इन दिनों काम के घंटों को लेकर भारत ही नहीं, दुनिया भर में बहस छिड़ी हुई है। इन्फोसिस के सह-संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति बराबर कहते रहे हैं कि युवाओं को हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहिए, यानी दिन में 14 घंटे काम। इसके बाद एल एंड टी के सीईओ-एमडी एसएन सुब्रह्मण्यन ने एक वीडियो में कर्मचारियों के सप्ताह में 90 घंटे काम करने की बात कही। उधर, अमेरिका में टेस्ला के सीईओ एलन मस्क ने 120 घंटे का कार्य सप्ताह सुझाया है। उनके अनुसार अमेरिकी सरकार के सरकारी दक्षता विभाग के कर्मचारी सप्ताह में 120 घंटे (सप्ताहांत को छोड़कर) प्रतिदिन 17 घंटे या लगातार पांच दिन तक 24 घंटे काम करते हैं। उन्हें सोने के लिए भी समय नहीं मिलता।
सच है कि भारत में कार्य संस्कृति लगातार बदल रही है, लेकिन यह भी सच है कि काम का अत्यधिक दबाव कर्मचारियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रहा है। विशेषकर आईटी, स्टार्टअप, हेल्थकेयर, सेवा उद्योग व कॉर्पोरेट कर्मचारियों को लंबे समय तक डेस्क पर काम करना पड़ता है। इसलिए कंपनियों को कार्य-जीवन में संतुलन और लचीले ‘वर्किंग मॉडल’ को अपनाने की आवश्यकता है। इनसान न तो मशीन बन सकता है और न ही उसे मशीन बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। मशीन भी लगातार कुछ घंटे ही काम कर सकती है। इसके बाद उसे भी आराम दिया जाता है। काम के अधिक घंटों को लेकर जारी बहस के बीच सवाल उठता है कि क्या मनुष्य सिर्फ संसाधन है? कर्मचारियों को सिर्फ संसाधन के रूप में देखने से उनके मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य पर क्या नकारात्मक असर नहीं पड़ेगा? क्या कर्मचारियों का कार्य-जीवन का संतुलन नहीं बिगड़ेगा? क्या लचीले कार्य विकल्प से प्रतिभा को आकर्षित नहीं किया जा सकता?
एक खरब डॉलर का नुकसान
भले ही काम के अधिक घंटों को बेहतर उत्पादकता का पैमाना समझा जाता हो, लेकिन भारत में काम के घंटों को लेकर कुछ नियम और कायदे हैं। इन नियमों के अनुसार सप्ताह में व्यक्ति से तय घंटों से अधिक काम नहीं लिया जा सकता। गत दिनों बजट प्रस्तुत करने से पहले केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट 2024-25 प्रस्तुत की थी। इसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि अत्यधिक काम करने से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान हो सकता है। सप्ताह में 60 घंटे से अधिक काम करने से एक व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है। आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट में पेगा एफ और नफ्राडी बी के 2021 के एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहा गया है कि 55-60 घंटे से अधिक काम करने से स्ट्रोक, दिल की बीमारियां और मानसिक तनाव का खतरा बढ़ जाता है। सैपियन लैब्स सेंटर फॉर ह्यूमन ब्रेन एंड माइंड के अध्ययन का हवाला देते हुए कहा गया है कि डेस्क पर 12 घंटों से अधिक समय तक बैठने वाले कर्मचारियों को मानसिक और स्वास्थ्य संबंधी अन्य समस्याएं हो सकती हैं। उनमें अनिद्रा, तनाव और अवसाद जैसी समस्याएं बढ़ सकती हैं।
आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट में डब्ल्यूएचओ के अध्ययन के हवाले से बताया गया है कि दुनियाभर में हर वर्ष अवसाद और तनाव के कारण 12 अरब दिवस प्रभावित होते हैं,जिससे एक खरब डॉलर का नुकसान होता है। जो लोग अल्ट्रा-प्रोसेस्ड या डिब्बा बंद खाद्यों का उपभोग कम करते हैं, व्यायाम करते हैं और सोशल मीडिया पर कम समय बिताते हैं या परिवार के साथ रहते हैं, उनका मानसिक स्वास्थ्य दूसरों से बेहतर होता है। इसके विपरीत, जो लोग पूरी तरह मशीन की तरह काम (कार्यालय से या हाइब्रिड) करते हैं, उनका मानसिक स्वास्थ्य अपेक्षाकृत कमजोर होता है। आर्थिक सर्वेक्षण में फ्लेक्सिबल वर्किंग आवर्स लागू करने, वर्क-लाइफ बैलेंस को प्राथमिकता देने, सप्ताह में 4 दिन कार्य व हाइब्रिड मॉडल अपनाने तथा मेंटल हेल्थ सपोर्ट और ब्रेक कल्चर को बढ़ावा देने जैसे समाधान सुझाए गए हैं।
रचनात्मकता के लिए शांत मन जरूरी
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लखनऊ स्थित भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (ट्रिपल आईटी) के निदेशक डॉ. अरुण मोहन शेरी कहते हैं, ‘‘काम के घंटों को लेकर जो बहस चल रही है, वह निरर्थक है। हर व्यक्ति की अपनी क्षमता होती है। किसी को बांधकर काम नहीं कराया जा सकता। मैं जब आईआईआईटी का निदेशक बना, तब यहां सुबह 9 से 5 बजे तक कक्षाएं चलती थीं। हमने छात्रों के विकास तथा उन्हें अधिक रचनात्मक बनाने के लिए चार घंटे कक्षाएं चलाने का नियम बनाया। इसके बाद प्रयोगशाला हो या कक्षा, दिन में चार घंटे से अधिक कोई छात्र नहीं बिताएगा। इसके बाद छात्र अपनी सहूलियत से ग्रुप डिस्कशन, आपसी बातचीत और प्रोजेक्ट पर काम करेंगे। इस फैसले से छात्रों और प्राध्यापकों को लाभ हुआ। छात्रों का बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में अच्छे पैकेज पर चयन हुआ।
प्राध्यापकों का शिक्षण कौशल निखरा। पहले जितने शोध होते थे, अब यहां उससे दोगुने शोध किए जा रहे हैं। यदि आप किसी भी रचनात्मक क्षेत्र में हैं, तो दिन में चार घंटे से अधिक अपनी पूरी रचनात्मकता का प्रयोग नहीं कर सकते। इसके बाद आप काम तो करेंगे, लेकिन परिणाम उतने बेहतर नहीं दे पाएंगे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि काम को प्राथमिकता ही नहीं दी जाए। काम को प्राथमिकता देना जरूरी है, लेकिन काम केवल खानापूर्ति के लिए नहीं, बल्कि बेहतर ढंग से करना होगा। व्यक्तिगत तौर पर मैं सप्ताह में पांच दिन से अधिक काम करने की वकालत नहीं करता। जो लोग नेतृत्व की भूमिका में हैं, उन्हें अपनी बातें थोपनी नहीं चाहिए।’’
