भी हम सभी जानते हैं कि हमारा मस्तिष्क हमारे समूचे कायतंत्र का संचालक व विचारधाराओं का उद्गम केन्द्र है। वैज्ञानिक प्रयोगों से साबित हो चुका है कि चिन्तित, अशान्त और अर्द्धविक्षिप्त मन अनेकानेक विपदाएं खड़ी करता है। जबकि ध्यान व साधना से न सिर्फ मन व मस्तिष्क शांत और प्रसन्नचित्त रहता है वरन इससे हमारी शारीरिक क्षमताएं भी बढ़ती हैं। शांत और प्रसन्न मन हमारी प्रगति और अभ्युदय के द्वार भी खोलता है।
स्त्रीजीवन के विविध पड़ावों को परिलक्षित करते हैं देवी दुर्गा के नौ स्वरूप
नवरात्र काल में देशभर के देवी भक्त मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा-अर्चना करते हैं। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंधमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। पर क्या आप इस दिलचस्प व गूढ आध्यात्मिक तथ्य से अवगत हैं कि देवी दुर्गा के ये नौ स्वरूप स्त्रीजीवन के विविध पड़ावों को परिलक्षित करते हैं। मां दुर्गा का “शैलपुत्री” स्वरूप स्त्री के कन्या रूप का, दूसरा “ब्रह्मचारिणी” स्वरूप स्त्री की कौमार्य अवस्था का, तीसरा “चंद्रघंटा” स्वरूप विवाह से पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल होने का, चौथा “कूष्मांडा” स्वरूप नए जीव को जन्म देने के लिए गर्भ धारण की अवस्था का, पांचवा “स्कन्दमाता” स्वरूप संतान को जन्म देने वाली माता का, छठा “कात्यायनी” स्वरूप संयम व साधना को धारण करने वाली स्त्री का, सातवां “कालरात्रि” स्वरूप अपने संकल्प से पति की अकाल मृत्यु को भी जीत लेने वाली स्त्री का, आठवां “महागौरी” स्वरूप संसार का उपकार करने वाली शक्ति का तथा नवां “सिद्धिदात्री” स्वरूप स्वर्ग प्रयाण करने से पहले संसार में अपनी संतान को सिद्धि (समस्त सुख-संपदा) का आशीर्वाद देने वाली महाशक्ति का होता है।
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