भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को हुआ। पढ़ाई के दौरान उनका संपर्क जुगल किशोर, भाई परमानन्द और जयचंद विद्यालंकार हुआ। साल 1923 में घर छोड़कर कानपुर चले गए। भगत सिंह हिंदी, उर्दू और पंजाबी तीनों भाषाओं के अच्छे जानकार थे। पंजाबी पत्रिका कीर्ति (अमृतसर), उर्दू में अकाली और चाँद में उनके कई लेख प्रकाशित हुए। कानपुर में अपना नाम ‘बलवंत सिंह’ बदलकर गणेश शंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र दैनिक ‘प्रताप’ के संपादन विभाग में काम किया। पुलिस की सक्रियता बढ़ने लगी और वह अलीगढ के एक स्कूल में पढ़ाने लगे।
अगले 6 महीनों के बाद वह फिर लाहौर लौट गए। वहां कुछ दिन बिताने के बाद वे दिल्ली आ गए। यहाँ उन्होंने दैनिक अर्जुन के संपादन विभाग में काम करना शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद वह दुबारा कानपुर लौट आए। इस बीच उनका संपर्क बटुकेश्वर दत्त, अजय घोष, विजयकुमार सिन्हा और योगेश चन्द्र चटर्जी जैसे क्रांतिकारियों से हो चुका था। लाहौर में 1926 के दशहरा के मेले में किसी ने बम से हमला किया। पुलिस ने इस सम्बन्ध में भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया। हालाँकि इस घटना से भगत का कोई लेना देना नहीं था। उच्च न्यायालय ने उन्हें 60 हजार की जमानत पर रिहा कर दिया। सरकार के पास कोई सबूत ही नहीं था इसलिए यह केस खत्म कर दिया गया।
क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय पार्टी की पहल शचीन्द्रनाथ सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल और योगेशचंद्र चटर्जी ने की थी। उन्होंने 1923 में हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन की बुनियाद रखी। भगत सिंह भी इस दल के साथ जुड़ गए और उनका नाम ‘बलवंत’ रखा गया। काकोरी घटना के बाद यह लगभग निष्क्रिय हो गया था। इसके अधिकतर नेता जेलों में बंद थे। भगत सिंह कानपुर के विजय कुमार सिन्हा और लाहौर के सुखदेव के साथ क्रन्तिकारी दल को फिर से संगठित करने लगे।
8-9 सितम्बर 1928 को दिल्ली के कोटला फिरोजशाह में एक बैठक बुलाई गई। बिहार से दो, पंजाब से दो, एक राजस्थान और पांच संयुक्त प्रान्त से इकट्ठे हुए। चन्द्रशेखर आजाद को सुरक्षा की दृष्टि से आने के लिए मना कर दिया गया। एक अन्य क्रांतिकारी ने बैठक से दूरी बना ली। सुखदेव, फणीन्द्रनाथ बोस और मनमोहन बनर्जी भी यहाँ शामिल हुए थे। भगत सिंह के सभी प्रस्ताव दो के खिलाफ छह के बहुमत से पारित हो गए। इस बैठक में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन की स्थापना की गई। भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी विजय कुमार सिन्हा को समन्वय का काम दिया गया।
सुखदेव और राजगुरु का परिचय
सुखदेव और राजगुरु को भारत के स्वाधीनता संग्राम के उन क्रांतिकारियों और बलिदानियों में गिना जाता है, जिन्होंने अल्पायु में ही देश के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया । सुखदेव का जन्म 15 मई 1907 को पंजाब के लुधियाना में हुआ। इनका पूरा नाम ‘सुखदेव थापर’ था । सन 1919 में जलियांवाला बाग के भीषण नरसंहार के कारण देश में भय तथा उत्तेजना का वातावरण बन गया था। उस समय सुखदेव मात्र 12 वर्ष के थे। स्कूलों तथा कॉलेजों में ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय छात्रों को सैल्यूट करना पड़ता था। लेकिन सुखदेव ने दृढ़तापूर्वक ऐसा करने से मना कर दिया, जिस कारण उन्हें दंड भी दिया गया। लायलपुर के सनातन धर्म हाईस्कूल से मैट्रिक पास कर सुखदेव ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया। यहीं पर सुखदेव की भेंट भगत सिंह से हुई। सुखदेव और भगत सिंह के विचार स्वराज प्राप्ति को लेकर एक समान थे जिस कारण शीघ्र ही उनका परिचय गहरी दोस्ती में बदल गया।
राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को पुणे जिले के खेड़ा गांव में हुआ। इनका पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरु था। वे बचपन से ही वीर और साहसी प्रवृति के थे। इनकी शिक्षा वाराणसी में हुई और यहीं से इनका सम्पर्क स्वाधीनता आंदोलन के क्रांतिकारियों से हुआ। राजगुरु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे।
भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु और जयगोपाल
