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दिल्ली में केजरीवाल पर चला ‘भाजपा का झाड़ू’ : जानिए AAP की हार और BJP की जीत का पूरा विश्लेषण

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में आम आदमी पार्टी की करारी हार, अरविंद केजरीवाल की 'कट्टर ईमानदार' छवि कैसे ध्वस्त हुई..? सत्ता में रहते हुए उन्होंने कौन-कौन सी गलतियां कीं, जिसने AAP को इस हाल तक पहुंचा दिया..? पढ़ें दिल्ली चुनाव परिणामों का विश्लेषण...

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आशीष कुमार अंशु

दिल्ली में यह आम आदमी पार्टी का तेरहवां साल है। 08 फरवरी को जो परिणाम सामने आया है, उसे देखकर यह अशंका जताई जा रही है कि यह भाजपा के हाथों आम आदमी पार्टी के तेरहवीं का साल भी ना हो जाए। भाजपा पचास का आंकड़ा छूने वाली है और आम आदमी पार्टी जो कल तक दावा कर रही थी कि उनके विधायक खरीदने की भाजपा कोशिश कर रही है। अभी उनके प्रवक्ताओं को कोई जवाब सुझ नहीं रहा। पार्टी के बड़े छोटे नेता दिल्ली में मुंह छुपाए घूम रहे हैं।

अन्ना आंदोलन

02 अक्टुबर 2012 को इस पार्टी की स्थापना हुई थी। जंतर मंतर से पार्टी स्थापना की घोषणा से एक सांकेतिक महत्व भी था क्योंकि आंदोलन से जुड़े लोगों के लिए जंतर मंतर का अर्थ था परिवर्तन। दिल्ली में एक एक व्यक्ति को यह लग रहा था कि वे किसी पार्टी को नहीं बल्कि खुद को विधानसभा में जाने के लिए चुन रहे हैं। एक ऐसी पार्टी को वे चुन रहे हैं जो उनका प्रतिनिधित्व करेगी। एक ऐसी पार्टी जो सत्ता नहीं व्यवस्था परिवर्तन के लिए राजनीति में आई है। देश के करोड़ो लोगों ने आम आदमी पार्टी के सपने से अपने सपने को जोड़ लिया था।

वह लोग जो मंचों पर थे। मीडिया दिखाई दे रहे थे। पार्टी को चलाने में अपनी भूमिका निभा रहे थे। उन्हें अन्ना आंदोलन से पहचान मिली। उनकी टिप्पणी को मीडिया में स्थान मिला। लेकिन ऐसे सैकड़ों लोग थे जो अरविन्द केजरीवाल द्वारा नियंत्रित अन्ना आंदोलन का 2011—12 में हिस्सा थे। वह पर्दे के पीछे थे। सोशल मीडिया हैंडल से लेकर भीड़ प्रबंधन का काम संभाल रहे थे। कई अपनी अच्छी खासी नौकरी छोड़कर अरविन्द के साथ आए थे, उन्हें ऐसा लग रहा था कि आम आदमी पार्टी भारत के अंदर आजादी की दूसरी लड़ाई का नेतृत्व करेगी। भ्रष्टाचार खत्म होगा, सरकारी काम काज में पारदर्शिता आएगी, दिल्ली का मुख्यमंत्री भारी भड़कम सुरक्षा में नहीं बल्कि अपनी वैगनआर कार लेकर अपने किराए के घर से विधानसभा से आएगा और वेतन के पैसे से अपना घर चलाकर मिसाल कायम करेगा।

जबकि दिल्ली का मुख्यमंत्री गद्दी पर बैठकर शीश महल बनवा रहा था। दिल्ली की जनता ने उन्हें बहुमत किराए के घर में रहकर मिसाल कायम करने के लिए दी थी। वह लाल बत्ती की गाड़ी में चढ़कर, जनता को मुंह चिढ़ाता हुआ उनके सामने से निकलने लगा। उसके निकलने के लिए जनता जाम में फंसी रहती।