उन्होंने सेना का उदाहरण देते हुए बताया, ‘‘हम सैन्य प्रशिक्षण देकर कमांडो तैयार करते हैं। जवानों को विषम परिस्थितियों जैसे दबाव और मुश्किल समय में टिके रहने के लिए तैयार करना हमारा उद्देश्य होता है, लेकिन वह प्रशिक्षण भी कुछ समय के लिए होता है। ऐसा नहीं हो सकता कि हर समय वैसी ही स्थिति बना कर रखी जाए। शांत मन से ही बेहतर तरीके से काम किया जा सकता है। लगातार काम करने से शरीर ही नहीं, दिमाग भी थक जाता है। ऐसी स्थिति में किसी से बेहतर काम की बात तो दूर, काम भी सही ढंग से करने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
सिद्धांत और व्यवहार में अंतर
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पारंपरिक भारतीय कार्य मूल्यों ने लंबे समय से पूजा के रूप में काम की अवधारणा पर ध्यान केंद्रित किया है, जिसमें काम के घंटों की बजाए काम के उद्देश्य और समर्पण पर जोर दिया गया है। लेकिन वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारतीय कारोबारियों का एक वर्ग इस बात को लेकर असमंजस में है कि कर्मचारियों को अपनी नौकरी में कितना समय देना चाहिए।
पिछले तीन दशक से आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में लाइफ कोच, बिहेवियोरल ट्रेनिंग व साइंस आफ हैप्पीनेस जैसे विषय पढ़ा रही डॉ. अर्चना त्यागी बताती हैं, ‘‘कंपनियों में लक्ष्य सभी के लिए होते हैं, जिन्हें पूरा करना भी जरूरी होता है। लेकिन उससे भी अधिक जरूरी यह है कि लक्ष्य पूरा करने के लिए क्या तरीके अपनाएं जा रहे हैं। काम के घंटे बढ़ाने की नसीहत देना और अधिक से अधिक काम करने को लेकर सबके अपने मत हो सकते हैं, लेकिन सिद्धांत और व्यवहार में अंतर होता है। जो कहा जाता है, जरूरी नहीं वह व्यावहारिक भी हो। हर व्यक्ति की काम करने की क्षमता अलग होती है। उदाहरण के लिए, कोई सेल्स में अच्छा हो सकता है तो दूसरा आॅपरेशन्स यानी काम करने के तरीके में अधिक अच्छा हो सकता है।
दोनों के काम की तुलना नहीं की जा सकती। आप सेल्स वाले व्यक्ति को आपरेशन्स में डालेंगे और आपरेशन्स वाले को सेल्स में और फिर बेहतर परिणाम की अपेक्षा करेंगे, तो ऐसा नहीं हो सकता। हम प्रबंधन में यही सिखाने की कोशिश करते हैं कि व्यक्ति की क्षमताओं को पहचाने और उसी के अनुसार उसको काम दें।’’ डॉ. त्यागी कहती हैं कि 10 प्रतिशत लोगों को छोड़कर 90 प्रतिशत लोग अपना काम ईमानदारी से करते हैं। उन 10 प्रतिशत लोगों का खामियाजा 90 प्रतिशत लोग क्यों भुगतें? काम बेहतर हो इसके लिए आजादी और अनुशासन जरूरी है। आप लक्ष्य तय करें, लेकिन तरीका कर्मचारियों को तय करने दें। काम थोपने से कभी सकारात्मक परिणाम नहीं मिल सकते। यही कारण है कि पेशेवर युवाओं की बड़ी संख्या भारतीय कंपनियों में काम नहीं करना चाहती। जो युवा मस्तिष्क हमारे लिए बेहतर काम कर सकते थे, उन्हें हम अपने से दूर करते जा रहे हैं।
जरूरी है संवेदनशीलता
