कांग्रेस का मुस्लिम तुष्टीकरण स्वतंत्रता प्राप्ति से बहुत पहले से ही देखने में आता रहा है। स्वातंत्र्य संघर्ष के दौरान भी मुस्लिम समाज को हिन्दू समाज से एक कदम आगे रखने की कांग्रेस की मानसिकता ने ही ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ और ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता’ जैसे जुमले उछाले थे। ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की गई कि हिन्दू ही खुद को ‘हिन्दू’ के नाते परिचित कराने में लज्जा महसूस करे। इस सबको देखकर डॉक्टर हेडगेवार ने रा.स्व.संघ जैसा संगठन खड़ा करके हिन्दू गौरव का भाव प्रगाढ़ ही नहीं किया अपितु देश को स्व के भाव के साथ संगठित करने में अभूतपूर्व योगदान दिया
केशव का जन्म 1889 में नागपुर के हेडगेवार परिवार में हुआ था और 50 वर्ष बाद 1940 में उनकी जीवन यात्रा समाप्त हुई। 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई। 1947 में देश स्वतंत्र हुआ। 1889 से 1947 तक का कालखंड स्वतंत्रता आंदोलन से भरा हुआ था। केशव जन्म से स्वतंत्रता सेनानी था। केवल 8 वर्ष की आयु में विदेशी रानी एलिजाबेथ के राज्यारोहण की वर्षगांठ के दिन की याद में शाला में बांटी गई मिठाई केशव ने कचरे के डिब्बे में फेंक दी थी। बाल्यावस्था में ऐसा स्वाभिमानपूर्ण उदाहरण शायद भारत में एकमात्र ही होगा।
नागपुर शहर के सीताबर्डी किले पर फहराता विदेशी यूनियन जैक उतारकर नागपुरकर भोसले की भगवा ध्वज लगाने की आकांक्षा नवमी में पढ़ने वाले केशव के मन में पैदा हुई। आगे मैट्रिक में पढ़ते समय सरकार का ‘रिस्ले सर्कुलर’ आया, जिसके माध्यम से वंदेमातरम् गाने पर पाबंदी लगाई गई थी।
केशव ने इस प्रतिबंध को तोड़ने का निश्चय किया। सभी विद्यार्थियों से सहमति ली गई। जिस दिन शिक्षा अधिकारी शाला का निरीक्षण करने आने वाले थे, वह दिन निश्चित किया गया। तय हुआ कि जैसे ही शिक्षा अधिकारी अपनी कक्षा में आएंगे तो सभी वंदेमातरम का नारा लगाकर उनका स्वागत करेंगे। वैसा ही हुआ। दो महीने के लिए शाला बंद हो गई। अभिभावकों और शिक्षकों के बीच चर्चा हुई, समझौता हुआ। सभी विद्यार्थी शाला जाने लगे। केशव को यह मान्य नहीं था। उसने शाला छोड़ दी। केशव दूसरों को देखकर कुछ करने वाला लड़का नहीं था। वह स्वतंत्र विचार करने वाला, निर्भय, परिणाम की चिंता न करने वाला और विचारों को कृति में उतारने वाला विद्यार्थी था।
कोलकाता में डॉक्टरी की पढ़ाई करते समय क्रांतिकारियों की अनुशीलन समिति का सदस्य होना, क्रांतिकारी के रूप में सक्रिय होना, डॉक्टर की उपाधि लेकर नागपुर वापस आना, व्यवसाय तथा शादी न करने का विचार निश्चत करना, असहयोग आंदोलन में भाग लेना, इन सब घटनाक्रमों से डॉक्टर हेडगेवार के स्वतंत्र व्यक्तित्व का महत्व दिखाई देता है। स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उनका अलग ही चित्र दिखाई देता है। वे प्रारंभ से ही समाज के सामने संपूर्ण स्वतंत्रता का विचार रखते आए थे।
उनके अंदर स्वतंत्रता प्राप्त ही नहीं करना अपितु उसे सदा के लिए स्थायी बनाने के लिए अभी से कुछ प्रयत्न करने का विचार चलता रहता था। तब हिंदू-मुस्लिम एकता की चर्चा सर्वत्र हो रही थी। पर ईसाई, यहूदी, पारसी का उल्लेख होता ही नहीं था। डॉक्टर जी का विचार था कि केवल हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करने से मुस्लिम समाज में अलगाववाद की भावना निर्माण होगी और वह देश के लिए घातक होगी। उन्होंने अपने मन की यह शंका महात्मा गांधी के सामने व्यक्त की। गांधी जी ने चर्चा को तत्काल विराम देते हुए कहा, ‘मुझे ऐसा नहीं लगता’। पर हिंदू-मुस्लिम एकता का विषय स्वतंत्रता आंदोलन की अपेक्षा चर्चा में ज्यादा रहने लगा था।
चर्चा में अधिकांशत: यही सुनने को मिलता था कि-‘हिंदू स्वत: को हिंदू ना कहें तो मुसलमान ‘मुसलमान’ शब्द का उल्लेख छोड़ देंगे।’ ‘देश को ‘हिंदुस्थान’ न कहकर ‘हिंदस्तान’ कहना चाहिए।’ ‘मुसलमान कौम खुदा से डरने वाली पापभीरू कौम है। वे अपने उनके मजहब के अनुसार व्यवहार करते हैं।’ ‘हिन्दू—मुस्लिम एकता के लिए कोई भी शर्त ना लगाई जाए।’ हिंदू-मुसलमान एकता की ऐसी चर्चा सुनकर उस समय डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने बेहद कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी-‘जिसकी बुद्धि स्थिर होगी, क्या ऐसा कोई भी व्यक्ति हिंदू-मुसलमान एकता के लिए इतने निम्न स्तर तक जाएगा?’