सिर्फ मुख्यमंत्री की बात क्यों करें? दिल्ली के पूर्व उप मुख्यमंत्री का रिकॉर्ड भी बहुत अच्छा नहीं रहा। एक निजी खबरिया चैनल की नौकरी से लेकर एक गैर सरकारी संगठन चलाने तक दिल्ली के उप मुख्यमंत्री जिस वेतन पर काम कर रहे थे, उस वेतन वाले आदमी को कोई डेढ़ करोड़ का लोन क्यों देगा? सही पढ़ा आपने, डेढ़ करोड़ का एजुकेशन लोन मनीष सिसोदिया ने अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए लिया। संयोगवश पूर्व उप मुख्यमंत्री सिसोदिया के पास शिक्षा और शराब का मंत्रालय भी था। वे दिल्ली में दावा भी कर रहे थे कि सरकारी स्कूलों में ऐसी शिक्षा वे दिल्ली वालों को दे रहे हैं कि निजी स्कूल छोड़कर बच्चे सरकारी स्कूल में आ रहे हैं। फिर इतनी अच्छी शिक्षा छोड़कर उनका बेटा डेढ़ करोड़ का लोन लेकर कौन सी पढ़ाई करने गया था? पारर्शिता और रेफरेंडम की बात बार बार करने वाली पार्टी ने इस संबंध में कभी दिल्ली की जनता से बात तक करना मुनासिब नहीं समझा।

आम आदमी की उपेक्षा

वास्तव में ‘आप’ के नेता भूल गए थे कि यह ताकत उन्हें दिल्ली के आम आदमी ने दी है। थोड़ी सी ताकत मिलते ही उन्होंने सबसे अधिक आम आदमी की ही उपेक्षा की। अरविन्द ने लंबे समय से आम आदमी से मिलना बंद कर दिया था। जिस नई दिल्ली सीट से वे जीत कर आते हैं, वहां के मतदाताओं ने बताया कि अंतिम बार अरविन्द केजरीवाल क्षेत्र में कब आए थे। याद नहीं। इसी उपेक्षा की वजह से मनीष सिसोदिया को अपनी सीट बदलनी पड़ी। सूत्रों के अनुसार आम आदमी पार्टी के आंतरिक सर्वेक्षण में यह बात पहले ही सामने आ गई थी कि अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, आतिशी मार्लेना, सतेन्द्र जैन, सौरभ भारद्वाज, राखी बिरला, सोमनाथ भारती चुनाव हारने वाले हैं। टक्कर का मुकाबला है। जीत होगी भी तो बहुत कम मतों से। मुकाबला टक्कर का होगा। यह सर्वेक्षण सच साबित हुआ और सिफ आतिशी ने पार्टी की लाज बचाई। विश्लेषकों के अनुसार यदि भाजपा के उम्मीदवार रमेश विधूड़ी ने ‘सड़क’ वाला अपना विवादित बयान नहीं दिया होता तो आप के लिए यह सीट निकालनी भी मुश्किल हो जाती। इसीलिए मनीष सिसोदिया की सीट बदली गई। जंगपुरा को मनीष ‘सेफ’ सीट मान रहे थे। वे अपने सेफ सीट पर भी त्रिवेन्द्र सिंह मारवाह से 600 मतों से हार गए।

मनीष की सीट जब बदली गई, आम आदमी पार्टी के आंतरिक सर्वेक्षण पर सोशल मीडिया और लूटियन दिल्ली में बात होने लगी थी। फिर हारी हुई बाजी को जीतने के लिए पार्टी मैदान में उतरी। इस बार पार्टी ने चुनावी अभियान में शिक्षा, स्वास्थ, सड़क और विकास की बात नहीं की। दिल्ली की जनता प्रदूषण, यमुना की सफाई, गंदे पानी का मुद्दा उठा रही थी। जिसकी आप ने भरपूर उपेक्षा की। जनता के मुद्दों पर पूरे चुनाव अभियान के दौरान आम आदमी पार्टी बात करने से बचती रही।

आम आदमी पार्टी दिल्ली वालों के जीवन से जुड़े मुद्दो पर बात ना करके उन्हें सपने बेचने के अभियान में लग गई थी। ईवीएम और चुनाव आयोग को अपने सवालों से घेरने की भी उसने भरपूर कोशिश की। इस तरह 2025 विधानसभा चुनाव के अभियान में दिल्ली की जनता ने अपने राजा के बदन से एक—एक कपड़ा उतरता देखा। 5 फरवरी तक उनका राजा पूरी तरह नंगा हो चुका था। उसके चेहरे पर पड़ा मुखौटा उतर चुका था। दिल्ली उसका क्रूर चेहरा देख रही थी। यह चेहरा किसी ठग का चेहरा नहीं था। यह एक हत्यारे का चेहरा था, जिसने लाखों करोड़ो लोगों के विश्वास की हत्या
की थी।