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दूसरी ओर, भारत में ही आनंद महिंद्रा जैसे कारोबारी भी हैं, जो अधिक काम की बजाए काम की गुणवत्ता पर जोर देते हैं। महिंद्रा समूह के अध्यक्ष का कहना है कि गुणवत्ता सफलता की आधारशिला है। वे उत्पादकता के लिए अधिक स्मार्ट और अधिक कुशल दृष्टिकोण अपनाने की वकालत करते हैं। बजाज आटो के प्रबंध निदेशक राजीव बजाज का भी यही मत है। 90 घंटे काम करने के मुद्दे पर वे कहते हैं कि यदि यह चलन शुरू करना है तो यह सिस्टम के सबसे ऊपर बैठे लोगों से शुरू होना चाहिए। उनके अनुसार, काम के घंटे नहीं, बल्कि काम की गुणवत्ता अधिक मायने रखती है। बजाज ने विस्तारित कार्य-घंटे की नीतियों को ‘पुरानी और प्रतिगामी’ कहकर खारिज किया है। साथ ही, यह कहा है कि दुनिया को पहले से कहीं अधिक संवेदनशील और सौम्य होने की जरूरत है। नेतृत्व की कमियों को दूर करने पर जोर देने के साथ वे कहते हैं कि अड़चन हमेशा शीर्ष पर होती है। भले ही कोई व्यक्ति सप्ताह में 70 या 90 घंटे काम करता हो, लेकिन उसे इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।
पिछले 35 वर्ष से प्रबंधन के छात्रों को संगठनात्मक व्यवहार और मानव संसाधन प्रबंधन पढ़ा रहे आईआईएम रायपुर के प्रोफेसर के.के जैन कहते हैं, ‘‘कितने ही छात्र ऐसे हैं, जो बड़े उद्यम चला रहे हैं। उन्हें हमने यही सिखाया कि अपने मानव संसाधन, जो आपकी कंपनी को आगे बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं, उन्हें साथ लेकर चलें। उनकी प्राथमिकताओं को समझना जरूरी है। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो आप कभी उद्यमिता क्षेत्र में शीर्ष पर नहीं पहुंच सकते। ये जो काम के घंटों को लेकर बहस चली है, उसका कोई मतलब नहीं है। वर्तमान समय की मांग ‘हार्डवर्क’ नहीं, बल्कि ‘स्मार्ट वर्क’ की है। किसी भी सूरत में एक व्यक्ति से आठ घंटे से अधिक काम लेना उसके स्वास्थ्य और काम की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ है। आईटी और अन्य रचनात्मक कामों में तो खासकर दबाव देने से काम प्रभावित होता है।
फ्रैंकफर्ट (जर्मनी) की एक बड़ी कंपनी के भारतीय मूल के सीईओ देबिजीत डी. चौधरी से मैंने पूछा कि आपके यहां लोग सप्ताह में 40 से 42 घंटे काम करते हैं, ऐसे में आपके यहां गुणवत्ता कैसी है? तब उन्होंने बताया कि उनके यहां गुणवत्ता हमारे यहां से कई गुणा अधिक है। उनकी कंपनी में भारत के बहुत से लोग काम करते हैं, जो कहीं और जाना नहीं चाहते। ऐसा इसलिए कि वहां एक बार काम शुरू होता है तो सिर्फ काम ही होता है। इसके बाद सप्ताह में दो दिन कोई काम नहीं होता।’’ प्रो. जैन इस बात पर जोर देते हैं कि स्थायी सफलता सार्थक योगदान, नवीन सोच व उत्पादकता के संतुलित दृष्टिकोण से उत्पन्न होती है, न कि काम के अधिक घंटे से।
दरअसल, काम के घंटों को लेकर बीते कुछ महीने से जो चर्चा चल रही है, वह 20वीं सदी में एफ.डब्लू. टेलर द्वारा शुरू किए गए वैज्ञानिक प्रबंधन के सिद्धांतों से जुड़ी है। वैज्ञानिक प्रबंधन ऐसा सिद्धांत है जो आर्थिक दक्षता और श्रम उत्पादकता में सुधार के लिए कार्य-प्रवाह का विश्लेषण और संश्लेषण करता है। इसमें काम का वैज्ञानिक विश्लेषण, कामगारों का वैज्ञानिक ढंग से चयन, काम का मानकीकरण (कार्य की दशा, उपकरण व कार्य पद्धति) और श्रमिकों व प्रबंधन के बीच सहयोग शामिल है।
