विधानसभा चुनाव में दिल्ली की जनता ने अपना फैसला सुना दिया है। भाजपा 27 साल बाद दिल्ली में सरकार बनाने जा रही है। चुनाव में आरोपों और दावों की झूठी राजनीति करने वाली आआपा को करारी हार मिली है। यह परिणाम केवल चुनावी आंकड़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि एक गहरे राजनीतिक बदलाव का संकेत है। भ्रष्टाचार के आरोप, प्रशासनिक अक्षमता, राष्ट्रीय भाव के उभार और भाजपा की आक्रामक रणनीति ने मिलकर आआपा की यह चुनावी पराजय तय की। इस आलेख में हम उन कारणों का विस्तार से विश्लेषण करेंगे और समझेंगे कि कैसे आआपा का ज्वार चरम से उतरकर ढलान की ओर बढ़ गया।
ऐतिहासिक सफलता और गिरावट
2015 और 2020 में आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी। 2015 के चुनावों में 70 में से 67 सीटों पर और 2020 में 62 सीटों पर जीत हासिल कर आआपा ने दिल्ली की राजनीति में अपना मजबूत स्थान बनाया था। शिक्षा और स्वास्थ्य सुधार, मुफ्त बिजली-पानी और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के वादों ने उसे आम जनता का पसंदीदा विकल्प बनाया। लेकिन 2020 के बाद शराब नीति घोटाला, केजरीवाल का शीशमहल मामला, सत्येंद्र जैन की गिरफ्तारी और शासन में पारदर्शिता की कमी ने पार्टी छवि को गंभीर रूप से प्रभावित किया।
आक्रामक रणनीति और संगठनात्मक मजबूती
भाजपा ने आक्रामक रणनीति और संगठनात्मक मजबूती के साथ चुनाव लड़ा, जिसका उसे लाभ मिला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित पार्टी के तमाम नेता प्रचार में उतरे। भाजपा ने सधे तरीके से आआपा नेताओं द्वारा लगाए गए आरोपों और उनके झूठे दावों की पोल खोली। हर स्तर पर आआपा की नाकामियों को उजागर किया। भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार को आआपा के भ्रष्टाचार और उसके नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति पर केंद्रित रखा और दिल्ली की जनता के सामने आआपा का असली चेहरा उजागर किया। भाजपा लोगों को यह भरोसा दिलाने में सफल रही कि आआपा की सरकार भ्रष्ट और अक्षम है। आआपा में अंदरूनी कलह और बिखराव था, लेकिन भाजपा का संगठनात्मक नेटवर्क रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन और सामाजिक संगठनों के माध्यम से गली-गली तक पहुंचा। मतदाताओं ने भी भाजपा के विकास और सुशासन के वादों पर भरोसा जताया।
राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा का प्रभाव
धारदार नेतृत्व और बदलते समय के साथ खुद को ढालने के लिए पार्टी ने अभिनव राजनीतिक रणनीतियां अपनाई हैं। साथ ही, प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने विकास के कई नए प्रतिमान स्थापित किए हैं। इस कारण चुनावों में लगातार जीत से राष्ट्रीय राजनीति में उसका प्रभाव बढ़ा है। भाजपा को प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता और केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ भी मिला। दिल्ली के मतदाताओं ने भी उन पर भरोसा जताया और 2014, 2019 और 2024 लोकसभा चुनावों में भाजपा को सभी 7 सीटों पर जिताया।
आआपा की विवादित नीतियां और विफलताएं
आआपा की विवादित नीतियां और विफलताओं को मतदाताओं ने गंभीरता से लिया। आआपा सरकार पर शराब घोटाले सहित भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे। उसकी नीतियों में न तो पारदर्शिता थी और न ही स्पष्टता। केजरीवाल ने सार्वजनिक परिवहन में सुधार का वादा किया था, लेकिन डीटीसी के बेड़े में एक बस तक नहीं जोड़ सके। इसी तरह, आआपा ने सार्वजनिक स्थानों पर मुफ्त वाई-फाई, 10-15 लाख सीसीटीवी कैमरे लगाने जैसे वादे तो किए, लेकिन उन्हें पूरा नहीं कर पाई। जिस मोहल्ला क्लीनिक योजना को आआपा ने स्वास्थ्य क्षेत्र में क्रांतिकारी बताया, उसमें बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा, घोटाला सामने आया। अस्पतालों की खस्ता हालत, उपकरणों, डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की कमी के कारण भी पार्टी ने अपनी फजीहत कराई। दिल्ली में प्रदूषण नियंत्रण और यमुना की सफाई का वादा भी खोखला साबित हुआ। यहां तक कि पार्टी के कई नेताओं ने केजरीवाल सरकार पर खराब प्रशासन का आरोप लगाया। आपराधिक मामलों में पार्टी के कई नेताओं के जेल जाने से भी पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचा।
