तमिलनाडु में भाषाई राजनीति करने वाली डीएमके ने हिंदी के प्रयोग को लेकर लगातार घृणा का विस्तार किया है। हिंदी ही नहीं बल्कि सनातन धर्म का अपमान भी डीएमके के नेता करते आए हैं। अब उसने संस्कृत पर हमला बोला है।
यह भी विडंबना ही है कि जिस संस्कृत भाषा में ज्ञान का भंडार है और जिस संस्कृत भाषा के ज्ञान को लगातार और जानने के लिए विदेश में भी इसके प्रति जिज्ञासा उपज रही है, उसी भाषा के प्रति इस सीमा तक घृणा कि यह कहा जाए कि संस्कृत में संसद की कार्यवाही का अनुवाद आरएसएस का एजेंडा है। डीएमके नेता दयानिधि मारन ने संसद में यह आरोप लगाया कि करदाताओं का धन उस भाषा पर बर्बाद किया जा रहा है, जिसमें कोई बात नहीं करता है। दयानिधि मारन ने वर्ष 2011 की जनगणना सर्वे का संदर्भ देते हुए यह दावा किया कि संस्कृत केवल 73,000 लोग ही बोलते हैं।
प्रश्नकाल में मारन ने संस्कृत अनुवाद के औचित्य पर प्रश्न उठाते हुए कहा कि उन्हें किसी और आधिकारिक राज्य भाषाओं से आपत्ति नहीं है, मगर संस्कृत का औचित्य उन्हें समझ नहीं आता है। दयानिधि मारन का यह वक्तव्य हिन्दू जड़ों से उसी घृणा का विस्तार है, जो डीएमके के नेताओं के बयानों में गाहे-बगाहे दिखती रहती है।
दयानिधि मारन द्वारा उठाए गए इस प्रश्न पर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने आपत्ति जताई और उन्होनें प्रश्न किया कि आप किस देश में रहते हैं। संसद में हो रही बहसें 22 भाषाओं में भाषांतरित होती हैं। मगर आपको केवल संस्कृत और हिन्दी के साथ समस्या है। ओम बिरला ने कहा कि भारत की मूल भाषा संस्कृत रही है। आपको संस्कृत से आपत्ति है और हिन्दी से आपत्ति है। 22 भाषाओं में अनुवाद होगा, संस्कृत में भी होगा और हिन्दी में भी।
DMK MP Dayanidhi Maran: Why are you wasting taxpayers' money on translating debates into Sanskrit?
Speaker Om Birla responds 🔥: In which country are you living? Debates are translated in 22 languages but you have problem with Sanskrit, with Hindi. It will be translated pic.twitter.com/q3CFXORsWM
— Megh Updates 🚨™ (@MeghUpdates) February 11, 2025
दयानिधि मारन यह भूल जाते हैं कि यह संस्कृत भाषा ही है, जिसने रामायण जैसा महान ग्रंथ विश्व को दिया है। यह संस्कृत ही है जिसने गीता का ज्ञान विश्व को दिया है। यह संस्कृत भाषा ही है, जिसने वेद जैसे ग्रंथ विश्व को दिए हैं। संस्कृत का अपमान कोई भी ऐसा व्यक्ति कर ही नहीं सकता है, जो भारत के लोक, भारत के इतिहास और भारत के मूल्यों में विश्वास करता है।
डीएमके की नीति हमेशा ही तमिलनाडु को भाषाई आधार पर उत्तर भारत से अलग करने की रही है। यही कारण है कि कभी वह हिंदी का विरोध करती है तो अब संस्कृत का। एक और बात दयानिधि मारन ने झूठ कही कि संस्कृत किसी भी राज्य की आधिकारिक भाषा नहीं है। दयानिधि मारन को इस विषय में भी अपना सामान्य ज्ञान सुधारने की आवश्यकता है।
भारत में उत्तराखंड और हिमाचल जैसे दो राज्य ऐसे हैं, जहां पर संस्कृत दूसरी आधिकारिक भाषा है। वर्ष 2010 में उत्तराखंड पहला ऐसा राज्य बना था, जिसमें संस्कृत को दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया था। वर्ष 2019 में हिमाचल प्रदेश में भी संस्कृत को दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया था। हर भाषा का अपना समृद्ध इतिहास, व्याकरण, साहित्य और विचार होते हैं। संस्कृत जैसी भाषा के साहित्य को अभी तक आधा भी नहीं जाना गया है। संस्कृत भाषा के ज्ञान को जानने के लिए सदा से ही प्रशिक्षुओं में आतुरता रही है। शताब्दियों से अपनी ज्ञान पिपासा को बुझाने के लिए लोग संस्कृत के ज्ञान की शरण में आते रहे हैं। मगर डीएमके ऐसा प्रतीत होता है कि स्वयं को उस समृद्ध विरासत और इतिहास से जोड़ना नहीं चाहती है, जो संस्कृत से जुड़ा हुआ है।
लगभग हर भाषा के शब्दों की जड़ें संस्कृत में प्राप्त होती हैं। मगर दयानिधि मारन केवल इस से ही अपरिचित नहीं हैं कि भारत के दो राज्यों की आधिकारिक दूसरी भाषा संस्कृत है, बल्कि वे इससे भी अपरिचित हैं कि हर भाषा का इतिहास कहीं न कहीं संस्कृत में आकर जुड़ा है। मगर चूंकि डीएमके स्वयं को उस राष्ट्रीय गौरव के बोध के साथ जोड़कर नहीं देख पाती है, इसलिए दयानिधि मारन जैसे नेता संस्कृत में बहस के अनुवाद को करदाताओं के पैसे की बर्बादी कहते हैं तो वहीं उनकी ही पार्टी के और नेता सनातन पर हमला करते हैं।
ये भी पढ़ें – सनातन धर्म की एड्स, डेंगू और मलेरिया से तुलना खतरनाक सोच, उदयनिधि स्टालिन को मद्रास हाई कोर्ट की फटकार
इस मामले को लेकर राजनीति भी होने लगी है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने लोकसभा की कार्यवाही का संस्कृत में अनुवाद कराए जाने को लेकर दयानिधि मारन की टिप्पणी को अनुचित बताया। उन्होनें एक्स पर दयानिधि मारन का वही वीडियो पोस्ट करते हुए लिखा कि विभाजनकारी राजनीति करना करदाताओं के धन की असली बर्बादी है। एक भाषा को बढ़ाने के लिए दूसरी भाषा को नष्ट करना जरूरी नहीं है। उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष की प्रशंसा करते हुए कहा कि उन्होंने भारतीय भाषाओं के बीच घृणा फैलाने और फर्जी विभाजन पैदा करने के इस कुत्सित प्रयास की उचित निंदा की है। डीएमके की राजनीति में हिंदू पहचान या कहें हिन्दू जड़ों वाले भारत और उसके तमाम प्रतीकों का अपमान ही मूल रह गया है।
टिप्पणियाँ