सोच सकते हैं! औरंगजेब ने छत्रपति शिवाजी के बेटे संभाजी महाराज के साथ जो किया, वह न जाने कितने हिन्दुओं के साथ उसने किया था, भयंकर प्रताड़ना देकर इस्लाम में मतांतरित करने के लिए यहां तक गया कि उसने गरीबों तक को नहीं बख्शा। 2 अप्रैल 1679 को फरमान जारी किया कि जिम्मी (गैर मुसलमान) लोगों को जजिया कर देना होगा। जब इसके विरोध में दिल्ली में भीड़ सड़कों पर आई तो इसने हाथियों से उन्हें कुचलवानें में तनिक भी देरी नहीं की। कई हिन्दुओं को मार देने के बाद भी इसकी जजिया कर वसूली जारी रही। औरंगजेब जजिया को कितना जरूरी मानता था , इसका पता उसके दिए इस आदेश से मिलता है, अपने वजीरों से उसने कहा, ‘‘तुम्हें बाकी करों में छूट की आजादी है, लेकिन काफिरों पर जजिया लगाने में मुझे मुश्किल से कामयाबी मिली है, इसलिए अगर कहीं तुम लोगों ने जजिया में छूट दी तो यह इस्लाम के खिलाफ होगा।” इतिहासकार जदुनाथ सरकार एतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर बताते हैं कि हिंदुओं को मुस्लिमों की तुलना में राज्य के अन्य करों के साथ ही अतिरिक्त रूप से उसकी एक तिहाई राशि का जजिया के तौर पर भुगतान करना अनिवार्य था।
प्रयाग में गंगा स्नान तभी जब हिन्दू दे देता था, सवा छह रुपए
इतना ही नहीं प्रयाग में गंगा स्नान के लिए जाने वालों पर उसने सवा छह रुपए का यात्री कर लगा दिया था। यानी गंगा में एक हिन्दू तभी डुबकी लगा सकता था, जब वह पहले इतना रुपया जमा करवा दे, अन्यथा उसे अपने पूर्वजों का तर्पण और अस्थी विसर्जन करने तक की अनुमति नहीं थी। दूसरी ओर मुस्लिम व्यापारियों तक के लिए उसने चुंगी खत्म कर दी थी। वहीं, हिन्दू व्यापारियों पर पांच फीसद चुंगी लगा कर कर के नाम पर वसूली की जा रही थी।
इतिहासकार जदुनाथ सरकार के अनुसार, कानूनगो बनने के लिए इस्लाम कुबूल करना जरूरी था। औरंगजेब के समकालीन इतिहासकार मनुची लिखता है कि कमजोर वर्ग के हिन्दू जो जजिया या अन्य कर का भुगतान नहीं कर पाते थे, वे अपमान और उत्पीड़न से छुटकारा पाने इस्लाम कुबूल कर लेते। जैसा कि इन दिनों बांग्लादेश और पाकिस्तान में देखने में आ रहा है।
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दीवाली को करवा दिया था बंद
वर्ष 1665 में उसने यह कहकर कि हिंदू अंधविश्वास में दीपोत्सव (दीपावली) पर दिए जलाते हैं। इसलिए यह बंद हो और उसने बाजारों को रोशन करने पर पाबंदी लगा दी। होलिका दहन और रंग उत्सव खेलने पर भी उसने पाबंदी लगानी चाही। यहां तक कि उसने कुंभ जैसे हिन्दू मेलों को भी बंद करने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी।
कुंभ में हमला कर हजारों हिन्दुओं को काट डाला था
1666 में हरिद्वार में लगा कुंभ इस जिहादी औरंगजेब की बर्बरता की याद दिलाता है। औरंगजेब ने कुंभ मेले पर हमला कर हजारों हिंदुओं का नरसंहार किया था। इतिहास में इससे जुड़े अनेकों प्रमाण मौजूद हैं। अकेले इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब में नहीं बल्कि तत्कालीन समय की अन्य पुस्तकों में भी यह जिक्र आया है।
एहसान फरामोश था औरंगजेब
औरंगजेब को हिंदुओं के प्रति उदार बताने की कोशिशें ऐतिहासिक सच्चाइयों से उलट हैं। साम्राज्य के विस्तार या फिर रणनीतिक जरूरतों के लिहाज से भले उसने कुछ हिन्दू राजाओं से संधियां कीं या मुगल दरबार में उन्हें जगह दी। पर आम हिंदू उसके लिए काफिर थे, जिनके लिए कुरान और हदीस जो कहती हैं, उसी के अनुसार इन सभी (काफिरों) के लिए उसके शासन में किसी उदारता की गुंजाइश नहीं थी। राजा जयसिंह के बाद उसने किसी हिंदू को गवर्नर नहीं बनाया।
लेकिन वह उनके प्रति भी कभी कृतज्ञ नहीं रहा उल्टा उनकी मौत की खबर सुनकर दरबार में खुशी का इजहार करने लगा था। वास्तव में औरंगजेब कितना एहसान फरामोश बादशाह था, वह उसके इस व्यवहार से पता चलता है, एक प्रसिद्ध इतालवी यात्री, निकोलाओ मनुची, जिन्होंने अपना अधिकांश जीवन भारत में बिताया, ने अपने उद्धरण में लिखा, ‘‘एक राजा से छुटकारा पाकर, जिसका प्रभाव उसके राज्य के लिए खतरनाक हो सकता था, उसने उसी क्षण हिंदू धर्म के विरुद्ध खुले युद्ध की घोषणा कर दी।
उसने तुरंत ही दिल्ली के पड़ोस में स्थित लालता नामक सुंदर मंदिर को नष्ट करने का आदेश भेजा। उसने प्रत्येक वायसराय और गर्वनर को अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी मंदिरों को नष्ट करने का आदेश दिया। अन्य मंदिरों में मटोरा (मथुरा) का महान मंदिर भी नष्ट कर दिया गया, जो इतना ऊंचा था कि उसका सोने का पानी चढ़ा हुआ शिखर अठारह मील दूर आगरा से देखा जा सकता था। इसके स्थान पर एक मस्जिद बनाई जानी थी, जिसे उसने एस्सलामाबाद (इस्लामाबाद) नाम दिया, जिसका अर्थ है, ‘विश्वासियों द्वारा निर्मित।
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उसने यहां से हिंदुओं के तपस्वी और संत योगियों एवं संन्यासियों को निष्कासित कर दिया। उसने निर्देश दिया कि दरबार के उच्च अधिकारी जो हिंदू थे, अब अपने प्रभार नहीं संभालेंगे, बल्कि उनके स्थान पर मुसलमानों को रखा जाना चाहिए। उसने हिंदुओं को उनके मौज-मस्ती एवं उत्सव मनाने से रोक दिया था।’’ ( स्टोरिया डू मोगोर , खंड II, पृष्ठ 154)
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