टेलर ने वर्कफ्लो और कार्यों को मानकीकृत करके उत्पादन दक्षता पर जोर दिया, जिससे उत्पादकता अधिक से अधिक करने के लिए श्रम को शेड्यूल का पालन करने की आवश्यकता हुई। औद्योगीकरण के युग में शिफ्ट सिस्टम की शुरुआत हुई। पहले सैन्य परिचालन में तत्परता बनाए रखने के लिए सेना में चार घंटे की शिफ्ट शुरू की गई थी, जिसे बाद में उद्योगों में लागू किया गया। कारखानों में काम की भौतिक और श्रमसाध्य प्रकृति को समायोजित करने के लिए शिफ्ट को बढ़ाकर आठ घंटे किया गया। समय के साथ यह आदर्श मॉडल बन गया। इसी आधार पर आईएलओ ने श्रम अधिकारों की आधारशिला के रूप में आठ घंटे के कार्य दिवस और 48 घंटे का कार्य सप्ताह तय कर दिया।
वास्तव में कोविड-19 के समय लॉकडाउन ने कंपनियों को घर से काम करने का रास्ता सुझाया। उस समय स्थिति ऐसी थी कि लोग काम के तय घंटे से अधिक काम कर रहे थे। उन्हें दफ्तर नहीं जाना पड़ रहा था, इसलिए वे भी अधिक समय तक काम कर रहे थे। लेकिन कोरोना खत्म होने के बाद भी कार्यस्थल पूरी तरह से महामारी से पहले वाली स्थिति में नहीं आ सका है। काम के जो घंटे बढ़े थे, वे अब तक कायम हैं। जब व्यक्ति हर समय शारीरिक व मानसिक रूप से काम में उलझा रहेगा तो उसके काम की गुणवत्ता कैसी रहेगी? अत: मानव को संसाधन समझने के बजाय उसके कल्याण और विकास को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
भारत में काम की उत्पादकता दुनिया में सबसे कम है। यदि हम उत्पादकता नहीं बढ़ाते हैं तो हम बाकी देशों से प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाएंगे। हमारे युवाओं से मेरा आग्रह है कि वे कहें, भारत मेरा देश है और मैं सप्ताह में 70 घंटे काम करूंगा।
— नारायणमूर्ति, संस्थापक, इन्फोसिस
मैं नारायण मूर्ति और अन्य का बहुत सम्मान करता हूं। मुझे गलत न समझा जाए, पर मेरा मानना है कि यह बहस ही गलत दिशा में है।
— आनंद महिंद्रा, चेयरमैन, महिंद्रा समूह
अफसोस कि मैं आपको रविवार को काम करने के लिए नहीं कह सकता। यदि ऐसा कह सकता तो मैं और अधिक खुश होता, क्योंकि मैं रविवार को भी काम करता हूं। यदि आप दुनिया में ऊंचाई पर पहुंचना चाहते हैं तो आपको सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए।
— एस.एन. सुब्रह्मणयन, चेयरमैन, लार्सन एंड टुब्रो
संडे का नाम बदलकर ‘सन-ड्यूटी’ क्यों न कर दिया जाए और ‘छुट्टी’ को एक मिथकीय अवधारणा क्यों न बना दिया जाए! मैं कड़ी मेहनत और समझदारी से काम करना चाहता हूं। लेकिन जीवन को एक निरंतर कार्यालय शिफ्ट में बदल देना! यह सफलता नहीं, बल्कि बर्नआउट का नुस्खा है। वर्क -लाइफ बैलेंस वैकल्पिक नहीं है, यह जरूरी है।
— हर्ष गोयनका, चेयरमैन, आरपीजी समूह
क्या कहता है कानून?
