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उच्च शिक्षा में सुधार की दिशा

आठवें वेतन योग की दहलीज पर ड्राफ्ट रेगुलेशन-2025 का जारी किया जाना हतप्रभ करता है। निश्चय ही, किसी भी क्षेत्र में समयानुकूल परिवर्तन अपेक्षित और आवश्यक होता है, लेकिन लगातार परिवर्तन नीतिगत निरन्तरता को पंगु करके विभ्रम पैदा करता है।

by प्रो. रसाल सिंह
Feb 7, 2025, 05:08 pm IST
in मत अभिमत
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6 जनवरी, 2025 को केन्द्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष प्रो. एम. जगदेश कुमार की उपस्थिति में ड्राफ्ट रेगुलेशन-2025 जारी किया था। यह उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों और अन्य शैक्षणिक कर्मियों की नियुक्ति और प्रोन्नति सम्बन्धी न्यूनतम अर्हता सुनिश्चित करने और उनकी सेवाशर्तों, शिक्षण एवं शोध कार्यभार, पेशेवर आचार-संहिता आदि से सम्बंधित है। इस मसौदे पर फीडबैक/प्रतिक्रिया देने के लिए शिक्षकों, शैक्षणिक प्रशासकों और छात्रों आदि सम्बंधित हितधारकों को एक माह की समयसीमा दी गयी है। हितधारकों से सुझाव मांगने, उनपर विचार-विमर्श करके नियमावली को अंतिम रूप देने की पहल स्वागतयोग्य और सराहनीय है।

इस ड्राफ्ट रेगुलेशन के जारी होने के 10 दिन के बाद केंद्र सरकार ने आठवें वेतन आयोग की घोषणा की। उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार द्वारा गठित/घोषित प्रत्येक वेतन आयोग के आलोक में ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग उच्च शिक्षा क्षेत्र से सम्बंधित शिक्षकों और अन्यान्य कर्मियों की सेवाशर्तों, वेतन-भत्तों आदि के सम्बन्ध में पुनरीक्षण समिति का गठन करके उन्हें अद्यतन और समीचीन बनाता रहा है। आठवें वेतन योग की दहलीज पर ड्राफ्ट रेगुलेशन-2025 का जारी किया जाना हतप्रभ करता है। निश्चय ही, किसी भी क्षेत्र में समयानुकूल परिवर्तन अपेक्षित और आवश्यक होता है, लेकिन लगातार परिवर्तन नीतिगत निरन्तरता को पंगु करके विभ्रम पैदा करता है। अभीतक रेगुलेशन-2018 को ही लागू करने की कवायद जारी है। इसलिए यह अवसर यू.जी.सी. रेगुलेशन-2018 की विसंगतियों (एनोमलीज) को दुरुस्त करने का था। 4-5 वर्ष के अंदर एकदम से आमूल-चूल परिवर्तन करते हुए नयी नियमावली का मसौदा जारी करना हितधारकों को चिंतित और भ्रमित करता है। उच्च शिक्षा क्षेत्र के सम्बन्ध में दूरगामी दृष्टि (विजन) और नीतिगत निरन्तरता अत्यंत आवश्यक हैI रेगुलेशन-2018 की विसंगतियों/समस्याओं पर विचार करने और उनका समाधान करने के लिए कई साल पहले एक एनोमलीज समिति बनाई गयी थीI लेकिन आजतक उस दिशा में कोई प्रगति न होने से हितधारकों में निराशा का वातावरण है।

