औरंगजेब की क्रूरता से इतिहास भरा पड़ा है। इस्लामिक कन्वर्जन, जजिया, मंदिरों को तोड़ना, हिन्दू घृणा और कुंभ नरसंहार जैसे उसके कुकृत्य उसकी इसी क्रूरता को दिखाते हैं। उसने मौत का भय एवं प्रताड़ना की हर सीमा पार कर न जानें कितनों को इस्लाम में धर्मांतरित होने के लिए मजबूर किया। वो तो संभाजी थे, छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र, जिन्होंने मृत्यु का आलिंगन स्वीकार किया, किंतु मुसलमान होना नहीं। संभाजी महाराज के दुखद अंत की कहानी ब्रिटिश भारत में सिविल सेवक और इतिहासकार रहे डेनिश किनकेड ने अपनी किताब “शिवाजी: द ग्रैंड रिबेल” में विस्तार से लिखी है। इस्लाम के इस मजहबी मतान्ध औरंगजेब ने संभाजी महाराज की अत्यंत क्रूर तरीके से हत्या करवाई थी।
औरंगजेब के कहने पर जब छत्रपति संभाजी महाराज और उनके कवि दोस्त कवि कलश इस्लाम कबूलने से इनकार किया तो उन दोनों को कई दिनों तक भयंकर अमानवीय यातनाएं दी गईं। सबसे पहले संभाजी महाराज की जीभ काट कर रात भर तड़पने के लिए उन्हें छोड़ दिया गया। फिर लोहे की गर्म सलाखें घोपकर उनकी आंखें निकाली गईं, लेकिन वे फिर भी इस्लाम स्वीकार नहीं करते हैं। औरंगज़ेब ने अपना डर कायम रखने के लिए और हिन्दुओं की रूह कँपाने के लिए संभाजी के सिर को कई शहरों में घुमाया। इतना ही नहीं संभाजी महाराज का हिन्दू रीति से दाह संस्कार न हो सके, इसके लिए उनके शरीर के कई टुकड़े कर नदी में बहा दिए।
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बनारस हुआ औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता का शिकार
जीन-बैप्टिस्ट टैवर्नियर (1605-1689), फ्रांसीसी व्यापारी और यात्री थे, उन्होंने भारत में व्यापार के साथ अपनी यात्रा का विवरण प्रकाशित किया। उनकी दो खण्डों में आई पुस्तक Travels in India: Volume 1 and 2 (Cambridge Library Collection) पुस्तक के भाग एक के पृष्ठ संख्या 118-119 में वे बनारस को एक अच्छे शहर के रूप में वर्णित करते हैं। अपने यात्रा वृत्तान्त में इन दो फ्रांसीसी यात्रियों बर्नियर और तावेर्निए ने लिखा कि बनारस एक बड़ा और बहुत अच्छी तरह से बना हुआ शहर है, ज्यादातर घर ईंट और कटे हुए पत्थर के बने हैं…इसमें कई सराय हैं।…प्रांगण के बीच में दो गैलरी हैं जहाँ वे सूती कपड़े, रेशमी सामान और अन्य प्रकार के माल बेचते हैं।
माल बेचने वालों में से अधिकांश वे कारीगर हैं जिन्होंने इसे बनाया है, और इस तरह विदेशी इसे सीधे प्राप्त करते हैं।…मूर्तिपूजकों का एक प्रमुख शिवालय बनारस में है, और मैं इसका वर्णन पुस्तक में करूँगा, जहाँ मैं…धर्म के बारे में बात करूँगा।…शहर से लगभग 500 कदम की दूरी पर, उत्तर-पश्चिमी दिशा में, एक मस्जिद है जहाँ आपको कई मुस्लिम कब्रें दिखाई देंगी।…यहां नाव में चढ़ने से पहले सभी यात्रियों के सामान की जाँच होती है, व्यक्तिगत संपत्ति पर कोई शुल्क नहीं देना पड़ता है, और केवल माल पर ही शुल्क देना पड़ता है।
तोड़ दिया गया काशी विश्वनाथ मंदिर
इस यात्रा का जिक्र कर इतिहासकार मोती चंद्र ने अपनी पुस्तक ‘काशी का इतिहास’ में इस बात का उल्लेख किया है कि जब ये दोनों 1660 ई. और 1665 ई. के बीच बनारस आए थे तब के समय औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता का शिकार बनारस नहीं हुआ था, इसलिए इन दोनों ही विदेशी यात्रियों ने शिवालय के रूप में बाबा विश्वनाथ मंदिर का जिक्र किया है, यह तब तक तोड़ा नहीं गया था। इसके साथ यह भी ध्यान में आता है कि मस्जिद का जो जिक्र इनके यात्रा वृत्तान्त में आया है, वह शहर से 500 कदम की दूरी पर स्थित थी, न कि बीच शहर में। यानी काशी में सिर्फ शिवमंदिर एवं अन्य हिन्दू देवी-देवताओं के मंदिर ही मौजूद थे।
लेकिन जैसे ही औरंगजेब ने बादशाह का ताज पहना वैसे ही सबसे पहले काशी की ओऱ वह चल पड़ा। उसने पूरे देश में फैले अपने सूबेदारों को फरमान जारी किया कि सभी सूबेदार अपनी इच्छा से हिन्दुओं के सभी मंदिरों और पाठशालाओं को गिरा दें। मूर्ति पूजा पूरी तरह से बंद होना चाहिए। 18 अप्रैल 1669 को दिए गए उसके इस आदेश के बाद उसे इसी वर्ष 2 सितंबर 1669 को खबर दी गई कि काशी के प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर को गिरा दिया गया है। इतिहासकार मोती चंद्र अपनी इस पुस्तक “काशी का इतिहास” में यह भी लिखते हैं कि औरंगजेब ने यह तर्क दिया था कि ‘मंदिरों में गैर इस्लामिक चीजें पढ़ाई और सिखाई जाती हैं। उसने अपने हतोत्साहित सैनिकों को भी यही कह कर हौसला दिया था कि यह ऊपर वाले की इच्छा है कि यह मंदिर ध्वस्त किए जाएं।’
वस्तुत: इस घटना के संदर्भ में यहां बताना है कि औरंगजेब की सबसे प्रमाणिक जीवनी ‘मासिर-ए-आलमगीरी’ को माना जाता है, इस किताब में औरंगजेब के द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने की घटना का पूरा जिक्र मौजूद है। मंदिर तोड़कर ज्ञानव्यापी मस्जिद का निर्माण हुआ था। मुहम्मद ताहिर (1628-671) जिन्हें उनके नाम इनायत खान के नाम से जाना जाता है, ने शाहजहाँनामा में औरंगजेब के अब्बा शाहजहाँ का जीवन वृत्तांत लिखा है, उनके मुंशी मोहम्मद साफी मुस्तइद खां ने ही यह मआसिर-ए-आलमगीरी लिखी है।
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