देहरादून: उत्तराखंड की वन संपति को हर साल करोड़ों का नुकसान देने वाली जंगल की आग पर काबू पाने के लिए वन विभाग के पास आज भी कोई ठोस योजना नहीं है। वन अधिकारी, ग्रीष्म मौसम में लगने वाली आग को, बारिश से बुझने का इंतजार करते हुए वक्त बिता देते हैं।
उत्तराखंड में आग को बुझाने के लिए कोई गंभीर प्रयास हो रहे हो, इस पर कई तरह के सवाल उठते रहे हैं। एक टहनी झाड़ लेकर जंगल की आग बुझाने वाले संविदा कर्मियों के पास अग्नि रोधक वर्दी तक नहीं है। जबकि, जंगल में तुरंत आग न फैले इसके लिए कई अत्याधुनिक संयंत्र भी बाजार में आ चुके हैं, किंतु उस ओर किसी ने जानने या खरीदने का प्रयास भी नहीं किया। इस साल अभी गर्मियां शुरू भी नहीं हुई और पहाड़ों में जंगल की आग लगने की घटनाएं सामने आने लगी हैं। मौसम विभाग का भी ये कहना है कि ये 2025 साल भीषण गर्मी वाला साल रहने वाला है।
पिछले दस सालों में हर साल लगभग दो हजार हेक्टेयर जंगल आग की चपेट में स्वाहा हो चुका है। कोरोना काल वर्ष में केवल 172.69 हेक्टेयर जंगल को नुकसान हुआ। यानि ये स्पष्ट है कि जंगल में आग लगने का कारण प्राकृतिक नहीं मानवीय है।
ऐसा भी माना जाता है कि वन तस्कर ही आग लगाते हैं ताकि उनकी चोरी छुप जाए, इनमें कुछ भ्रष्ट विभागीय अधिकारी भी शामिल रहते हैं। लकड़ी चोरी, लीसा चोरी जड़ी बूटी तस्करी करने वाले गिरोह इसमें शामिल रहते हैं।
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फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने उत्तराखंड में 21033 जंगल आग की घटनाएं रिकार्ड की है जो कि देश में सबसे ज्यादा है।
पिछले दस सालों में उत्तराखंड वन विभाग 15294 हेक्टेयर जंगल की आग में प्रभावित होने की बात कह रहा है।
जबकि, फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया और अन्य उपग्रह आधारित पर्यावरण एजेंसियां अपने अलग दावे करते हुए ये संख्या अधिक बताती रही हैं। पिछले दस वर्षों में 28 लोगों की मौत, जंगल की आग से हुई। जिनमें पिछले साल ही 11 व्यक्तियों का आंकड़ा भी शामिल है। इसमें वन विभाग के कर्मचारी भी शामिल है, जिनकी अल्मोड़ा जिले में दर्दनाक मौत हुई थी। जंगल में आग से घायलों की संख्या 82 बताई गई है।
2016 में 4433.75 हेक्टेयर जंगल में आग लगी जो कि पिछले दस सालों में सबसे अधिक बताई गई है। पहाड़ों की भौगोलिक स्थितियां ऐसी है कि वन अग्नि रोकने के लिए मानवीय प्रयास नाकाफी है। जब-जब आग ने भीषण रूप लिया है तब-तब दिल्ली में पीएमओ और वन मंत्रालय सक्रिय हुआ है और यहां सेना के हेलीकॉप्टरों की मदद भी ली गई, लेकिन जंगल की आग हेलीकॉप्टर की हवा से और अधिक फैलने का भय रहता है। इसलिए इसका प्रयोग केवल एक इवेंट प्रयास भर के लिए रह जाता है।
हाल ही में विदेशों में लगी जंगल की आग को बुझाने के लिए कई नए-नए उपकरणों और गैस के इस्तेमाल के साथ प्रयास हुए हैं जिन्हें उत्तराखंड में भी आजमाए जाने की जरूरत है। लेकिन यहां वन विभाग ऐसे नव प्रयासों को लेकर कितना संजीदा है ये इस बात से पता चलता है कि जंगल की आग को बुझाने के लिए कोई भी नोडल अधिकारी तैनात नहीं है। आई एफ एस निशांत वर्मा को ये चार्ज कभी दिया जाता है तो कभी हटा लिया जाता है। श्री वर्मा के पास अन्य महत्वपूर्ण विभागों के भी दायित्व हैं। जबकि वन अग्नि की रोकथाम के लिए फुल टाइम अधिकारी की जरूरत है। हाल तो ये है कि आग पर निगरानी रखने के लिए कोई सैटलाइट कंट्रोल रूम तक नहीं है।
वन विभाग के अधिकारी बंद कमरों में बैठके करते हैं और फिर पुराने ढर्रे पर अग्नि काबू पाने की योजना शुरू हो जाती है।
जन सहभागिता, वन पंचायतें, ग्राम पंचायतें आग बुझाने के लिए केवल बैठकें करती है और उन्हें केवल बजट से मतलब रह जाता है। जंगल की आग से न केवल वन संपदा नष्ट हो रही है, बल्कि वन्य जीव जंतु भी बेघर हो रहे हैं। इसका असर हिमालय के बर्फीली क्षेत्र में काली कार्बन की परत के रूप में भी देखी जा रही है, यहां आने वाला पर्यटक, तीर्थयात्री भी आग का भयावह रूप, मीडिया में देख कर नहीं आता जिसका, सीधा असर उत्तराखंड की आर्थिकी पर भी पड़ रहा है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट कहती है कि पिछले साल कॉर्बेट टाइगर रिजर्व जैसे आरक्षित वन क्षेत्र में चार से पांच दिनों तक आग लगी रही।
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मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से लेकर मुख्य सचिव, वन सचिव जंगल की आग पर काबू पाने के संदर्भ में कई बैठके इस साल में कर चुके हैं। हर बैठक में वही पुराना योजनाएं, जिसे नए रूप में ढाल कर प्रस्तुत कर दिया जाता है। दशकों से चीड़ को आग का सबसे बड़ा कारण बताया जाता रहा है, लेकिन चीड़ को हटाने उसके स्थान पर नई प्रजातियों के पेड़ लगाने की कोई ठोस योजना विभाग के पास नहीं है।
वन मंत्री सुबोध उनियाल कहते हैं कि जंगल में आग लगने पर क्षेत्र के वन अधिकारी, डीएफओ की जवाब देही तय की जाएगी। सवाल ये है कि अबतक ये जवाब देही क्यों नहीं तय की गई?
वन विभाग के प्रमुख पीसीसीएफ डॉ धनंजय मोहन का कहना है कि जंगल की आग पर नियंत्रण के लिए जन सहभागिता जरूरी है इसके लिए ग्राम वासियों को जंगल की आग पर काबू पाने के लिए जागरूक करने का अभियान शुरू किया गया है और जंगल किनारे प्रचार प्रसार किया जा रहा है कि आग लगने पर क्या करें! उन्होंने कहा कि चीड़ के पत्तों को एकत्र करने और उन्हें वन विभाग को बेच दिए जाने का अभियान भी शुरू किया जा रहा है।
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