पिछले कुछ समय से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलगाववादी ताकतें सनातन धर्म और सिख मत में फूट डालने का जो काम कर रही हैं, वह चुनौती से ज्यादा खतरे की घंटी है। ऐसे समय में राजेंद्र सिंह की पुस्तक ‘सिख गुरुओं की राष्ट्रीय दृष्टि’ कई मायनों में खास है। पुस्तक में कुल 14 अध्याय हैं। इनमें से चार लेखक की स्वरचित रचनाएं हैं और चार अन्य लेखकों की हैं, जो अनूदित हैं। पुस्तक में सिख पंथ और सनातन धर्म के ऐतिहासिक संबंधों को सांस्कृतिक और धार्मिक नजरिए से ही नहीं, बल्कि सामाजिक सरोकारों के सिरों से भी जोड़कर देखा गया है।
पुस्तक का पहला अध्याय बताता है कि मोहम्मद गोरी, सिकंदर और बाबर जैसे मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा भारत के विभिन्न हिस्सों मे किए गए कत्लेआम से गुरु नानक जी बेहद दुखी थे। मंदिर तोड़े जा रहे थे, लोगों का जबरदस्ती कन्वर्जन किया जा रहा था। जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन बादशाह सिकंदर पर हिंदू धर्म मिटाने की सनक इस कदर सवार थी कि उसने अधिकांश मंदिरों और मूर्तियों को नष्ट कर डाला। केवल 11 हिंदू परिवार ही अपनी जान बचा पाए। इसके बाद वृहतर पंजाब के सैदपुर में बाबर के कत्लेआम को गुरु नानक ने केवल पंजाब या उसके खास इलाके के तौर पर नहीं, बल्कि पूरे हिंदुस्थान पर हमला कहा था। उन्होंने कहा कि बाबर पाप की बारात लेकर काबुल से यहां आ धमका है और भारत भूमि का कन्यादान बलपूर्वक मांग रहा है। वे कहते हैं कि पराया हक मारना या हड़पना मुसलमान के लिए सूअर खाने जैसा पाप है और हिंदू के लिए गाय खाने जैसा।
‘गुरु नानकदेव का दीर्घदर्शी लक्ष्य’ अध्याय उनकी उस चिंता को उजागर करता है, जिसमें वे तीर्थयात्रा करते हुए देश के अलग-अलग तीर्थस्थलों और धर्मस्थलों पर गए। उन्होंने लोगों के धर्माचरण छोड़कर मलेच्छ यानी अपवित्र होने और मुस्लिम शासकों के डर से अपने धर्म, आचरण छोड़ने पर गहरी चिंता जताई। लेखक ने इस अध्याय में भारत से इस्लामी सत्ता को हटाने के उनके संकल्प को उजागर किया है।
चारों अनुवादित रचनाओं में पहली है- अष्टांग योग और भक्ति योग। इसमें जिक्र है कि भाई अजीत रंधावा गुरु नानकदेव जी से शांति पाने और मन का संशय मिटाने का उपाय पूछते हैं, जिसका मार्ग वह अष्टसाध्य योग और भक्तियोग से बताते हैं। यह प्रसंग गुरु नानकदेव के योग की गहन जानकारी और सनातन धर्म से उनके जुड़ाव और आस्था का वैज्ञानिक पहलू उजागर करता है। गुरु नानकदेव और उनके बाद आने वाले सभी गुरुओं ने वेद वाणी को सत्य और परमात्मा की ही वाणी कहा है।
‘निर्गुण भक्ति साहित्य पर सूफी मत का प्रभाव एक विभ्रम’ कई सवालों की पृष्ठभूमि तैयार करता अध्याय है। भक्ति आंदोलन का दौर वह समय था जब सगुण के साथ निर्गुण भक्ति धारा की बयार बह रही थी। निर्गुण धारा, इसे गुरमत भी कहा गया, पर क्या सूफी मत का वाकई प्रभाव था? यह वह दौर था जब युद्ध में हार के बाद मौत या इस्लाम में से एक चुनने का विकल्प दिया जाता था। इसी समय सबसे ज्यादा जौहर भी देखने को मिलते हैं। इस अध्याय में शामिल अलग-अलग विद्वानों के विचार गुर मत पर इस्लाम नहीं, वैष्णव वेदान्तिक और नाथ मत के प्रभाव को देखते हैं।
पुस्तक की आखिरी रचना ‘ज्ञानी ज्ञान सिंह कृत दो इतिहास रचनाओं के असली और नकली रूप’ है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार कवि ज्ञानी ज्ञान सिंह कृत रचनाओं ‘श्री गुरु पंथ प्रकाश’ और ‘तवारीख गुरु खालसा’ के पुन: प्रकाशित अंकों में उनकी इन मूल कृतियों के साथ छेड़छाड़ की बात उठाई गई है। बेशक किसी मूल रचना के साथ भाषा और प्रस्तुितकरण की गड़बड़ी उसके भाव और वास्तविक अर्थ का अनर्थ कर सकती है, इन्हीं बातों पर इस अध्याय में बात की गई है।
यह पुस्तक सिख पंथ के उपजने और पनपने के कारणों, मुस्लिम शासकों के अत्याचारों के सामने डटकर खड़े होने वाली कौम के विचार और पंथ का कदम दर कदम ब्योरा देती है। गुरु नानकदेव के सिख पंथ की शुरुआत करने की पृष्ठभूमि और उनके बाद आने वाले उनके उत्तराधिकारियों के प्रयासों, बलिदान, खालसा पंथ का निर्माण और धर्मयुद्ध के लक्ष्य को उजागर करती है यह पुस्तक। कुल मिलाकर सिख पंथ और सनातन धर्म के बीच कमजोर पड़ रहे पुल को आत्ममंथन के जरिए दोबारा पुनर्जीवित करने की उम्मीद यह रचना देती है।
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