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कल्पवास – कठिन कामना, अनूठी साधना

प्रयागराज में कुंभ के दौरान कल्पवास करने की परंपरा प्राचीन है। वेदों-पुराणों के अनुसार, कल्पवास से व्यक्ति का शरीर और अंत:करण शुद्ध होता है और वह आध्यत्मिक विकास की ओर बढ़ता है

by प्रो. विवेकानंद तिवारी
Feb 14, 2025, 04:41 pm IST
in भारत, उत्तर प्रदेश, संस्कृति
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कुंभ मुख्यत: प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में आयोजित होता है, लेकिन कल्पवास की परंपरा और विधान का पालन केवल प्रयागराज में ही किया जाता है। कल्पवास आध्यात्मिक विकास और अंत:करण की शुद्धि का मार्ग है। इस दौरान हर व्यक्ति को विशेष नियमों का पालन करना पड़ता है।

प्रो. विवेकानंद तिवारी
अध्यक्ष, बी.आर. आम्बेडकर पीठ, एचपीयू, शिमला

सनातन परंपरा में चार आश्रम हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास। वानप्रस्थ उन गृहस्थों के लिए जो जीवन के 50 वर्ष पूरे कर चुके हों। कल्पवास को उन्हीं के लिए निश्चित किया गया था। पुराने समय में गृहस्थ आश्रम व्यतीत कर चुके गृहस्थ अधिकांश समय वन में व्यतीत करते थे। जब व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मनोयोग से ईश्वर भक्ति करता है और निश्चित अवधि के लिए एक ही दिनचर्या अपनाता है, तो उसे कल्प कहा जाता है। ऐसी दिनचर्या प्राय: लंबी अवधि तक वाले धार्मिक अनुष्ठानों में अपनायी जाती है। कुंभ भी एक विस्तृत धार्मिक अनुष्ठान है। इसलिए कुंभ की पूरी अवधि, जो लगभग 50 दिन की होती है, में ईश्वर भक्ति करते हुए पूरे दिन हवन, मंत्र जाप, स्नान जैसी क्रियाएं की जाती हैं, इसे हीकल्पवास कहा जाता है। पौष मास की 11वीं तिथि से लेकर माघ की 12वीं तिथि तक की अवधि को कल्पवास के लिए उचित समय माना जाता है। मान्यता है कि सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के साथ शुरू होने वाले एक मास के कल्पवास से एक कल्प, जो ब्रह्मा के एक दिन के बराबर होता है, जितना पुण्य मिलता है।

कल्प के दो प्रकार हैं— संकल्प एवं विकल्प। ‘सम्’ उपसर्ग ऊर्ध्वगामिनी अंतर्मुखी गति को संकेत करता है और ‘वि’ उपसर्ग इसकी अधोगामिनी बहिर्मुखी गति को। जो व्यक्ति संकल्प लेता है, वह समाधि की ओर बढ़ता है और जो विकल्प का आधार लेता है, वह ऊहापोह से ग्रस्त होकर व्याधि का शिकार होता है। संकल्प के बिना मनुष्य दिशाहीन एवं दिग्भ्रमित हो जाता है। ‘कल्प’ शब्द ध्यान में आते ही कल्पतरु (कल्पवृक्ष) का ध्यान आता है। इसकी विशेषता यह है कि इसकी छाया में बैठकर व्यक्ति जो भी सोचता है, वह तत्काल पूर्ण हो जाता है। वस्तुत: यह कल्पतरु हमारे अंदर ही है। हमारा मन ही कल्पतरु है। यदि दृढ़ मन से कोई संकल्प किया जाए, तो वह अवश्य पूरा होता है। कल्पवास इस कल्पतरु को सींचता और बढ़ाता है।

प्रक्रिया और महत्ता

कल्पवास के दौरान श्रद्धालु कई तरह के विधानों का पालन करते हैं, जो शारीरिक और मानसिक अनुशासन का प्रतीक होते हैं। श्रद्धालु पौष पूर्णिमा से एक माह तक संगम तट पर कल्पवास के दौरान वेदाध्ययन, ध्यान और पूजा-पाठ करते हैं। कुछ लोग मकर संक्रांति से भी कल्पवास आरंभ करते हैं। कल्पवास का मुख्य उद्देश्य शारीरिक और मानसिक शुद्धता प्राप्त करना है। इसके माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन में संतुलन बनाए रखता है व ईश्वर के प्रति भक्ति को गहराई से महसूस करता है। यह व्रत न केवल धार्मिक है, बल्कि जीवन में अनुशासन और संयम की भावना को भी प्रोत्साहित करता है।

