भारत में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जिसे अपनी परिवर्तित पहचान से इश्क है। उसे अपनी पूर्व की पहचान से घृणा है और उस पहचान से मोहब्बत है जो उस पर आत्ताइयों ने थोपी है। वे आतताई तो माना जा सकता है कि बाहर से आए थे और उनका मकसद यही था कि यहाँ के लोगों की धार्मिक पहचान मिटा दी जाए, मगर जो उस समय मतांतरित हो गए, वे क्यों हमलावरों की पहचान को अपने आप से जोड़े हुए हैं।
ताजा मामला है नेशनल कान्फ्रन्स के नेता फारुख अब्दुल्ला का। उन्हें इस बात से बहुत पीड़ा है कि उत्तर प्रदेश सरकार स्थानों के नाम बदल रही है। उन्होनें कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार मुगलों के इतिहास को नाम बदलकर मुगलों का नाम मिटाना चाहती है, मगर ऐसा नहीं होगा क्योंकि वे यहाँ पर हजारों साल रहे और यहीं पर दफन हुए।
अब इसमें फारुख अब्दुल्ला बहुत ही रोचक बात कह रहे हैं, वे नाम बदलने की बात कर रहे हैं। मगर यह याद रखा जाए कि ये वही एनसीपी है, जिसने अपने चुनावी घोषणापत्र में शंकराचार्य पर्वत को तख्त-ए-सुलेमान लीक ट और हरि पर्वत किला को कोह-ए-मारन लिखा था। शंकराचार्य पर्वत को ये नाम देकर खुद फारुख अब्दुल्ला ने कश्मीर का हिन्दू इतिहास मिटाने का काम नहीं किया है। इतना ही नहीं वारामूला जिला, जिसका मूल नाम वराहमूल है, उसे वारामूला कहकर किसका इतिहास मिटा रहे हैं लोग?
सबसे बढ़कर कश्मीर में एक नदी बहती है, जिसे झेलम कहा जाता है, उसका असली नाम वितस्ता है। वितस्ता का इतिहास भी बहुत सुंदर है और उस पहचान से जुड़ा है, जिसे अब फारुख अब्दुल्ला जैसे लोग नकारते हैं। उनके लिए यह नदी झेलम है क्योंकि इसे कुछ मुस्लिम इतिहासकारों ने नाम दिया। फिर वितस्ता नाम क्यों नहीं लेते? यदि मुगलों के द्वारा जबरन दिए गए नाम नहीं मिटाए जा सकते हैं, तो फिर कश्मीर की पहचान वितस्ता नदी के नाम को क्यों झेलम कहा जाता है।
कहा जाता है कि महादेव ने स्वयं अपने भाले से वितस्ता नदी का निर्माण किया था। इसे जीवित नदी माना जाता है। इसे देवी पार्वती का अवतार माना जाता है। नीलमत पुराण के अनुसार कश्यप ऋषि के अनुरोध पर भगवान शिव द्वारा भाले से बनाए गए वितशी जितने गड्ढे से नदी के रूप में प्रकट हुई थीं। इनका पारंपरिक स्रोत नीला कुंड है। मगर वितस्ता का नाम जैसे ही झेलम होता है वैसे ही इसका इतिहास झेलम शहर के साथ जुड़ जाता है।
हर नाम का इतिहास होता है। कोई भी स्थान बिना इतिहास का नहीं होता। फिर चाहे वह नदी हो, तालाब हो या फिर नगर।
फारुख अब्दुल्ला जब नाम बदलने की बात करते हैं, और कहते हैं कि मुगलों का इतिहास नहीं मिटाया जा सकता, तो वे सही कहते हैं क्योंकि मुगलों ने इतने मंदिर तोड़े हैं कि हर ऐसे टूटे मंदिर का दृश्य बार-बार यह याद दिलाता रहेगा कि आतताई कितने क्रूर थे।
शेक्सपियर ने कहा था कि नाम में क्या रखा है? मगर सच कहा जाए तो नाम में ही सब कुछ रखा है। जब एक नगर प्रयागराज होता है, तो उसकी जड़े रामायण और महाभारत में प्राप्त होती हैं, वहाँ पर जाकर पूरे विश्व का हिन्दू महाभारत और रामायण अर्थात प्रभु श्रीराम और प्रभुश्री कृष्ण से जुड़ता है, अपनी जड़ों से जुड़ता है। मगर जब उसका नाम अल्लाहाबाद और कालांतर में इलाहाबाद हो जाता है, तो वह अकबर के साथ अपनी पहचान जोड़ता है।
नाम में ही तो सब कुछ रखा है। मुगलों ने या कहें मुस्लिम आक्रान्ताओं ने नाम ही तो बदलने का प्रयास किया। नाम के कारण इतिहास बदलने का प्रयास किया। औरंगजेब ने भी मथुरा का मंदिर तोड़ने के बाद उसका नाम इस्लामाबाद रख दिया था। जैसे लाहौर का इतिहास तो प्रभु श्रीराम के पुत्र लव के नाम से ही है, और इसे कोई बदल नहीं सकता।
जैसे अभी जो टैक्सिला के रूप में विख्यात है, वह नगर बसा ही रघुवंशी भरत के पुत्र तक्ष के नाम पर है। जिसे अब लोग टैक्सिला कहने लगे हैं, मगर कुरेद-कुरेद कर पहचान मिटाने वाले भी जब नाम के मूल में जाएंगे तो पता चलेगा कि लवपुरी और तक्षशिला ही दरअसल असली पहचान है।
फारुख अब्दुल्ला को स्वयं से यह प्रश्न भी पूछना चाहिए कि आखिर मुगलों ने या फिर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने नगरों की वह पहचान क्यों छीनी, जो उनके साथ सदियों से ही नहीं बल्कि युगों से थी। आगरा की पहचान जो केवल ताजमहल तक सीमित कर दी गई है, का पुराना नाम भी अग्रवन ही हुआ करता था। यूनानी खगोलशास्त्री टॉलमी ने अवश्य इसे आगरा कहा, और अकबर के शासनकाल में इसे अकबराबाद भी कहा जाने लगा था, मगर आगरा की पहचान तो अग्रवन ही रहेगी।
यह सारी लड़ाई पहचान की लड़ाई है। कौन बनारस का नाम मोहम्मदाबाद सहन कर सकता है? कोई नहीं! गुजरात के अहमदाबाद का नाम पहले कर्णावती था। मुगलों या सल्तनत काल में जो नाम आक्रान्ताओं के नाम पर कर दिए गए, उन्हें पूर्ववत करने में किसी को समस्या क्या हो सकती है? यह प्रश्न तो फारुख अब्दुल्ला से पूछा जाना चाहिए कि मुगलों को क्या समस्या थी कि उन्होनें भारत के नगरों के नाम बदले।
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