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आप’ का आपदाकाल

‘आप’ आज आपदाकाल से गुजर रही है यानि कह सकते हैं कि बेल पीली पड़ रही है। केवल पार्टी ही चुनाव नहीं हारी बल्कि उन बड़े चेहरों को भी जनता ने घर का रास्ता दिखा दिया है जो पार्टी का चेहरा माने जाते हैं।

by राकेश सैन
Feb 10, 2025, 02:26 pm IST
in दिल्ली
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सावन में बहुत सी बेल-बूटियां पैदा होती हैं, जिनमें से कई तो विशाल वृक्षों से लिपटती हुई उनसे भी ऊंची उठ कर इतराने लगती हैं, पर सभी जानते हैं कि कार्तिक-माघ माह आते-आते हरित सर्पणियों सरीखी ये लताएं प्राणविहीन होने लगती हैं। कारण ढूंढें तो सामने आता है कि वृक्षों के विपरीत इन लताओं की जड़ें गहरी नहीं होतीं। देश की राजनीतिक सनसनी कहे जाने वाली आम आदमी पार्टी भी लगभग उसी मार्ग पर चलती दिखाई दे रही है, जो दीपावली के राकेट की तरह एकदम उठी और कुछ देर रोशनी बिखेर कर आज उतनी ही गति से नीचे आ रही है। दिल्ली जहां पार्टी का श्रीगणेश हुआ वहां पार्टी को कमरतोड़ पराजय का सामना करना पड़ा है। केवल पार्टी ही चुनाव नहीं हारी बल्कि उन बड़े चेहरों को भी जनता ने घर का रास्ता दिखा दिया है जो पार्टी का चेहरा माने जाते हैं। और तो और पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल भी हार गए। ‘आप’ आज आपदाकाल से गुजर रही है यानि कह सकते हैं कि बेल पीली पड़ रही है। लेकिन इस आपदाकाल को आत्मज्ञानकाल बना लिया जाए तो बेल को पूरी तरह झुलसने से बचाया जा सकता है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी दल या संगठन को अलोकतांत्रिक पद्धति से नहीं चलाया जा सकता। परन्तु देखने में आता है कि ‘आप’ में आतंरिक लोकतंत्र का पूरी तरह अभाव है। गठन के पहले दिन से ही श्री केजरीवाल ने पार्टी को आत्मकेन्द्रित करना शुरू कर दिया। पार्टी जन्म से लेकर आज तक केवल वो ही राष्ट्रीय संयोजक के पद पर चले आ रहे हैं। अंदर से उन्हें किसी से चुनौती न मिले इसके लिए उन्होंने सबसे पहले अपने उन साथियों को किनारे करना शुरू कर दिया जो अन्ना आंदोलन में उनके साथ रहे। जनरल वीके सिंह, किरण बेदी, कुमार विश्वास, आशुतोष गुप्ता, योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण आदि आदि बहुत से लोगों की लम्बी शृंखला है जो केजरीवाल के व्यवहार के कारण उनका साथ छोड़ते गए। राष्ट्रीय स्तर पर लोकपाल का वायदा करके आई ‘आप’ ने अपने आंतरिक लोकपाल सेवानिवृत एडमीरल रामदास के साथ जो व्यवहार किया वह पूरे देश ने देखा। होली-होली आंदोलनकारी दूर हटते गए और सत्ताजीवी लिपटते गए। समय-समय पर वे लोग ‘आप’ का साथ छोड़ गए जो देश में नई तरह की राजनीति करने एक मंच पर आए थे।

केजरीवाल विभव कुमार जैसे उन चापलूसों व संदिग्ध लोगों से घिर गए जो मुख्यमंत्री निवास पर भी पार्टी सांसद स्वाति मालीवाल जैसी वरिष्ठ नेताओं से दुव्र्यवहार करने से नहीं झिझकते। इन 13 वर्षों में केजरीवाल की छवि संयोजक की बजाय पार्टी के मालिक की बन गई और ‘आप’ लोगों को कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस सरीखी कुनबावादी पार्टी लगने लगी। अगर मालिकाना हक वाली सोच न होती तो क्या कभी केजरीवाल अपनी ही पार्टी की मुख्यमंत्री आतिशी को ‘टेम्परेरी सीएम’ कहने का दुस्साहस करते? अपने पद से इस्तीफा देने के बाद आतिशी को मुख्यमंत्री बना कर केजरीवाल ने उन्हें जो अस्थाई मुख्यमंत्री कहा वह अपने आप में अति अशोभनीय था जिसका बहुत गलत संदेश गया।