सनातन का सम्मान और सामाजिक एकजुटता
भाजपा ऐसी पार्टी है, जो सनातन परंपराओं और आदर्शों पर चलती है और भारत के सांस्कृतिक मूल्यों को महत्व देती है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, भाजपा ने दिल्ली में ध्रुवीकरण की राजनीति को अपने पक्ष में मोड़ा। नागरिकता संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जैसे मुद्दों ने हिंदू मतदाताओं को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भाजपा की रणनीति ने उसे हिंदू बहुल इलाकों में मजबूत आधार दिया। 2020 में दिल्ली में हुए दंगों के चलते उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंदुओं ने एकतरफा भाजपा को वोट किया। मुस्तफाबाद जैसी मुस्लिम बहुल सीट पर भी भाजपा ने बड़े अंतर से जीत हासिल की।
कांग्रेस का कमजोर प्रदर्शन
कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव आआपा के साथ गठबंधन करके लड़ा था, लेकिन विधानसभा चुनाव वह अकेले लड़ी। इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने कुछ सीटों पर वापसी की कोशिश की, लेकिन भाजपा और आआपा को चुनौती देने में विफल रही। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा और तमाम नेताओं ने जमकर प्रचार किया, अरविंद केजरीवाल और इंडी गठबंधन की अपनी सहयोगी आआपा पर जमकर निशाने भी साधे। फिर भी पार्टी एक सीट तक नहीं जीत सकी। इससे पहले 2020 और 2015 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस का खाता नहीं खुला था। कांग्रेस दिल्ली में अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने के लिए संघर्ष कर रही है, लेकिन इसे जीजिविषा और संघर्ष शक्ति की जरूरत है, वह उसमें दिखाई नहीं देती।
प्रशासनिक अनुभव की कमी
आआपा के लिए सबसे सबसे बड़ी चुनौती अनुभवी नेताओं की कमी रही। अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया पार्टी के बड़े नेता हैं। दोनों ही एक्टिविस्ट से नेता बने हैं। लेकिन आंदोलन करना और शासन चलाना, दोनों में जमीन-आसमान का फर्क होता है। आआपा में आकर जो लोग विधायक और मंत्री बने, उन्हें कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था। जिनमें कुछ गुण थे, वे भी पार्टी की कार्यशैली से तंग आकर पार्टी छोड़ गए। पार्टी को नीतिगत और प्रशासनिक निर्णय लेने में देरी और अक्षमता का खामियाजा सत्ता गवां कर भुगतना पड़ा। स्थानीय समस्याओं का समाधान करने के बजाय आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति, केंद्र सरकार और उपराज्यपाल से बात-बात पर टकराव भी आआपा को महंगा पड़ा।
मतदाताओं का मोहभंग
आम आदमी की छवि, सरकारी सुविधाओं का इस्तेमाल नहीं करने, भ्रष्टाचार मुक्त सरकार देने जैसे झूठ और रेवड़ी घोषणाओं की बदौलत अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में सरकार बनाई थी। सत्ता में आने के बाद केजरीवाल और उनके विधायक साइकिल, रिक्शा और आॅटो से विधानसभा जाने का दिखावा करते रहे। दिल्लीवासियों को भी लगा कि यह ‘कट्टर ईमानदार’ सच में सब कुछ बदल देगा, स्वच्छ और पारदर्शी प्रशासन देगा। लेकिन हुआ इसके उलट। सत्ता में आने के बाद केजरीवाल और उनकी पार्टी के नेता बड़ी-बड़ी गाड़ियों और आलीशान बंगलों में रहने