हिंदू शास्त्रों के अनुसार, कल्पवास की न्यूनतम अवधि एक रात्रि से लेकर तीन रात्रि, तीन मास, छह मास, छह वर्ष, 12 वर्ष या जीवनभर भी हो सकती है। यह एक व्यक्ति की इच्छाशक्ति और आध्यात्मिक उद्देश्य पर निर्भर करता है। मान्यता है कि कल्पवास से अंत:करण और शरीर, दोनों की शुद्धि होकर कायाकल्प होता है। कल्पवास के पहले दिन तुलसी और शालिग्राम की स्थापना और पूजन किया जाता है। कल्पवास करने वाला अपने रहने के स्थान के पास जौ के बीज रोपता है। कल्पवास की अवधि पूर्व होने पर साधक इन पौधों को अपने साथ ले जाता है, जबकि तुलसी को गंगा में प्रवाहित किया जाता है। तुलसी जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाने का प्रतीक है। इसके पूजन से ईश्वर की कृपा बनी रहती है और आत्मिक उन्नति होती है। इसके अलावा, प्रतिदिन सूर्योदय पर गंगा स्नान के पश्चात् सूर्य देव की पूजा भी जरूरी होती है।

साधना के लाभ

पुराणों में कहा गया है कि देवता भी मनुष्य का दुर्लभ जन्म लेकर प्रयाग में कल्पवास करें। महाभारत के एक प्रसंग के अनुसार, मार्कंडेय ऋषि युधिष्ठिर से कहते हैं कि प्रयाग तीर्थ सब पापों को नाश करने वाला है और जो एक माह तक इंद्रियों को वश में करके संगम में स्नान करता है, उसे एक कल्प स्नान का फल मिलता है। इसलिए कुंभ के दौरान कल्पवास का महत्व और बढ़ जाता है।

कल्पवास के अनेक लाभ बताए गए हैं। इस साधना से भगवान विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त होती है तथा जीवन में सुख-समृद्धि व सौभाग्य का निवास होता है। साथ ही, इच्छित फल की प्राप्ति के साथ जन्म-जन्मांतर के बंधनों से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति होती है। महाभारत के अनुसार, 100 वर्ष तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या करने से जितना पुण्य मिलता है, उसके बराबर पुण्य माघ मास में कल्पवास करने से प्राप्त होता है। कल्पवास से श्रद्धालु को सभी पापों से मुक्ति मिलने के साथ कई आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होते हैं। माना जाता है कि कल्पवास करने वाला व्यक्ति अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है और उसे मनोबल व आंतरिक शक्ति मिलती है। साथ ही, माघ मास में संगम तट पर स्नान करने से व्यक्ति को पुण्य की प्राप्ति होती है। कल्पवास न केवल सामान्य श्रद्धालुओं के लिए, बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। 1954 में भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने प्रयागराज में कुंभ मेले के दौरान कल्पवास किया था। उनके लिए विशेष रूप से किले की छत पर एक शिविर बनाया गया था। यह स्थान अब ‘प्रेसिडेंट व्यू’ के नाम से जाना जाता है।