मुसलमान एक कौम (जमात) है और हिंदू एक कौम, यही उसका अर्थ हुआ। सनातन सत्य पर दृढ़ विश्वास रखने वाला व्यक्ति यानी हिंदू है, उससे यह अर्थ प्रकट नहीं होता। सनातन के संस्कार तो उपनिषद् के ऐसे सूत्रों को मानते हैं—
1. इदं सर्वखलु ब्रह्मं
2. अखंड मंडलाकारम् व्याप्तं येन चराचरम्
3. ईशावास्यीम् इदं सर्वम् यत्किंचत जगत्याम जगत
4. तत्वमसि
5. एकं सत विप्रा: बहुधा वदंति।
कांग्रेस में नेताजी सुभाष चंद्र बोस, योगी अरविंद आदि मनीषियों के विचारों का कोई महत्व नहीं बचा था। नेताजी कहते हैं, ‘भारतीय संस्कृति में ऐसा कुछ है जो विश्व मानव के लिए बहुत आवश्यक है और उसे ग्रहण किए बिना विश्व सभ्यता वास्तविक उन्नति नहीं पा सकती। इसलिए भारत को स्वतंत्र होना है।’ महर्षि अरविंद कहते हैं, ‘‘सिर्फ भारत के नेतृत्व में ही विश्व शांति और नई वैश्विक व्यवस्था प्राप्त कर सकता है।” एकम् सत विप्रा: बहुधा वदंति, यह सनातन सत्य विश्व को शांति की ओर और नई विश्व रचना की ओर ले जाएगा। यदि हिंसा मुक्त तथा अहिंसायुक्त विश्व चाहिए तो यह सत्य मानव समाज में स्थापित होना आवश्यक है।’’ यह हिंदू कर सकता है या मुसलमान? परंतु भारत में हिंदू केवल एक ‘कौम’ के रूप में ही जीने को विवश रहा। हमेशा मुसलमान का संदर्भ देकर ही हिंदुओं का विचार होने लगा।
अखिल भारतीय कांग्रेस ने 1931 में ध्वज निश्चित करने के लिए एक समिति स्थापित की। इसमें सरदार पटेल, पंडित जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, मास्टर तारा सिंह, डॉक्टर पट्टाभि सीतारामैय्या, आचार्य काका कालेलकर, डॉक्टर ना.सु. हार्डीकर थे। उस समिति ने निर्णय किया कि हिंदुस्थान की परंपरा एवं संस्कृति को ध्यान में रखकर ध्वज एक रंग का यानी केसरी (भगवा) होना चाहिए। इस निर्णय की पुष्टि हेतु उन्होंने यह स्पष्टीकरण दिया-‘‘हिंद के सभी लोगों का एक साथ उल्लेख करना हो तो सर्वाधिक मान्य रंग केसरी है। अन्य रंगों की अपेक्षा यह अधिक स्वतंत्र है इसलिए देश को पूर्व परंपरा से जोड़ता लगता है।’’ पर हिंदू ‘कौम’ एवं मुसलमान कौम जैसे विचार से ही भगवा केवल हिंदुओं का रंग मान लिया गया।
ध्वज समिति द्वारा प्रस्तावित केसरी ध्वज देश के ध्वज के रूप में यदि महात्मा गांधी ने मान्य किया होता तो देश का हिंदू-मुसलमान में विभाजन नहीं हुआ होता। एकं सत विप्रा: बहुधा वदंति’ का त्रिकाल बाधित सत्य मुसलमानों ने भी व्यवहार में स्वीकार किया होता। भारत विश्व का मार्गदर्शक बन गया होता। विभाजन के बाद बहुत से मुसलमानों ने पाकिस्तान न जाकर भारत में रहना तय किया। फिर भी विभाजन के दौरान एक ‘मुस्लिम मानसिकता’ तैयार हुई। भारत एक दृष्टि से पंगु हो गया और सीना तानकर विश्व को एकता का संदेश नहीं दे पाया। गांधी जी के समक्ष डॉक्टर हेडगेवार ने यह शंका रखी थी कि ‘केवल हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर देने के कारण मुसलमान में अपने को ‘विशेष’ मानने की भावना उत्पन्न होगी तथा अलगाववादी मानसिकता तैयार होगी।’