फैक्ट्रीज एक्ट 1948 की धारा 51 में यह प्रावधान किया गया है कि किसी भी वयस्क कर्मचारी को सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम करने की न तो जरूरत है और न ही अनुमति है। इसी कानून की धारा 55 में कहा गया है कि कर्मचारी लगातार पांच घंटे से अधिक काम नहीं करेंगे। पांच घंटे काम के बाद कर्मचारियों को कम से कम एक घंटे का आराम देना जरूरी है। कानून की धारा 59 कहती है कि ओवरटाइम के लिए फैक्ट्रियों और प्रतिष्ठानों को भुगतान करना होगा। अगर कोई कर्मचारी प्रतिदिन 9 घंटे से अधिक या सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम करता है, तो ओवरटाइम के लिए वह सामान्य वेतन से दोगुना पाने का हकदार होगा। वहीं, आईटी और अन्य क्षेत्र के पेशेवर कर्मचारियों पर शॉप्स एंड एस्टेब्लिशमेंट एक्ट (दुकान और प्रतिष्ठान अधिनियम) और फैक्ट्रीज एक्ट, दोनों लागू होते हैं। दुकान और प्रतिष्ठान अधिनियम के अनुसार किसी भी कर्मचारी को एक दिन में अधिकतम 8 घंटे और एक सप्ताह में अधिकतम 48 घंटे काम करना चाहिए। अगर कोई कर्मचारी शिफ्ट में काम करता है, तो उसे हर अतिरिक्त घंटे के लिए दोगुना वेतन मिलेगा। व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य विनियम न केवल श्रमिकों की सुरक्षा करते हैं, बल्कि दक्षता और उत्पादकता भी बढ़ाते हैं।
इन्फोसिस ने 400 को निकाला
इन्फोसिस ने अपने मैसूरु कैम्पस से 400 प्रशिक्षु आईटी इंजीनियरों को निकाल दिया है। इन्हें ढाई वर्ष के लंबे इंतजार के बाद नौकरी पर रखा गया था। कंपनी का कहना है कि ये प्रशिक्षु 3 प्रयासों के बावजूद मूल्यांकन टेस्ट पास नहीं कर पाए। हालांकि, प्रशिक्षु कर्मचारियों का आरोप है कि टेस्ट बहुत कठिन थे और उन्हें फेल होने के लिए मजबूर किया गया। कई प्रशिक्षु तो सदमे से बेहोश हो गए। आरोप यह भी है कि उन्हें ‘जबरन’ काम से निकाला गया। यहां तक कि बाउंसरों और सुरक्षाकर्मियों ने प्रशिक्षु कर्मियों के मोबाइल तक छीन लिए और उनसे जबरन रिलीज एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर कराए गए। फिर तत्काल कैम्पस छोड़ने का फरमान भी सुनाया गया।
काम के बोझ का नतीजा
मनोचिकित्सकों का कहना है कि लगातार 50 घंटे से अधिक काम करने पर कर्मचारी की श्रम उत्पादकता कम हो जाती है। 55 घंटे के बाद यह और भी कम हो जाती है। यही नहीं, अधिक काम करने से मोटापा, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, तनाव, अवसाद जैसी स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। चिंताजनक बात यह है कि हृदय संबंधी समस्याओं का खतरा 60 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। इसके अलावा अधिक समय तक काम करने से काम और निजी जीवन के बीच संतुलन बिगड़ जाता है और व्यक्ति बर्नआउट सिंड्रोम का शिकार हो सकता है। वरिष्ठ मनोचिकित्सक संजीव त्यागी कहते हैं, ‘‘उत्पादकता पहले से बढ़ी है, लेकिन यह काम के घंटे बढ़ाने से नहीं, बल्कि ‘स्मार्ट वर्क’ से बढ़ी है। काम के घंटों को लेकर किए गए तमाम शोध भी यह बताते हैं कि जब आराम करने के बाद काम किया जाएगा तो गुणवत्ता बढ़ेगी। हमारे पास आने वाले अधिकतर मरीज आईटी और सेवा क्षेत्रों से जुड़े पेशेवर होते हैं। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्रों से जुड़े बहुत कम ही लोग उपचार के लिए आते हैं। अधिकतर मरीज अवसाद, अनिद्रा और बर्नआउट के शिकार होते हैं। बहुत से लोग ऐसे समय पर आते हैं, जब उनका अवसाद चरम पर होता है। यदि उनकी काउंस्लिंग सही न हो और दवाएं न दी जाएं तो वह आत्महत्या जैसे कदम तक भी उठा लेते हैं। दबाव में काम कर रहे लोगों के पारिवारिक रिश्ते भी खराब हो रहे हैं। कई बार पति और पत्नी, दोनों ही इलाज के लिए आते हैं। हमें दोनों की काउंस्लिंग करनी पड़ती है।
क्या है बर्नआउट