शास्त्रीय विधान

पुराणों में तीर्थराज प्रयाग में निवास करने का विशेष पुण्य बताया गया है। इस पवित्र तीर्थभूमि में निवास करने को पितरों को तारने वाला, सभी प्रकार के पापों का नाश करने वाला तथा भवसागर से पार कराने वाला कहा गया है-
पितृणां तारकं चैव सर्वपापप्रणाशनम्।
यै: प्रयागे कृतोवास उत्तीणों भवसागर।।
इस स्थान के वास का इतना अधिक महत्व है कि देवताओं को भी यहां निवास करने में गर्व होता है-
तत्र देवो महादेवो रुद्रोऽवात्सीन्नरेश्वर।
समास्ते भगवान् ब्रह्मा स्वयम्भू सह देवतै:।।
देवों के समान वसिष्ठादि तपस्वियों को भी प्रयागवास अत्यंत प्रिय रहा है-
प्रयागं तीर्थमाश्रित्य वैकुण्ठं यान्ति तेऽचिरात्।
ये वसिष्ठादयस्तत्र ऋषय: सनकादय:।।
तेऽपि प्रयागराजं तीर्थं सेवन्ते च पुन: पुन:।
यत्र विश्णुश्च रुद्रश्च यत्रेन्द्रश्च तथा पुन:।।
तेऽपि सर्वे वसन्तीह प्रयागे तीर्थसत्तमे। (पद्मपुराण)
मानव जीवन की सार्थकता मानवता में है। यह सार्थकता सदाचार से आती है और सदाचार ही मानव जीवन का शृंगार है। इसके अभाव में जीवन का सार्थक मूल्यांकन असंभव है। सदाचार की महिमा को ध्यान में रखते हुए कहा गया है कि ‘धन के नष्ट होने पर यह समझना चाहिए कि कुछ नहीं नष्ट हुआ है, परंतु आचरण के नष्ट होने पर व्यक्ति का सर्वस्व नष्ट हुआ समझना चाहिए।’

प्रयाग क्षेत्र में कल्पवास की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। कल्पवास की समय-सीमा के बारे में अनेक मत हैं। वैसे तो एक निश्चित अवधि तक नियमपूर्वक प्रयाग क्षेत्र में निवास ही कल्पवास है, चाहे वह अवधि एक रात की हो, तीन रात की या एक मास की हो-‘कल्प: कल्पर्यन्त: वास: इव वास: यस्य स: कल्पवास:। परंतु सामान्यतया एक मास के वास को ही कल्पवास कहा जाता है। पद्मपुराण एवं ब्रह्मपुराण के अनुसार, पौष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से आरंभ कर माघ शुक्ल एकादशी तक कल्पवास करना चाहिए—

एकादश्यां शुक्ल पक्षे पौषमासे सदा भवेत्।
द्वादशां पूर्णिमायां वा शुक्ल पक्षे समापनम्॥
पद्म पुराण के अनुसार
पौषस्येकादशीं शुक्लामारभ्य स्थण्डिलेशय:।
मासमात्रं निराहारस्त्रिवारं स्नानमाचरेत्॥
त्रिकालमर्चयेद्विष्णुं त्यक्तभोगो जितेन्द्रिय:।
माधस्मैकादशी शुक्लां मावद्विधाधरोत्तम॥
विष्णु पुराण के अनुसार, अमावस्या अथवा पूर्णिमा के दिन कल्पवास व्रत प्रारंभ किया जा सकता है—

दर्शं वा पौर्णमासीं वा प्रारभ्य स्नानमाचरेत्।
पुण्यान्यहनि त्रिंशन्तु मकरस्थे दिवाकरे॥
आवश्यकता मात्र इस बात की होती है कि सूर्य मकर राशि में स्थित हो। आजकल पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक एक मास का कल्पवास करने की परंपरा है। यद्यपि इस अवधि में शीत अपने प्रचंडतम रूप में रहती है, तथापि मात्र हवन के समय को छोड़कर अग्नि सेवन पूर्णत: वर्जित है। नारद पुराण में कहा गया है कि इस अवधि में कल्पवासी स्वयं को सांसारिक सुखों से विहीन कर हरि कीर्तन एवं चिंतन-मनन में लीन रखे।

न वह्नि सेवयेत्स्नातो ह्यस्नातोऽपि वरानने।
होमार्थं सेवयेद्वह्नि शीतार्थं न कदाचन्॥
शास्त्रों में कल्पवास की अवधि में गृहस्थों को नित्य शुद्ध रेशमी अथवा ऊनी श्वेत अथवा पीत (पीला) परिधान धारण करने की सलाह दी गई है। यदि कपड़े सूती हों तो उन्हें धारण करने से पूर्व उनकी शुद्धि, प्रक्षालन अवश्य करना चाहिए। स्त्री एवं पुरुष बिना किसी भेदभाव के कल्पवास कर सकते हैं। विवाहित गृहस्थों के लिए नियम है कि पति-पत्नी, दोनों एक साथ कल्पवास करें। विधवा स्त्रियां अकेले कल्पवास कर सकती हैं।