स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से ही ऐसा वातावरण बनाया गया कि स्वतंत्रता की अपेक्षा ‘हिंदू-मुसलमान एकता’ का विषय ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। कथा-कीर्तन, साहित्य-कविता इत्यादि में हिंदू शब्द का प्रयोग करना जैसे ‘पाप’ माना जाने लगा। मुझे कुछ भी कह लीजिए परंतु हिंदू मत कहिए, ऐसा कहने में गौरव महसूस होने लगा। मैं हिंदू नहीं, मानव हूं, ऐसा कहने का फैशन बढ़ने लगा। डॉक्टर जी को महसूस हुआ कि हिंदू शब्द जनमानस के स्मृति पटल से गायब हो गया तो स्वतंत्र भारत की भयग्रस्त स्थिति उत्पन्न होगी। ‘स्मृति भ्रंशात बुद्धिनाश: बुद्धिनाशात प्रणश्यति’। गीता के इस वचन के अनुसार, हिंदू समाज की ऐसी स्थिति ना हो, उन्होंने इसका गहन चिंतन किया होगा। उन्होंने हिंदुत्व का एहसास कराने वाला और उसका वर्धन करने वाला, एक मौन पद्धति से चलने वाला काम प्रारंभ किया। इसमें उनका स्वतंत्रता सेनानी के रूप में असाधारण व्यक्तित्व झलकता है। उनका वही काम वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में जाना जाता है।
संघ यानी एक घंटे की शाखा। पहले दिन से भगवा ध्वज लगाने, ध्वज को सबके द्वारा प्रणाम करने, बाद में शाखा के कार्यक्रम करने की पद्धति रही। धीरे धीरे अनुभव हुआ कि केवल भगवा ध्वज के दर्शन से हिंदुत्व का एहसास होता है। भगवा ध्वज के साथ शाखाओं की संख्या लगातार बढ़ने लगी। डॉक्अर जी ने समाज के गणमान्यजन को शाखा में निमंत्रित कर संघ शाखा दिखाने का कार्यक्रम शुरू किया। वर्तमान में देश में 80 हजार से अधिक स्थानों पर भगवा ध्वज लगाकर शाखाएं चलती हैं।
संघ शाखा की पहचान ही भगवा ध्वज से होती है। विश्व में कहीं भी संघ शाखा हो, वहां भगवा ध्वज दिखेगा ही। आज अपने आपको हिंदू कहने में लज्जा ना महसूस करके खुद को हिंदू कहने का गौरव होने लगा है। आज हिंदू गौरव के साथ काम करने वाली सैकड़ों संस्थाएं कार्यरत हैं। ऐसी संस्थाओं में महिलाएं बड़े पैमाने पर सक्रिय हैं। संघ का प्रयत्न है कि हिंदू होने का बोध सभी वर्गोें में हो। जंगल, पहाड़ों में रहने वाले वनवासी बंधु हों, समुद्र के किनारे रहने वाले मत्स्य पालक हों, जिनके घर बार नहीं, ऐसी घुमंतू जातियां हों, सभी जगह संघ शाखा पहुंचाने के प्रयत्न चल रहे हैं। जैस-जैसे हिंदू होने का एहसास जाग्रत होगा वैसे-वैसे विचारों के बादल छंटते जाएंगे। संघ की शाखा यानी हिंदुत्व का बोध कराने वाला स्थान। धन्य है वह भारत माता जिसने केशव बलिराम हेडगेवार जैसे नररत्न को जन्म दिया।
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