दूसरी ओर अपने जन्म के 13 साल बाद भी ‘आप’ अपना वैचारिक आधार नहीं बना पाई। स. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार पर लगे आरोपों के चलते देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश पनपा हुआ था और इसी का लाभ उठा कर आम आदमी पार्टी अस्तित्व में आई परन्तु अपनी किशोर अवस्था आने से पहले ही नई नवेली पार्टी इन्हीं आरोपों में घिर गई।

पुलवामा में आतंकी हमला हो या भारतीय सेना की पाकिस्तान के खिलाफ कोई कार्रवाई केजरीवाल व उनकी पार्टी कभी भी देश के साथ खड़े दिखाई नहीं दिए। पार्टी में वैचारिक भटकाव इतना कि कभी तो लेफ्ट चलते दिखी तो कभी राइट, कभी उलटी तो कभी सीधी। केन्द्र से टकराव और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अन्धविरोध पार्टी की एकमात्र विचारधारा बन गई। इसके लिए झूठ-फरेब, षड्यंत्र-अफवाहें, नाटक-नौटंकी सबकुछ आजमाया गया। तुष्टिकरण की राजनीति करते हुए केजरीवाल कांग्रेस के ही बहरूपीए नजर आने लगे। कांग्रेस की ही दुर्दशा देख कर केजरीवाल को समझ जाना चाहिए था कि वैचारिक आधार के बिना या वैचारिक भटकान से उनका भी एक न एक दिन वही हश्र होगा जो कांग्रेस का हुआ है।

‘आप’ के पुनरुथान के लिए केजरीवाल को देश की माटी और जनमानस से जुड़े विचारों, सिद्धांतों को पार्टी की विचारधारा बनाना होगा और उन पर चलते हुए दिखना भी होगा। तभी उनका व उनके दल का कल्याण सम्भव है। एक निश्चित विचारधारा के चलते ही आज वो भारतीय जनता पार्टी सफलता की सीढिय़ां दर सीढिय़ां चढ़ती दिखाई दे रही है जिसके कभी दो ही सांसद हुआ करते थे। बिना विचारों के चाहे कोई संगठन सामयिक मुद्दों पर एक-दो बार सफलता हासिल कर ले परन्तु वह ज्यादा समय चल नहीं पाता। दूसरी तरफ वैचारिक संगठन कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी पूरी तरह समाप्त नहीं होते। वैचारिक आधार वाले भाजपा व वामपंथी दल इसके उदाहरण हैं जो ऊपर-नीचे तो होते हैं परन्तु हाशीए पर नहीं जाते। देश की राजनीति में अगर लम्बा सफर तय करना है तो ‘आप’ को भी अपनी कोई न कोई विचारधारा समाज के सामने रखनी होगी।

केजरीवाल अगर ईमानदारी को अपनी विचारधारा बताते हैं तो उन्हें अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का दृढ़ता से सामना करना होगा। ईमानदारी साबित करने के लिए किसी तरह की सर्कस करने से बचना होगा। राजनीति में इस तरह के आरोप बहुत बड़ी बात नहीं, भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी पर भी हवाला घोटाले में शामिल होने के आरोप लगे, परन्तु उन्होंने राजनीतिक शूचिता का उदाहरण पेश करते हुए तत्काल यह घोषणा कर दी कि जब तक वे दोषमुक्त नहीं होते वे कोई पद ग्रहण नहीं करेंगे। इतिहास साक्षी है कि आरोपमुक्त होने के बाद वे अपने नेतृत्व में भाजपा को कहां से कहां तक ले गए। अगर शराब घोटाले के आरोप लगने के बाद केजरीवाल भी ऐसा साहस दिखाते तो आज दिल्ली के चुनाव परिणाम वह नहीं होते जो आज उन्हें देखने पड़ रहे हैं।

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