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महाकुंभ: माघी पूर्णिमा के साथ संगम पर कल्पवास का संकल्प पूरा, जानिये सनातन धर्म में कल्पवास क्यों है खास

माघी पूर्णिमा स्नान के बाद साधु संत भी अपने-अपने मठ मंदिरों की ओर वापस लौट जाएंगे। संगम की रेती पर कल्पवास कर रहे लाखों कल्पवासी फिर अगले वर्ष आने का संकल्प लेकर अपने घरों को वापस लौटेंगे।

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WEB DESK

प्रयागराज, (हि.स.)। महाकुम्भ, माघी पूर्णिमा के अवसर पर गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के पवित्र त्रिवेणी संगम में बुधवार की सुबह लाखों श्रद्धालुओं ने बुधवार को आस्था की डुबकी लगाई। माघी पूर्णिमा के स्नान पर्व के साथ ही तीर्थराज प्रयाग में संगम की रेती पर चल रहे महाकुम्भ मेले का अनौपचारिक समापन आज हो गया और साथ में कल्पवास खत्म हो गया। वैसे मेला 26 फरवरी को पड़ने वाले महाशिवरात्रि के पर्व तक जारी रहेगा।

महाकुम्भ मेले का पांचवा अमृत स्नान पर्व माघी पूर्णिमा आज बुधवार को है। माघ मास शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को माघी पूर्णिमा मनाई जाती है। इसी के साथ पौष पूर्णिमा से संगम की रेती पर शुरू हुआ भजन, पूजन और अनुष्ठान भी पूर्ण हो जाता है। माघी पूर्णिमा स्नान के बाद साधु संत भी अपने-अपने मठ मंदिरों की ओर वापस लौट जाएंगे। संगम की रेती पर कल्पवास कर रहे लाखों कल्पवासी फिर अगले वर्ष आने का संकल्प लेकर अपने घरों को वापस लौटेंगे।

माघी पूर्णिमा को कल्पवास का संकल्प होता है पूरा

अखिल भारतीय दंडी सन्यासी परिषद के संरक्षक स्वामी महेशाश्रम के मुताबिक सनातन धर्म में प्रत्येक पूजा का फल पूर्णाहुति में होता है। माघी पूर्णिमा को कल्पवास का संकल्प पूरा होता है। कल्पवासियों के लिए त्रिजटा स्नान के बाद घर वापसी का विधान है। स्वामी महेशाश्रम महाराज के मुताबिक पौष पूर्णिमा से अमावस्या तक तिल दान का विधान है। माघी पूर्णिमा पर ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कर अक्षत यानि चावल दान करने का विधान है। मान्यता है कि, पूर्णिमा के दिन त्रिदेव विदा होते हैं। इसलिए सुबह ब्रह्म मूहूर्त में माघी पूर्णिमा का स्नान करना बेहद शुभ माना गया है.

हिन्दू धर्म में पूर्णिमा का काफी खास महत्व होता है। पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु भी इस दिन गंगा नदी में वास करते हैं। स्नान के बाद लोगों ने घाटों पर पूजन-अर्चन किया और दान भी दिया। समाचार लिखे जाने तक मेला क्षेत्र और अन्य स्नान घाटों पर बुधवार की सुबह छह बजे तक 73.60 लाख श्रद्धालुओं ने स्नान किया।

माघी पूर्णिमा स्नान के साथ ही संगम तट पर मास पर्यंत चल रहा कल्पवास का अनुष्ठान भी आज समाप्त हो गया। पौष पूर्णिमा से यहां जमे कल्पवासी माघी पूर्णिमा स्नान के बाद अपने घर को प्रस्थान करने की तैयारी में हैं। आस पास के कल्पवासी स्नान कर देर रात तक घर वापस जायेंगे। अधिकतर कल्पवासी वृहस्पतिवार की सुबह घर लौटेगे, जबकि कुछ कल्पवासी त्रिजटा पर्व का स्नान कर मेला क्षेत्र छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं।

सम्पूर्ण मेला क्षेत्र में शान्ति व सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस विभाग द्वारा पुख्ता इंतजाम किये गये हैं। पुलिस बल के अलावा मेला क्षेत्र में पीएसी और रैपिड एक्शन फोर्स की भी कई कम्पनियां लगाई गयी हैं। मेला क्षेत्र की निगरानी के लिए प्रशासन ने ड्रोन कैमरों की भी व्यवस्था की है। भीड़ नियंत्रण के लिए कंट्रोल रुम को अत्याधुनिक रुप दिया गया है।

क्या है कल्पवास

संगम की रेती पर कायाकल्प हेतु किया जाने वाला तप कल्पवास कहलाता है। यह व्रत पौष पूर्णिमा के साथ ही शुरू हो जाता है। इस दिन गंगा स्नान के बाद श्रद्धालु कल्पवास का विधि विधान से संकल्प लेते हैं। वे तीर्थ पुरोहितों के आचार्यत्व में मां गंगा, नगर देवता वेणी माधव और पुरखों का स्मरण कर व्रत शुरू करते हैं। महीने भर जमीन पर सोते हैं। पुआल और घास-फूस उनका बिछौना होता है। बदन पर साधारण वस्त्र और हाथों में धार्मिक पुस्तकें होती हैं। तीर्थ पुरोहितों के आचार्यत्व में मंत्रोच्चार के बीच त्याग-तपस्या के 21 नियमों को पूरी निष्ठा से निभाते हैं। साथ ही मेला क्षेत्र में बने अपने अस्थाई तम्बू के बाहर ये कल्पवासी बालू में तुलसी का बिरवा लगाते हैं और जौ बोते हैं। सुबह स्नान के बाद यहां जल अर्पित करते हैं। सुबह-शाम यहां दीपक भी जलाते हैं। कल्पवास समाप्त होने के बाद वापस जाते समय वह इसे प्रसाद स्वरूप अपने घर लेकर जाते हैं।

तीर्थराज प्रयाग की यह परम्परा आदिकाल से चली आ रही है। प्रयाग का मतलब ही है, वह पवित्र धरती जहां प्राचीन काल में खूब यज्ञ हुए हों। मान्यता है कि ब्रह्माण्ड की रचना से पहले भगवान ब्रह्मा ने भी प्रयाग में अश्वमेध यज्ञ किया था। दशाश्वमेध घाट और ब्रह्मेश्वर मंदिर इस यज्ञ के प्रतीक स्वरुप आज भी यहां मौजूद हैं।

बता दें कि गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के पावन तट पर हर वर्ष यहां तम्बुओं और घास-फूस की झोपड़ियों का एक नया शहर बस जाता है। जो माघ मेला के नाम से जाना जाता है। हर छठे साल यही मेला अर्ध कुम्भ और हर बारहवें वर्ष कुम्भ के नाम से पूरी दुनिया में विख्यात है। इस वर्ष पड़ने वाला महाकुम्भ 144 वर्षों बाद आया है, जिसे अब दुबारा देखने का सौभाग्य नहीं मिलेगा। इस महाकुम्भ में कई रिकार्ड भी बने।

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