विश्वास की हत्या

अरविन्द को यह कभी पता नहीं चल पाया कि 2012 में उसके लिए कौन—कौन लड़ रहा था। वे अकेले नहीं थे चुनाव के मैदान में। वह पत्रकार चाहता था कि अरविन्द सत्ता में आए जो उसकी रैली मे कम भीड़ होने के बावजूद कैमरा वहां जूम करता था जहां लोग होते थे। वे शिक्षक और प्रोफेसर अरविन्द के लिए लड़ रहे थे जो उससे परिवर्तन की आस लगा बैठे थे। दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाली वह लाखों महिलाएं अरविन्द में अपना बेटा देखने लगी थी, जो सोच रहीं थी कि अरविन्द के आने से उनका जीवन स्तर सुधरेगा। अरविन्द ने गद्दी पर बैठने के साथ सबसे पहले उनके लिए अपने घर के दरवाजे बंद किए, जिस—जिस ने उससे कोई उम्मीद लगा रखी थी।

एनजीओ वाले अरविन्द दिल्ली की गलियों में, झुग्गी झोपड़ियों में लोगों से मिलते थे, उनकी समस्या सुनते थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने ऐसे लोगों के लिए अपने ‘शीश महल’ का दरवाजा सबसे पहले बंद किया। दिल्ली के आम आदमी के लिए मुख्यमंत्री कजरीवाल से मिलना नामुमकिन जैसा हो गया था। वे भारी सुरक्षा में रहने लगे, बड़ी कोठी ले ली, उनके काफिले में दर्जन भर गाड़ियां चलने लगी, उनका मुकदमा लड़ने के लिए वकील को करोड़ो रुपए की फीस दी जा रही थी। जब इसपर एक पत्रकार ने सवाल पूछा तो अरविन्द ने कहा कि वे मुख्यमंत्री हैं। उनका केस लड़ने के लिए सरकारी खर्चे पर सबसे अच्छा वकील ही रखा जाएगा। जवाब देते हुए अरविन्द भूल गए थे कि वे उसी आम आदमी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके कार्यकर्ता आरटीआई लगाकर दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पालतू कुत्ते के लिए प्रश्न पूछते थे कि इसे खाने के लिए जो बिस्कुट दिया जाता है। उसका खर्च सरकारी खजाने से वहन होता है या फिर शीलाजी अपने वेतन से मंगाती हैं?

हारने की महत्वपूर्ण वजह

अरविन्द के हारने की अनगिनत वजह विश्लेषक कल तक बताएंगे। महत्वपूर्ण वजहों में उनके दिल्ली की सत्ता से बाहर जाने की एक बड़ी वजह उनकी बदनामी भी है। जिस मारुति वैगन आर वाले आम आदमी को दिल्ली ने चुना था। जिसकी शर्ट में पांच रुपए (अब दस रुपए का) का एक रिनॉल्ड पेन लगा होता था। वह आम आदमी भारी सुरक्षा और करोड़ो के शीश महल के बीच कहीं खो गया। वह अपनी तुलना देश के प्रधानमंत्री से करने लगा। मतलब वह जिस राजनीति को बदलने आया था, धीरे धीरे उसका हिस्सा बनने की बेचैनी उसमें साफ दिखाई देने लगी। दिल्ली की जनता के बीच उसकी पहचान कट्टर ईमानदार की जगह कट्टर भ्रष्टाचारी की बन गई थी। अरविन्द को लगा था कि उसने मुफ्त की बिजली देकर झुग्गी-झोपड़ी-गरीब, मुसलमान, दलित मतदाताओं का आत्म सम्मान खरीद लिया है। दिल्ली ने मतदान से उसे गलत साबित कर दिया है।

अब अरविन्द दिल्ली की सत्ता से पांच साल के लिए बाहर हैं। उनके पास सोचने और आत्मचिंतन के लिए पर्याप्त समय है। उन्हें एक बार सोचना चाहिए कि जिस दिल्ली ने उन्हें सिर—आंखों पर बिठाया। उनसे ऐसी क्या भूल हुई कि इसी जनता ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।

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