नेपाल में हिन्दू राष्ट्र की मांग जोर पकड़ने लगी है। राजशाही के पक्ष में लोगों का जनज्वार सड़कों पर उतर आया है। इससे वामपंथियों के हाथ पांव फूल गए हैं। पूर्व राजा ज्ञानेंद्र के प्रति लोगों का भावनात्मक जुड़ाव देश में देखा जा रहा है।
कम्युनिस्ट पार्टियां सतर्क
नेपाल के प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख केपी ओली ने इसके पीछे बाहरी शक्तियों के शामिल होने का आरोप लगाया है। इसके साथ ही उन्होंने नेपाल की सड़कों पर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के पोस्टरों को लेकर वो कहते हैं कि अभी हमारी स्थिति ऐसी नहीं है कि रैली के लिए हमें विदेशी नेताओं का इस्तेमाल करना पड़े।
लोकतंत्र का ढोंग या मजबूरी?
हैरानी की बात यह है कि वामपंथी विचारधारा का दावा करने वाले ओली और उनके सहयोगी अब लोकतंत्र की दुहाई देने लगे हैं। ओली ने इन प्रदर्शनों को “अलोकतांत्रिक” और “व्यवस्था विरोधी” करार दिया है। यह बयान अपने आप में विरोधाभासी है, क्योंकि वामपंथी शासन पर अक्सर लोकतांत्रिक स्वतंत्रता को दबाने के आरोप लगते रहे हैं। जानकारों का मानना है कि यह लोकतंत्र की बात केवल जनता के गुस्से को शांत करने और अपनी सत्ता को बचाने की रणनीति हो सकती है।
राजशाही वापस नहीं आने देंगे
इस बीच इन प्रदर्शनों से डरे नेपाल के वामपंथी नेताओं ने एक बैठक की। इस बैठक में सभी वामपंथी नेताओं ने तय किया कि राजशाही को देश में लौटने नहीं दे सकते हैं। इसके लिए हम सभी को देश के जिलों को छोड़कर केंद्र यानि कि काठमांडू की राजनीति में एक्टिव होना होगा।
क्यों परेशान हो गए हैं वामपंथी
वामपंथियों की इस हताशा और निराशा को समझना तो इस बात को समझना होगा कि नेपाल में भले ही वामपंथियों का शासन है, लेकिन वहां की आम जनता अभी भी लोकतंत्र को मानती है। इसका नजारा उस वक्त देखने को मिला जब रविवार को नेपाल के 77 वर्षीय पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह पोखरा काठमांडू वापस लौटे तो देश की जनता ने एयरपोर्ट पर जबर्दस्त स्वागत किया। इस दौरान उत्साहित भीड़ ने राजमहल खाली करो, राजा आओ देश बचाओ और हिन्दू राष्ट्र की मांग की।
2008 तक हिन्दू राष्ट्र था नेपाल
नेपाल एक ऐसा देश है, जो कि 2008 तक नेपाल एक हिन्दू राष्ट्र था। लेकिन, अब नेपाल हिन्दू राष्ट्र नहीं रहा। 16 साल के बाद एक बार फिर से हिन्दू राष्ट्र की मांग की जा रही है। लोकतंत्र बहाली की मांग ने देश की वामपंथी पार्टियों के लिए खतरे की घंटी बजा दी है।
उल्लेखनीय है कि यह आंदोलन नेपाल की राजनीति के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है। यदि यह मांग और तेज होती है, तो वामपंथी दलों के सामने सत्ता बचाने की बड़ी चुनौती होगी। दूसरी ओर, भारत जैसे पड़ोसी देश भी इस स्थिति पर नजर रखे हुए हैं, क्योंकि नेपाल का यह बदलाव क्षेत्रीय संतुलन को प्रभावित कर सकता है। क्या नेपाल फिर से हिन्दू राष्ट्र बनेगा या राजशाही की वापसी होगी? यह सवाल अभी अनुत्तरित है, लेकिन सड़कों पर उमड़ा जनसैलाब इस बात का संकेत दे रहा है कि नेपाल एक बड़े बदलाव की दहलीज पर खड़ा है।
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