इस मसौदे में प्रतिभाओं के संरक्षण और प्रोत्साहन का दावा तो किया गया है, लेकिन उसका कोई विश्वसनीय रोडमैप दिखाई नहीं पड़ता है। उच्च शिक्षा परिदृश्य को प्रतिस्पर्धी और पेशेवर बनाने के लिए प्रतिभाशाली और परिश्रमी लोगों के लिए ‘मीडियोकरों’ से अलग प्रावधान किये जाने चाहिए। ड्राफ्ट रेगुलेशन में शिक्षकों की नियुक्ति में स्नातक और स्नातकोत्तर के विषय की महत्ता कम करते हुए पीएचडी वाले विषयों में नियुक्ति की छूट दी गयी है। अंतर-अनुशासनिकता को प्रोत्साहित करने के लिए प्रस्तावित यह निर्णय अकादमिक जगत में अराजकता की शुरुआत करेगा। यह विषय विशेष से पढ़े हुए अभ्यर्थियों को अन्य विषय में शिक्षक बनने का रास्ता खोल देगा। इसी प्रकार चार वर्षीय स्नातक करने वाले छात्रों को भी कॉलेजों/विश्वविद्यालयों में शिक्षक बनने का अवसर देना अकादमिक गुणवत्ता में गिरावट लायेगा। रेगुलेशन-2018 में विश्वविद्यालय में शिक्षक बनने के लिए पीएचडी की अनिवार्यता का प्रावधान किया गया था, क्योंकि विश्वविद्यालय के शिक्षकों को अध्यापन से अधिक शोध-कार्य करना होता है। इस प्रावधान को विभिन्न अनुदेशों के माध्यम से टाला जाता रहा और अंततः समाप्त कर दिया गया है। इसीप्रकार प्रकाशन की गुणवत्ता के सम्बन्ध में केअर लिस्टेड/स्कोपस इंडेक्स्ड जर्नल की आवाजाही लगी रही। अब पुस्तक के अध्यायों को शोध-पत्रों के समकक्ष दर्जा दे दिया गया है। यह चिंताजनक है। अभ्यर्थी के विभिन्न अकादमिक परीक्षाओं के अकादमिक परिणाम, शोध-कार्य और प्रकाशन आदि को महत्व देने और साक्षात्कार की भूमिका सीमित करने के सम्बन्ध में भी कोई पारदर्शी, वस्तुपरक और न्यायसंगत नीति नहीं बनायी गयी है। सर्वशक्तिमान चयन-समिति केन्द्रित नियुक्ति-प्रक्रिया को समय और सुविधानुसार तोड़ा-मरोड़ा जाता रहा है। वस्तुपरकता, पारदर्शिता,नीतिगत निरन्तरता और दूरदर्शिता का अभाव उच्च शिक्षा का श्मशान घाट है। एकबार फिर अभ्यर्थी की अकादमिक उपलब्धियों को नज़रन्दाज करते हुए वायवीय,अस्पष्ट और अमूर्त्त मानकों के आधार पर उसका मूल्यांकन करने का अधिकार चयन समिति को दे दिया गया है। अकादमिक उपलब्धियों सम्बन्धी वस्तुपरक और सुपरिभाषित मानदंडों के स्थान पर नियुक्ति-प्रक्रिया को चयन समिति केन्द्रित बना दिया गया है। प्रकाशन की गुणवत्ता के निर्धारण से लेकर अंतिम चयन तक वही सर्वशक्तिमान होगी। यह छिपा नहीं है कि अकादमिक दुनिया जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाई-भतीजावाद और परिवारवाद से सड़ांधग्रस्त है। संपर्कों- सम्बन्धों और लेन-देन के अभाव में योग्यतम अभ्यर्थी साक्षात्कार देते-देते बूढ़े हो जाते हैं। योग्यतम व्यक्ति को शिक्षण का दायित्व देकर और पठन-पाठन के अनुकूल परिस्थितियां और वातावरण बनाकर ही विकसित भारत के संकल्प को साकार किया जा सकता है।

उच्च शिक्षा क्षेत्र में दिशा परिवर्तन की जरूरत है। सरकारी स्कूलों में मजदूरों और मजबूरों के बच्चे पढ़ते हैं। वे वहां मिड डे मील, मुफ्त ड्रेस, किताब-कॉपी और वजीफे के लालच में नामांकन कराते हैं। क्या हम चाहते हैं कि हमारे देखते-देखते हमारे कॉलेज और विश्वविद्यालय भी वीरान हो जाएँ? आज मध्यवर्गीय अभिभावक अपने बच्चों को प्रतिष्ठित रहे सरकारी विश्वविद्यालयों की जगह विदेशी विश्वविद्यालयों यानि प्राइवेट विश्वविद्यालयों में भेजने लगे हैं। यह सरकारी संस्थानों से प्रतिभा पलायन का प्रारंभ है। इन विदेशी विश्वविद्यालयों/प्राइवेट विश्वविद्यालयों की फीस प्राइवेट स्कूलों की ही तरह है। लेकिन मरता, क्या न करता….! लोग अपने बच्चों का भविष्य बनाने की चाह में अपना पेट और जेब दोनों कटवाने को विवश हैंI