कल्पवास के नियम

कल्पवास का उल्लेख वेदों और पुराणों में भी मिलता है। हालांकि कल्पवास के नियम आसान नहीं हैं। इसमें पूरे आत्म नियंत्रण और संयम की आवश्यकता होती है। महर्षि दत्तात्रेय ने पद्म पुराण में इसका उल्लेख करते हुए कल्पवास के नियमों के बारे में विस्तार से बताया है।

अथ तो संप्रवक्ष्यामि माघस्नान विधिं परम्।
कर्त्तव्यो नियम: कश्चिद् व्रतरूपी नरोत्तमै:॥
फलातिशयहेतोर्वे किञ्चिद् भोज्यं त्यजैद्बुध:।
भूमौ शयीत होतव्य माज्यं तिल समन्वितम्॥
त्रिकालं चार्ययेन्नित्यं वासुदेवं सनातनम्।
दातव्यो दीपकोऽखण्डो देवमुद्दिश्य माधवम्॥
इन्धनं कंबलं वस्यमुपानदजिनं धृतम्।
तैलं कार्पास कोष्ठं च उष्णां तूलवटीं पटीम्॥
अन्नं चैव यथाशक्ति देयं माघे नराधिप।
सुवर्णं रक्तिका मात्रं दद्याद्वेदविदे तथा॥
परस्पाग्निं न सेवेत त्यजेद्विप्र: प्रतिग्रहम्।

इसके अनुसार, 45 दिन तक कल्पवास करने वाले व्यक्ति को 21 नियमों का पालन करना होता है-  सच बोलना, अहिंसा, दान,  इंद्रियों पर नियंत्रण, सत्संग , अंतर्मुखी जप , ब्रह्मचर्य का पालन , व्यसनों का त्याग , ब्रह्म मुहूर्त में जागना, त्रिकाल संध्या , पितरों का पिंडदान , तीन बार पवित्र नदी में स्नान , सभी प्राणियों पर दयाभाव , संकल्पित क्षेत्र के बाहर नहीं जाना , किसी की निंदा नहीं करना, साधु-संतों की सेवा , जप-कीर्तन , एक समय भोजन , भूमि शयन , अग्नि सेवन न करना, देव पूजन
इन सब में सर्वाधिक महत्व ब्रह्मचर्य, व्रत, उपवास, देव पूजन, सत्संग और दान को दिया गया है। कल्पवास के दौरान श्रद्धालु पूरे समय मौन रहते हैं। कल्पवास प्रयाग के कुंभ मेले की एक प्रकार की आचार संहिता है।

उद्यापन विधि : कल्पवास की अवधि पूरी होने पर उद्यापन का विशेष महत्व होता है। यह एक प्रकार से कल्पवास की समाप्ति पर श्रद्धालु द्वारा भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा और समर्पण व्यक्त करने की प्रक्रिया है। इसमें गंगा के तट पर विशेष पूजा होती है, जिसमें कलश पूजा, दीपक जलाना और ब्राह्मणों को तिल के लड्डू दान करना शामिल है। इसके बाद वे आचार्य से पुण्य वचन सुनते हैं और पूजा में शामिल होते हैं। इसमें विशेष रूप से भगवान माधव की पूजा की जाती है और मंत्रों का जाप किया जाता है। यह विधि केवल गंगा तट पर ही नहीं, बल्कि घर में भी की जा सकती है और यदि श्रद्धालु का सामर्थ्य न हो, तो वे भगवान माधव की पूजा करके पूर्ण पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। अगर पूरा कल्पवास हो गया यानी लगातार 12 वर्ष की अवधि पूरी हो गई हो तो सझिया दान भी करना होता है। इसमें आचार्य को गृहस्थ की जरूरत की सभी वस्तुएं देकर भगवान सत्यनारायण की कथा सुनकर उनका आशीर्वाद लिया जाता है। यह पूजा सम्पूर्णता और धार्मिक परंपराओं की प्रतीक है, जिससे व्यक्ति का पुण्य बढ़ता है।

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