गुजरात

साबरमती संवाद-3: उद्यमिता पर बोले EDII के महानिदेशक सुनील शुक्ला-देश में आई नई चेतना, वर्तमान में 160000 स्टार्टअप्स

आकंड़ों के हिसाब से देखें तो अमेरिका और चीन के बाद हम तीसरे नंबर पर हैं। युवाओं को इसका श्रेय जाता है। सरकार की नीतियों को भी इसका श्रेय जाता है, क्योंकि सरकार ने ऐसी नीतियां बनाई हैं।

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Kuldeep singh

गुजरात के अहमदाबाद में हो रहे पॉञ्चजन्य के साबरमती संवाद-3 प्रगति की गाथा कार्यक्रम में EDII के महानिदेशक डॉ सुनील शुक्ला ने ‘प्रगति का पहिया: प्रशिक्षण’ विषय पर पत्रकार अनुराग पुनेठा के साथ बातचीत की।

आंत्रप्रन्योरशिप के क्षेत्र में एक संस्था के हेड के तौर पर आपके क्या अनुभव हैं कि जो छात्र आए हैं उनमें कुछ नया है?

एक संस्था के तौर पर मेरा अनुभव सकारात्मक है। मैं खुशी के साथ ये कह सकता हूं कि देश में एक अभूतपूर्व चेतना आई है। आंकड़ों के हिसाब से देखें तो 2016 में स्टार्टअप एक्शन प्लान अनवेल किया था पीएम नरेंद्र मोदी ने। उस दौरान हमारे पास केवल 450 स्टार्टअप हुआ करते थे, जो अभी 1,60,000 DPII रजिस्टर्ड स्टार्टअप्स हैं। इन्हें बढ़ाने में ज्यादातर टेक्नोलॉजी बिजनेस इनक्युबेशन हर लर्निंग संस्थान में स्थापित हैं। उनकी संख्या करीब-करीब 50 या उससे कम होती थी। लेकिन, आज अगर आप देखेंगे तो ये संख्या 1500-2000 के बीच है। वहीं यूनिकॉर्न का तो शाय़द हम लोगों को अर्थ ही नहीं पता रहा होगा, लेकिन कोविड के बाद ये अधिक प्रचलन में आया। कोरोना के आने तक हमारे पास केवल 30-32 से यूनिकॉर्न थे, जिनकी वैल्युएशन एक बिलियन डॉलर से ज्यादा थी। लेकिन काफी सारी चीजें बदली हैं।

हम लोग एक प्रोग्राम करते हैं फैकल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम, मुझे याद है इसे हम 15-20 साल पहले जब करते थे तो उसमें करीब 20 लोग होते थे, लेकिन सही चयन उतने में नहीं हो पाता था। लेकिन आज हम लोग यही प्रोग्राम करीब 20 बार करते हैं। आज स्थिति ये है कि लोग अपना पैसा लगाकर भी इस प्रोग्राम में आना चाहते हैं। ये जो सकारात्मक चेतना आई है, उसका प्रभाव देखने को मिल रहा है।

एक नारा चल रहा है कि हम नौकरी करने वाले नहीं, बल्कि देने वाले बने हैं? क्या आपको लगता है कि ये सोच में बदलाव युवाओं में है?

मेरा इसके बारे में सोचना बहुत ही पॉजिटिव है। मैं ये देखता हूं कि छात्रों में ये चेतना आई है कि हमें पढ़ाई के अलावा कुछ और भी करना चाहिए। अभी तक परंपरागत कैरियर थे कि हमें डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक अतवा सिविल सर्वेंट बनना है, लेकिन इसके अलावा भी कुछ नए कैरिए रुज्ञान में आए हैं। अब छात्रों के अंदर कहीं न कहीं ये सोच जन्म ले रही है कि हमें कुछ ऐसा करना चाहिए, ताकि हम देश,समाज और लोगों के लिए कुछ कर सकें। यही कारण है कि आज बहुत सारे स्टार्टअप्स निकल रहे हैं। खास बात ये है कि इनमें ऐसे स्टार्टअप्स भी हैं, जो कि पूरी तरह से नॉन कन्वेंशनल फील्ड से हैं। एक भ्रांति है कि स्टार्टअप ज्यादा टेक्निकल होते हैं, लेकिन नैसकॉम की रिपोर्ट है कि 50 प्रतिशत स्टार्टअप्स नॉन टेक्निकल हैं। हम देश में कई राज्यों में उद्यमिता को लेकर कार्यक्रम कर रहे हैं और मेरा ये मानना है कि इसमें लगातार युवाओं की हिस्सेदारी बढ़ रही है।

गुजरात सरकार की बात करें तो ये सरकार सीट फंड अलॉट करती है, साथ ही अपने आइडिया लाने वाले छात्रों को प्रोत्साहित भी करती है। एसएसआईपी नाम का एक स्टार्टअप है, उसका रोल है। पूरे देश में ऐसा माहौल नहीं है, लेकिन सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं।

स्टार्टअप्स को करने में हम दुनिया में नंबर-3 पर हैं। क्या इस बारे में कुछ किया जाना अभी भी बाकी है?