अलग-अलग संस्थान अपनी-अपनी दुकानों में स्वायत्तता के नाम पर मनमानी कर रहे हैं। स्वायत्तता अकादमिक गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए दी गयी थी, किन्तु समयांतराल में उसकी आड़ में नियुक्तियों की बंदरबांट हुई है। इस खुले खेल के दुष्प्रभावों से समूचा उच्च शिक्षा क्षेत्र गंधा गया है। वेंटिलेशन पर पड़ी उच्च शिक्षा को अगर बचाना है तो संघ लोक सेवा आयोग की तर्ज पर तत्काल भारतीय उच्च शिक्षा सेवा शुरू की जानी चाहिए। केंद्र सरकार से अनुदान प्राप्त सभी संस्थानों को इसके दायरे में लाया जाना चाहिए। इन सभी संस्थानों से रिक्तियों का विवरण मांगकर साल में एकबार विज्ञापन आना चाहिए और एकसाथ लिखित परीक्षा और साक्षात्कार किया जाना चाहिए। नियुक्ति में 50 प्रतिशत अधिभार लिखित परीक्षा, 30 प्रतिशत अधिभार समस्त अकादमिक उपलब्धियों, और 20 प्रतिशत अधिभार साक्षात्कार को दिया जाना चाहिए। पूरी नियुक्ति–प्रक्रिया को कोडेड बनाकर गोपनीयता सुनिश्चित की जानी चाहिए। सफल अभ्यर्थियों को मेरिट सूची में उनके स्थान, कॉलेज/विश्वविद्यालय को दी गयी वरीयता और उसके स्थायी निवास-स्थान आदि के समेकित अधिभार के आधार पर नियुक्ति दी जानी चाहिए। सत्र के बीच में कोई रिक्ति आने पर प्रतीक्षा सूची में से नियुक्ति की जानी चाहिए ताकि एडहॉक,अनुबंध और गेस्ट नियुक्तियों वाली अमानवीय व्यवस्था बंद हो सके। वर्तमान नियुक्ति प्रक्रिया में सर्वाधिकारसंपन्न चयन समिति के सदस्य अपने छात्रों/शोधार्थियों का झटपट साक्षात्कार लेते हैं और उनकी “मेरिट” का चटपट आकलन करते हुए उनका चयन कर लेते हैं। क्या इस व्यवस्था में निष्पक्षता और न्याय संभव है?

ड्राफ्ट रेगुलेशन में प्राचार्य पद को मात्र 5 वर्ष के लिए सीमित कर दिया गया है। यह निर्णय संस्थान में नीतिगत निरन्तरता और स्थिरता की समाप्ति करते हुए अस्थायी नीतियों और तात्कालिकता को प्रोत्साहित करेगा। दूरदर्शी, दूरगामी और सुचिंतित नीतियों, विकास योजनाओं और सांस्थानिक लक्ष्यों को बाधित करेगा। संस्थान के चतुर्दिक विकास के लिए नेतृत्व की क्षमता,योग्यता, स्थिरता और कार्यकाल सम्बन्धी सुरक्षा आवश्यक हैI मजबूर नहीं, मजबूत प्रशासक ही संस्थान का कायाकल्प कर सकता है। प्राचार्य का पहला कार्यकाल 10 वर्ष करते हुए प्रत्येक 5 वर्ष पर उसके कार्य/प्रदर्शन की समीक्षा का प्रावधान किया जाना चाहिए। यू जी सी से अनुदान प्राप्त सभी कॉलेजों के प्राचार्यों और सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति-प्रक्रिया को भी केंद्रीकृत करने की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया में सामाजिक न्याय के प्रावधानों का भी अनुपालन किया जाना चाहिएI केंद्रीकृत नियुक्ति प्रक्रिया से न सिर्फ समस्त अभ्यर्थियों के समय और धन की बचत होगी, बल्कि लगातार चलने वाली चयन समितियों पर होने वाले खर्च,समय आदि संसाधनों की भी बचत सुनिश्चित होगी।

