यूँ तो हिंदू कैलेंडर के ग्यारहवें महीने माघ की पूर्णिमा का स्नान पर्व समूचे देश में प्रति वर्ष अनेक रोचक परंपराओं के साथ श्रद्धाभाव से मनाया जाता है किन्तु कुम्भ पर्व के आयोजन के दौरान इस इसकी महत्ता कई गुना बढ़ जाती है। ऊपर से संयोगवश यदि तीर्थराज प्रयाग में 144 वर्ष बाद आयोजित महाकुम्भ का दुर्लभ सौभाग्य जुड़ जाये तो कहना ही क्या ! वैदिक मनीषियों के अनुसार माघ मास यह अमृत स्नान पर्व लौकिक जीवन को देवजीवन की ओर मोड़कर मानव समाज को अपने अंतर में संयम व त्याग के दिव्य भाव जगाने की प्रेरणा देता है। लोकमंगल व पुण्य प्राप्ति के लिए सनातन हिंदू धर्म में जिन अवसरों को प्रमुखता दी गयी है, उनमें माघी पूर्णिमा के दिव्य स्नान पर्व की विशिष्ट महत्ता है।
जानना दिलचस्प हो कि हमारे अनेक तीर्थ, पर्व और त्योहारों का नामकरण नक्षत्रों के नाम पर हुआ है। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार ‘माघ पूर्णिमा’ की उत्पत्ति मघा नक्षत्र के नाम पर हुई है। ‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’ के अनुसार माघी पूर्णिमा की तिथि पर जगत पालक श्री हरि विष्णु गंगाजल में वास करते हैं। इसलिए इस दिन गंगा स्नान से असीम आत्मिक आनंद और आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति होती है। माघ पूर्णिमा के दिन ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः’ का जाप करते हुए स्नान व दान करना अत्यंत फलदायी होता है। मान्यता है कि माघ पूर्णिमा के दिन सभी देवी-देवता अंतिम बार स्नान करके अपने लोकों को प्रस्थान करते हैं।
इसलिए इस दिन तीर्थ, नदी, समुद्र आदि में प्रातः स्नान, सूर्य अर्घ्य, जप, तप, दान आदि से सभी दैहिक, दैविक एवं भौतिक तापों से मुक्ति मिल जाती है। इस दिन भगवान सत्यनारायण की कथा सुनने का भी विशेष महत्व है। शास्त्रज्ञ कहते हैं कि माघ पूर्णिमा पर सुबह स्नान के बाद विष्णु की पूजा के बाद पितरों के निमित्त श्राध्द तर्पण और जरूरतमंदों को भोजन, कपड़े, कंबल, तिल, गुड़, घी, फल और अन्न तथा गौ (गाय) आदि का दान पुण्य फलदायी माना जाता है।
‘निर्णय सिंधु’ ग्रन्थ में कहा गया है कि माघ पूर्णिमा के स्नान से श्रद्धालु स्वर्गलोक के उत्तराधिकारी बन जाते हैं। माघ पूर्णिमा को स्नान इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस तिथि पर चंद्रमा अपने पूर्ण यौवन पर होता है। पूर्णिमा पर चंद्रमा की किरणें पूरी लौकिकता के साथ पृथ्वी पर पड़ती हैं। इस अमृत स्नान से मानव शरीर पर उन किरणों के पड़ने से आत्मिक शांति की अनुभूति होती है। ज्ञात हो कि श्रद्धालु माघ मास में कल्पवास के लिए प्रयागराज आते हैं, उसका समापन माघी पूर्णिमा के स्नान के साथ होता है। माघी पूर्णिमा से ही फाल्गुन की शुरुआत मानी जाती है, इसलिए भी इस तिथि का विशेष महत्व है। बताते चलें कि माघ स्नान वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। माघ में ठंड खत्म होने की ओर रहती है और इसके साथ ही शिशिर ऋतु की शुरुआत होती है। ऋतु के इस बदलाव का स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर नहीं पड़े, इसलिए पावन नदियों के स्नान का विधान हमारे ऋषियों ने बनाया था।
बताते चलें कि छत्तीसगढ़ की आध्यात्मिक राजधानी राजिम नगरी में “सोंढूर”, “पैरी” और “महानदी” के संगम पर माघ पूर्णिमा से लेकर महाशिवरात्रि तक पन्द्रह दिनों के लिए लगने वाला के माघ मेले को भारत के पांचवें कुंभ मेले की मान्यता हासिल है। चूंकि छत्तीसगढ़ी में पूर्णिमा को “पुन्नी” कहते हैं। इसलिए यह मेला माघी पुन्नी मेले के रूप में लोकप्रिय है। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि राजिम तीर्थ में “राजीवलोचन” और “कुलेश्वर महादेव” के रूप में भगवान शिव और विष्णु साक्षात विराजमान हैं। इसलिए यहां के संगम स्नान से मनुष्य के समस्त कष्ट सहज ही कट जाते हैं। उल्लेखनीय है कि वैष्णव सम्प्रदाय की शुरुआत करने वाले महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मस्थली “चम्पारण्य” भी यहीं है। राजिम मेले के अवसर पर “चम्पारण्य” में भी महोत्सव का आयोजन होता है। राजिम कुंभ के संत-समागम में भी पूरे देश से हज़ारों साधु-संत उमड़कर इस बात का एहसास कराते हैं कि जीवन के विशाल प्रवाह में निस्वार्थ होकर, निजता खोकर ही एक हुआ जा सकता है।
परमार्थ निकेतन के प्रमुख चिदानंद मुनि का कहना है कि हमारी नदियां प्रकृति और धरती की जलवाहिकाएं हैं। जल की महत्ता का सबसे बड़ा उदाहरण हमारी नदियां ही हैं। गंगाजी के जल में करोड़ों श्रद्धालु बिना किसी भेदभाव के स्नान करते हैं और जीवन के अंतरिम आनंद का अनुभव करते हैं। जल के बिना दुनिया में शांति की कामना नहीं की जा सकती। जल विशेषज्ञों के अनुसार आगे आने वाला समय ऐसा भी हो सकता है कि लोग जल के लिए युद्ध करें या विश्व मंप सबसे ज्यादा जल शरणार्थी भी हो सकते हैं। इसलिए हमें जल की महत्ता को समझना होगा, जल केवल मानव जाति के लिए ही जरूरी नहीं है, बल्कि पृथ्वी पर जो कुछ भी हम देख रहे हैं, वह जल के बिना असंभव है।
माघी पूर्णिमा के अवसर पर नदियों में केवल एक डुबकी और एक आचमन नहीं, बल्कि आत्ममंथन की डुबकी लगाएं और अपने जीवन को अमृत कलश से भर लें। इसलिए नदियों में स्नान के साथ उन्हें स्वच्छ, प्रदूषण और प्लास्टिक मुक्त रखना भी हमारा परम कर्तव्य है। अब समय आ गया है कि ‘जल चेतना, जन चेतना बने’, ‘जल क्रांति, जन क्रांति बने’ ताकि जल को लेकर आगे आने वाले संकटों का समाधान हो सके। जल का संरक्षण और संवर्द्धन अत्यंत आवश्यक है क्योंकि जल है तो जीवन है। जल है तो कल है। जल है तो पूजा और प्रार्थना है।
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