आकंड़ों के हिसाब से देखें तो अमेरिका और चीन के बाद हम तीसरे नंबर पर हैं। युवाओं को इसका श्रेय जाता है। सरकार की नीतियों को भी इसका श्रेय जाता है, क्योंकि सरकार ने ऐसी नीतियां बनाई हैं। स्टार्टअप इंडिया तो हम लोगों ने काफी प्रमोट किया है। इन सब के अलावा भी कई और स्टार्टअप हैं। स्टार्टअप्स के बंद होने पर बात करते हुए सुनील शुक्ला कहते हैं कि यद्यपि ये संख्या करीब 75-80 फीसदी है। इतना नहीं होना चाहिए। हमारी संस्था ने भारत सरकार के विज्ञान और तकनीकी मंत्रालय के लिए एक स्टडी की। हम लोग करीब 110 से अधिक इन्क्यूबेशन सेंटर गए हम लोग। उन सेंटरों के मैनेजर और कर्मियों से मिल जुलकर हमने देखा, जिसमें कई सारी चीजें पता चलीं।

कुछ ऐसे इनक्युबेशन सेंटर्स थे, जिसमें तकनीकी के अलावा आंत्रप्रन्योरियल इनक्युबेशन भी दिया गया। ताकि आप बाजार को अच्छे समझ सकें और आइडिया और एंटरप्राइज के बीच के अंतर को समझ सकें। अपने रिसर्च में हमें पता चला कि जिन इनक्युबेशन सेंटर्स ने उपरोक्त सुविधाएं प्रदान की, वहां का स्टार्टअप सफल रहा।

क्या इस दिशा में सोच नहीं है या फिर लोगों को पता नहीं है?

एक संस्थान के तौर पर मैं ये कह सकता हूं कि गुजरात में इंडस्ट्री मेंटर्स हैं। हम खुद को खुशकिस्मत मानते हैं कि ईडीआईआई गुजरात में है, अगर ये यहां नहीं होता तो शायद हम वो कार्य नहीं कर पाते, जो आज हम कर पा रहे हैं। यहां उसके लिए पर्यावरण तैयार है। यहां के समाज में जो वैल्यु है उसका लाभ भी हमें मिला। यहां के लोगों में ये मानसिकता भरी हुई है कि नौकरी का मतलब है गुलामी। लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में ऐसा नहीं है। वहां नौकरी को प्राथमिकता दी जाती है। मैं कहता हूं कि इंडस्ट्री और एकेडमिया को साथ आना चाहिए और सरकार को फैसिलिटेटर की भूमिका अदा करनी चाहिए। अगर ये हम कर पाए तो बदलाव आएगा।

भारत में ग्रामीण लेवल पर जो उद्यमिता है, क्या उस स्तर पर इस तरह के स्टार्टअप्स की परिकल्पना की जा सकती है?

पहले तो स्टार्टअप को समझें तो इसका सीधा अर्थ ये है कि कोई भी नया व्यवसाय अगर हम शुरू करते हैं तो वो एक तरह का स्टार्टअप है। लेकिन, स्टार्टअप इंडिया की जो परिभाषा है डीपीआईआईटी की वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय की है उसके तहत आने वाले जो अनुदान हैं, बहुत सारे लाभ हैं, उनको क्लेम करने के लिए एक एलिजिबिलिटी पैरामीटर्स परिभाषित किए गए हैं। जैसे 10 साल से पुराना नहीं होना चाहिए, टैक्स सेवी होना चाहिए, स्केलेबल होना चाहिए, उसका टर्नओवर पिछले 10 वर्षों में 100 करोड़ से अधिक नहीं होना चाहिए। केंद्र सरकार अपने विभिन्न विभागों के माध्यम से इस दिशा में काम कर रही है।

2047 तक अगर भारत को विकसित देश बनना है तो क्या आपको लगता है कि उद्यमिता उसमें एक विस्तृत भूमिका निभाएगी?

बहुत सारे क्षेत्र हैं, जिनमें हमें आगे बढ़ने की आवश्यकता है और उद्यमिता उनमें से एक है। 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनना है तो 6-7 प्रतिशत की इकोनॉमिक ग्रोथ हमारे लिए पर्याप्त नहीं होगी। हमको डिबल डिजिट की वृद्धि दिखानी है और ऐसा हम पहले भी कर चुके हैं। उसके लिए तैयारी चल रही है। उद्यमिता को ब्रॉड बेस करना पड़ेगा और आधी आबादी को एनकरेज करना पड़ेगा। साथी वनवासी क्षेत्रों, जहां परंपरागत ज्ञान संचित रखा हुआ है उसका लाभ हम कैसे ले सकते हैं। उद्यमिता के प्रशिक्षण की शुरुआत गुजरात से ही हुई थी। 1969 में पहली बार जीआईडीसी ने उद्यमिता की ट्रेनिंग करवाई थी। वो कार्यक्रम आज एक मुहिम बना हुआ है। हर राज्य इस पर फोकस कर रहा है। 2003 में वाइब्रेंट गुजरात ग्लोबल इन्वेस्टर समिट गुजरात में हुई थी। आज उसी की तर्ज पर लगभग हर राज्य वैसी ही समिट कर रहा है।

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