ड्राफ्ट रेगुलेशन में कुलपति के रूप में शिक्षाविदों के अलावा उद्यमियों, प्रशासन/पुलिस/सेना के अधिकारियों, कम्पनियों के प्रबंधकों आदि को चुनने की भी प्रस्तावना की गयी है। यह निर्णय प्रतिगामी होगा। इसकी जगह अकादमिक प्रशासन में उपलब्धियां हासिल करने वाले अनुभवी संस्थान-निर्माताओं को कुलपति के रूप में चुना जाना चाहिए। संस्थान को बनाने/विकसित करने वाले दृष्टिसंपन्न कुलपतियों के लिए भी कार्य-समीक्षा के आधार पर दूसरे कार्यकाल का प्रावधान किया जाना चाहिए। उच्च शिक्षा क्षेत्र में तीन आयाम (वर्टिकल) बनाये जाने चाहिए- अध्यापन/शिक्षण, शोध/अनुसन्धान और अकादमिक प्रशासन। शिक्षकों को कैरियर प्रारम्भ करते ही प्रतिभा,योग्यता और अभिरुचि के आधार पर क्रमशः इन तीन में से एक में प्रशिक्षित और विकसित किया जाना चाहिए। हमारे देश में अकादमिक प्रशासन को अत्यधिक हल्के में लिया जाता है और किसी भी आचार्य को प्राचार्य या कुलपति बनाने की रवायत है, जबकि अकादमिक प्रशासन अत्यंत चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है। यह विशेषज्ञता, अनुभव और प्रशिक्षण की मांग करता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के घोषित लक्ष्य के अनुरूप अगर भारत में अंतरराष्ट्रीय ख्याति के शिक्षण संस्थान बनाने/विकसित करने हैं, विश्वगुरू और विकसित भारत के स्वप्न को साकार करना है, और हमें उच्च शिक्षा क्षेत्र में लम्बी लकीर खींचनी है तो दूरगामी और दूरदर्शी नीति-निर्माण करना होगा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को रेगुलेशन-2018 की विसंगतियों को दूर करने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और नवगठित आठवें वेतन आयोग के आलोक में अनुभवी संस्थान निर्माता शिक्षाविदों की समिति गठित करके उपरोक्त सुझावों के मद्देनज़र व्यापक विचार–विमर्श करते हुए उच्च शिक्षा क्षेत्र में सुधार की दिशा में काम करना चाहिए। हड़बड़ी में गड़बड़ी होने की आशंका है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 युगांतरकारी पहल है। इसके क्रियान्वयन में आने वाली चुनौतियों को समझते हुए आवश्यक संसाधन मुहैया कराने, आधारभूत ढांचा विकसित करने, छात्र-शिक्षक अनुपात बढ़ाने और भारतीय भाषाओं में स्तरीय पाठ्य-सामग्री उपलब्ध कराने का काम प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामानुजन कॉलेज में प्राचार्य हैं)

Topics: भारतीय उच्च शिक्षा प्रणालीशोध और प्रकाशन मानकवेतन आयोग शिक्षा क्षेत्रविश्वविद्यालय अनुदान आयोगUGC Draft Regulation 2025University Grants CommissionHigher Education Reformsराष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020PhD Requirement in UniversitiesNational Education Policy-2020Faculty Recruitment Processशिक्षक नियुक्ति प्रक्रियाIndian Higher Education SystemUGC ड्राफ्ट रेगुलेशन 2025Research and Publication Standardsउच्च शिक्षा सुधारPay Commission for Education Sectorपीएचडी अनिवार्यता
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