उत्तराखंड के चंपावत जिले के टनकपुर नगर में समुद्र तल से तीन हजार फीट की ऊंचाई पर नेपाल से निकलने वाली काली नदी के किनारे अन्नपूर्णा चोटी पर स्थित माँ पूर्णागिरि शक्तिपीठ के प्रति सनातनधर्मी हिन्दू श्रद्धालुओं की गहरी आस्था है। पौराणिक मान्यता के अनुसार माँ शक्ति के 52 शक्तिपीठों में शामिल इस शक्तिपीठ पर माँ की नाभि का निपात हुआ था। यूँ तो माँ पूर्णागिरि के इस चमत्कारी धाम में माँ की देहरी पर शीश नवाने के लिए वर्ष भर श्रद्धालुओं का आवागमन होता रहता है किन्तु होली के अगले दिन से यहाँ लगने वाले तीन मासीय मेले में पूर्णागिरि धाम की रौनक कुछ अलग ही दिखायी देती है। चैत्र नवरात्र में लाखों शीश माँ पूर्णागिरि के चरणों में झुकते हैं।
जानना दिलचस्प हो कि माँ पूर्णागिरि के चरणों में शीश नवाने के दूर-दराज से आने वाले श्रद्धालु यहां पहुंचने के लिए सबसे पहले उत्तर प्रदेश के पीलीभीत नगर का रुख करते हैं। ऐसे में जिस तरह पीलीभीत को मां पूर्णागिरि शक्तिपीठ का प्रथम द्वार माना जाता है; ठीक उसी तरह पीलीभीत के ही एक धनाढ्य सेठ से जुड़ा कथानक भी माँ शक्ति के इस चमत्कारी धाम के प्रति लोक श्रद्धा को प्रगाढ़ करता है। एक किंवदंती के अनुसार एक बार उत्तर प्रदेश के पीलीभीत नगर के एक नगर सेठ ने माँ पूर्णागिरि के धाम आकर पुत्र प्राप्ति की मन्नत मांगी थी और मनोकामना पूरी होने पर माँ के मंदिर में सोने का घंटा चढ़ाने का संकल्प लिया था। माँ पूर्णागिरि के आशीर्वाद से उक्त सेठ की मन्नत पूरी हुई।
जल्दी ही उसके घर एक बेटे का जन्म हुआ। लेकिन; जब संकल्प पूरा करने की बारी आयी तो सेठ के मन में लालच आ गया। उसे लगा सोने का घंटा चढ़ाना तो बहुत खर्चीला होगा क्यों न तांबे के घंटे को भेंट कर काम चला लिया जाए। मनौती का संकल्प पूरा करने के लिए उस सेठ ने तांबे का घंटा बनवाकर और उस पर सोने का पानी चढ़वा दिया। उस तांबे के घंटे को देवी को समर्पित करने के लिए वह सेठ अपने मजदूरों के साथ पूर्णागिरि धाम को चल पड़ा। रास्ता लम्बा था तो उसने आराम करने के लिए ‘’टुन्नास’’ के पड़ाव पर डेरा डाल कर उस घंटे को भूमि पर रख दिया। कुछ देर आराम करने के बाद सेठ ने जब आगे चलने के लिए मजदूरों को घंटा उठाने को कहा पर तमाम कोशिशों के बाद भी घंटा टस से मस नहीं हुआ। तब मजदूरों के साथ सेठ ने भी उसे उठाने में पूरा जोर लगा दिया लेकिन घंटा अपनी जगह से सूद भर भी न हिला। तब उस सेठ को अपनी भूल का अहसास हुआ और वह उस घंटे को देवी द्वारा अस्वीकार किया जाना मानकर उस घंटे को उसी जगह पर छोड़कर सर झुका कर वापस लौट गया। कालांतर में उस झूठे सेठ के छल से सीख लेने के लिए श्रद्धालुओं द्वारा आपसी सहयोग से यहाँ एक मंदिर का निर्माण करा दिया जो समूचे तीर्थ क्षेत्र में ‘झूठे का मंदिर’ के नाम से विख्यात है।
मां पूर्णागिरि मंदिर समिति करीब तीन सौ पूर्व इस मंदिर की स्थापना की गयी थी। माँ पूर्णागिरि धाम से करीब एक किमी पहले स्थापित इस ‘’झूठे का मंदिर’’ में किसी भी तरह की देव प्रतिमा नहीं है और न ही यहाँ किसी तरह का पूजा-पाठ किया जाता है। यह मंदिर माँ की शक्ति व चमत्कार का जीता जागता उदाहरण है जो बताता है कि मां किस तरह अपने भक्तों की मुराद पूरी करती हैं; साथ ही यह मंदिर मुराद पूरी होने पर श्रद्धालुओं को अपने संकल्प की पूर्ति पर अडिग रहने की सीख देता है।
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