बर्नआउट एक सिंड्रोम है, जो कार्यस्थल पर लंबे समय तक तनाव, भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक थकान के कारण उत्पन्न होती है। जैसे-जैसे तनाव जारी रहता है, काम में रुचि या प्रेरणा कम होती जाती है। लेकिन सिंड्रोम होने के बावजूद इसे प्रभावी तरीके से प्रबंधित नहीं किया गया है। विशेषज्ञों के अनुसार, बर्नआउट सिंड्रोम अवसाद से मिलती-जुलती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे क्रोनिक कार्यस्थल तनाव के रूप में पारिभाषित करता है, जिसे सफलतापूर्वक प्रबंधित नहीं किया जा सकता। बर्नआउट सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति में व्यक्तित्व हीनता, थकावट, उदासी और तनाव महसूस करना, काम पर जाने से पहले घबराहट, काम पर जाने की प्रेरणा में कमी, आक्रामकता या हताशा प्रदर्शित करना, सिर दर्द, ऊर्जा स्तर में कमी, ठीक से नींद नहीं आना, कमजोरी, सांस लेने में कठिनाई, और मितली जैसी समस्याएं होती हैं। इससे बचने के लिए विशेषज्ञ स्वस्थ भोजन करने, बार-बार काम से ब्रेक लेने, समय का प्रबंधन करने, अवकाश लेने, कार्यस्थल पर भावनात्मक लचीलापन और सहभागिता में सुधार करने की सलाह देते हैं।
क्या कहते हैं शोध
भारत
1-बेंगलुरु स्थित राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान (ठकटऌअठर) के 2016-2018 के शोध के अनुसार, 8 घंटे से अधिक काम करने वाले लोगों में तनाव, बर्नआउट और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का जोखिम ज्यादा होता है। आईटी और सेवा क्षेत्र के कर्मचारी काम के अत्यधिक घंटों के कारण उच्च स्तर के मानसिक तनाव और थकान का अनुभव करते हैं, जिससे उनकी उत्पादकता प्रभावित होती है। कर्मचारियों में अवसाद होता है, जिसका सीधा प्रभाव काम की गुणवत्ता और उत्पादकता पर पड़ता है।
2-भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (कउटफ) ने भी 2015-2017 में काम के घंटों और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर शोध किया है। इसके अनुसार, जो लोग 9-10 घंटे से अधिक काम करते हैं, उनमें दिल की बीमारियों, उच्च रक्तचाप और मधुमेह का खतरा बढ़ जाता है। काम के अधिक घंटे के कारण शारीरिक गतिविधियों में कमी होती है, जिससे मोटापा और अन्य शारीरिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
3-एसोसिएटेड चैंबर्स आफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री आफ इंडिया (एसोचैम) ने 2019 में अपने शोध में कहा है कि कॉरपोरेट कर्मचारियों का औसत कार्य दिवस 9-10 घंटे का होता है। इसमें उनका अधिकांश समय तनावपूर्ण होता है। लंबे समय तक काम करने से न केवल कर्मचारियों की उत्पादकता प्रभावित होती है, बल्कि उनके जीवन की गुणवत्ता भी खराब होती है।
4-काम के घंटों और उत्पादकता के बीच के संबंधों पर 2014 में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री जॉन पेंसवेल कहते हैं, ‘‘काम के घंटे बढ़ाने से एक समय के बाद उत्पादकता बढ़ने के बजाए घटने लगती है। हफ्ते में 50 घंटे से अधिक काम करने पर उत्पादकता तेजी से गिरती है। साथ ही, कर्मचारियों की मानसिक थकावट और निर्णय लेने की क्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
5-हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू (2015-2016) के शोध के अनुसार, लंबे समय तक लगातार काम करने से मानसिक थकावट के कारण कर्मचारियों की कार्यक्षमता घटती है और उनकी उत्पादकता कम होती जाती है। इससे न केवल काम की गुणवत्ता प्रभावित होती है, बल्कि व्यक्ति के स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव भी पड़ते हैं, जैसे-तनाव व स्वास्थ्य संबंधी अन्य समस्याएं। कर्मचारियों की सर्वाधिक उत्पादकता दिन में 4-6 घंटे के बीच होती है।
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