भगत सिंह दिसंबर 1928 में कोलकाता पहुंचे। उस वक्त वहां कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था। ब्रिटिश सरकार को नेहरु कमेटी (औपनिवेशिक) को लागू करने का अल्टीमेटम दिया गया। भगत सिंह का मानना था कि कांग्रेस पूर्ण स्वराज्य के अपने मद्रास निर्णय से पीछे हटकर औपनिवेशिक स्वराज्य से भी कम पर आ गई हैं। उन्होंने सोचा कि यह तो प्रगति नहीं, पीछे हटना हैं।
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने माफी मांगने से किया मना
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव सभी लाहौर जेल में बंद थे। इस बीच कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन हो गया था। जवाहरलाल नेहरु इसके अध्यक्ष बने। गाँधी नमक सत्याग्रह के चलते जेल चले गए और उन्हें 25 जनवरी 1931 को रिहा कर दिया गया। ऐसा लगा कि अब भगत सिंह को भी रिहा कर दिया जाएगा। देश भर में तीनों क्रांतिकारियों को छोड़ने का दवाब बनाया जाने लगा। सभी क्रांतिकारियों से सुभाष चन्द्र बोस, बाबा गुरुदत्त सिंह, रफ़ी अहमद किदवई, मोतीलाल सक्सेना और मोतीलाल नेहरु ने मुलाकात की थी।
भगत सिंह अपने परिवार से आखिरी बार 3 मार्च 1931 को मिले। उनके क़ानूनी सलाहकार प्राणनाथ मेहता ने उन्हें समझाया कि वे गवर्नर जनरल से माफी मांग ले तो वे बच सकते हैं। ऐसा करने से भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव तीनों ने मना कर दिया। फिर भी 20 मार्च 1931 को प्राणनाथ एक ड्राफ्ट बना लाये। इसके लिए तीनों कभी राजी नहीं हुए। जिस न्यायाधिकरण ने भगत सिंह को सजा दी उसे बाहर भेज दिया गया था। लाहौर उच्च न्यायालय को उनकी फांसी की सजा देने के लिए अधिकृत किया गया। भगत सिंह के पिता ने इसे चुनौती देते हुए कहा कि जिस न्यायाधिकरण ने उन्हें सजा दी है वही फांसी की तारीख तय कर सकती हैं। हालाँकि जज ने इस मामले को विचाराधीन रख लिया। आखिरकार जज ने उनके पिता की अपील को नामंजूर कर दिया। सरकारी वकील कर्देन नोड ने फांसी का हुक्म भी ले लिया। 23 मार्च 1931 को 7 बजकर 33 मिनट पर सभी को फांसी दे दी गई।
पुरुषोत्तम दास टंडन ने भगत सिंह का समर्थन करते हुए लिखा है, “हिंसा और अहिंसा हमारे देश का पुराना दार्शनिक प्रश्न है। प्रकृति हमें उत्पन्न करती है और हमारी रक्षा करती है। साथ ही एक हिलोर में हमारा नाश करती है। जिसके ऊपर समाज के संचालन का दायित्व रहता है उन्हें रक्षा और संहार दोनों काम करने होते हैं।
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