तत्कालीन वायसराय ने 8 नवम्बर 1927 को घोषणा कर कहा कि भारत में शासन सुधारों के लिए सायमन की अध्यक्षता में एक कमीशन बनाया जाएगा। कमीशन 30 अक्तूबर 1928 में लाहौर आया। यहाँ लाला लाजपत के नेतृत्व में उसका विरोध किया गया। रेलवे स्टेशन पर पुलिस अधीक्षक स्कॉट ने सहायक पुलिस अधीक्षक सांडर्स को लाठी-चार्ज की अनुमति दी हुई थी। लाजपत राय को गंभीर चोंटे आई और 17 नवम्बर 1928 को उनका निधन हो गया। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु और जयगोपाल ने इसका बदला लेने का निर्णय लिया। चारों ने मिलकर 27 दिसंबर 1928 को पुलिस अधीक्षक स्कॉट को मारने का प्लान बनाया। हालाँकि उन्होंने सहायक पुलिस अधीक्षक सांडर्स को गोली मार दी। पिस्तौल का ट्रिगर राजगुरु ने दबाया और भगत सिंह ने पांच बार फायर किए।
ब्रिटिश भारत में इस प्रकार की यह दूसरी घटना थी। पुणे में पहली बार 1896 में प्लेग फैला था। प्लेग अधिकारी ने नाते ब्रिटिश अधिकारी डब्लू.सी. रैंड ने कई गलत निर्णय लिए। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने केसरी में 4 मई 1897 को एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने सरकार पर जनता के उत्पीडन का आरोप लगाया। इससे प्रेरणा लेकर चापेकर बंधुओं ने रैंड सहित एक अन्य अधिकारी की 22 जून 1897 को गोली मारकर हत्या की थी।
सेंट्रल असेम्बली में धमाका
भगत सिंह दिसंबर 1928 में कोलकाता पहुंचे। कोलकाता में उनकी मुलाकत त्रेलोक्य प्रतुलचन्द्र गांगुली, फणीन्द्रनाथ बोस और यतीन्द्रनाथ दास से हुई। यहाँ उन्होंने सेंट्रल असेम्बली (वर्तमान संसद) में कोई धमाका करने की योजना बनाई। जनवरी 1929 में वे आगरा में लौट आये। यहाँ यतीन्द्रनाथ दास, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, चंद्रशेखर आजाद और विजय कुमार सिन्हा के साथ उन्होंने योजना पर काम करना शुरू कर दिया। यहाँ बनाए गए बमों को झाँसी में परिक्षण के लिए ले जाया गया और यह परिक्षण सफल रहा।
सेन्ट्रल असेम्बली में दो प्रस्तावों पर चर्चा होनी थी। पहला जन सुरक्षा बिल 6 सितम्बर 1928 को लाया गया। इसका मकसद क्रांतिकारी गतिविधियों को रोकना था। इसे 24 सितम्बर को नामंजूर कर दिया गया। जनवरी 1929 में कुछ फेरबदलों के साथ उसे फिर से असेम्बली में लाया गया। दूसरा मजदूरों को हड़ताल पर जाने से रोकने के लिए औद्योगिक विवाद बिल 4 सितम्बर, 1928 को लाया गया। सदन ने उसे सिलेक्ट कमेटी को भेज दिया और कुछ बदलावों के साथ 2 अप्रैल 1929 को बहस के लिए पेश किया गया। दोनों ही स्थितियों में ब्रिटिश सरकार अपने को सुरक्षित करना चाहती थी।
हालाँकि दोनों प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित नहीं हुए थे। वायसराय ने अपने विशेषाधिकार से उन्हें कानून का रूप दे दिया। इसकी घोषणा 8 अप्रैल 1929 को असेम्बली में की जानी थी। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के साथ सायमन भी इस दिन असेम्बली की कार्यवाही देखने आया था। भगत सिंह ने लगातार दो बम पीछे की तरफ फेंक दिए जिससे कोई जान को हानि न हो। उसके बाद उन्होंने पिस्तौल से दो गोलियां हवा में दागी। भगत और दत्त ने इन्कलाब जिंदाबाद के नारे लगने शुरू कर दिए।
दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया और दिल्ली में 4 जून 1929 को उनके खिलाफ मुकद्दमे की सुनवाई शुरू हुई। दो दिन बाद उनके बयान लिए गए। सेशन जज मिडल्टन ने 10 जून को उन्हें आजन्म कारावास का फैसला सुना दिया।
भगत सिंह और दत्त दोनों भूख हड़ताल चले गए। इसी दौरान उनपर 10 जुलाई, 1929 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक सांडर्स की हत्या का मुकद्दमा चला। भगत सिंह ने विरोधस्वरूप न्यायालय में पेशी के लिए आना बंद कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने सेंट्रल असेम्बली में एक प्रस्ताव पारित कर दिया कि अभियुक्त अपने को अदालत आने के अयोग्य बना ले तो न्यायाधीश को अधिकार होगा कि वह उनकी अनुपस्थिति में कार्यवाही जारी रखे।इस सम्बन्ध में गवर्नर जनरल, इरविन ने 1 मई 1930 को लाहौर षड़यंत्र केस पर एक अध्यादेश जारी किया।
आखिरी बार वे सभी 12 मई 1930 को अदालत के सामने पेश हुए और देशभक्ति के गीत गाने लगे। ब्रिटिश सरकार को यह मंजूर नहीं था, तो वहां पुलिस द्वारा उन्हें पीटा जाने लगा। इस घटना के बाद वे कभी अदालत में नहीं गए। अतः बिना अभियुक्तों के 3 महीनों तक कार्यवाही चली और 26 अगस्त 1930 को समाप्त हो गई।
न्यायाधिकरण का फैसला 7 अक्तूबर 1930 को सुनाया गया। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी, सात को आजन्म कालेपानी की सजा, एक को सात साल और एक को तीन साल की कैद सुनाई गई। भगत सिंह अपने परिवार से आखिरी बार 3 मार्च 1931 को मिले। सरकारी वकील कर्देन नोड ने फांसी का हुक्म ले लिया। 23 मार्च 1931 को 7 बजकर 33 मिनट पर सभी को फांसी दे दी गई।
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