लगे। महिलाओं को सुरक्षा देने का वादा किया, लेकिन उसे पूरा नहीं किया। डीटीसी बसों से अचानक मार्शलों को हटा दिया। स्वाति मालीवाल से तत्कालीन मुख्यमंत्री केजरीवाल के आवास पर उनके ही एक करीबी ने मारपीट और गाली-गलौज की, लेकिन केजरीवाल चुप रहे। भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर दिल्ली की राजनीति में छाने वाली आआपा खुद ही आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी दिखी। इन सब कारणों से दिल्ली के मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय मतदाताओं का धीरे-धीरे मोहभंग हुआ, जो विधानसभा चुनाव में आआपा की हार के रूप में दिखा।
भाजपा का मजबूत ‘संदेश नेतृत्व’
भाजपा ने दिल्ली में मजबूत ‘संदेश नेतृत्व’ तैयार किया। प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी, असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा, हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी आदि ने भी दिल्ली में चुनाव प्रचार किया। इनकी स्वच्छ और बेदाग छवि ने मतदाताओं को प्रभावित किया। पारदर्शी व भ्रष्टाचार मुक्त सरकार के वादे और मोदी की गारंटी पर दिल्लीवासियों ने भरोसा जताया और खुल कर भाजपा के पक्ष में मतदान किया। दूसरी ओर, आआपा के पास केजरीवाल के अलावा कोई बड़ा चेहरा नहीं था, जिसके बूते वह दिल्ली में वोट मांगती।
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सोशल मीडिया का आक्रामक इस्तेमाल
भाजपा ने सोशल मीडिया पर आआपा के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाया। उसके झूठ को उजागर किया। शराब नीति घोटाले, स्वास्थ्य क्षेत्र की विफलताओं और प्रशासनिक भटकाव को प्रभावी ढंग और बेहद सधे हुए तरीके से सोशल मीडिया के जरिए लोगों तक पहुंचाया। आआपा इस स्तर पर भाजपा की रणनीति का मुकाबला करने में विफल रही। वह सोशल मीडिया पर भी सिर्फ आरोप लगाने में ही व्यस्त रही। वहीं, भाजपा मतदाताओं को यह भरोसा दिलाने में सफल रही कि वह दिल्ली को बेहतर भविष्य दे सकती है। यह चुनाव परिणाम दिल्ली की राजनीति में एक नए युग की शुरुआत का संकेत है। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि आआपा अपने राजनीतिक अस्तित्व को फिर से मजबूत करने के लिए क्या रणनीति अपनाती है।
आआपा को उसी के दांव से दी पटखनी
चुनाव में भाजपा ने आआपा को उसके ही दांव से पटखनी दी। मुफ्त बिजली और मुफ्त पानी, केजरीवाल के दो ऐसे मुद्दे थे, जिसने चुनावों की परिभाषा बदल दी थी। इस बार केजरीवाल ने हर माह महिलाओं को 2,100 रुपये देने की घोषणा की थी, जबकि भाजपा ने 2,500 रुपये। साथ ही, दिल्ली में मिल रही सभी सुविधाओं को जारी रखने के अलावा 500 रुपये में एलपीजी सिलेंडर, होली और दीपावली पर एक-एक मुफ्त सिलेंडर, गर्भवती महिलाओं के लिए पोषण किट, झुग्गीवासियों के लिए 5 रुपये में पौष्टिक भोजन, 70 वर्ष से अधिक उम्र के वरिष्ठ नागरिकों को मुफ्त इलाज व उन्हें मिलने वाली पेंशन 2,000 रुपये से बढ़ाकर 2,500 करने और दिल्लीवासियों को 10 लाख तक का इलाज कराने जैसे वादे किए। भाजपा के वादों पर दिल्ली की जनता ने भरोया जताया और उसे वोट किया।
बहरहाल, विकास के नाम पर केंद्र की योजनाओं पर अपनी फोटो के साथ ठप्पा लगाना, अपनी गलतियों-नाकामियों का ठीकरा केंद्र सरकार पर फोड़ना, जनता से संवाद न करना और संवाद के नाम पर सस्ते प्रहसन करना, स्कूलों में मनमानी नीतियों के माध्यम से बच्चों के जीवन के साथ खिलवाड़ करना और अपने कार्यकर्ताओं को स्कूलों में नियुक्त कर मोटा वेतन देना, यह सब आआपा को भारी पड़ा। ‘ईमानदार राजनीति’ के नाम पर चरम भ्रष्टाचार जिस पार्टी का मुख्य उद्देश्य रह गया था, उसका इस बार चुनाव में पतन विधाता भी नहीं टाल सके।
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