उत्तराखंड

Uttarakhand forest encroachment: एनजीटी के निर्देश भी बेअसर, टाइम पास कर रहे अधिकारी

एक सूचना के मुताबिक, राज्य के 11900 हेक्टेयर भूमि पर अवैध कब्जे हैं। जो कि पिछले छह सालों में 2400 हेक्टेयर बढ़ गए हैं।

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दिनेश मानसेरा

Uttarakhand forest encroachment: उत्तराखंड के 70 फीसदी भूभाग पर जंगल होने का दावा कितना सच है? ये बात एनजीटी के द्वारा जारी दिशा निर्देशों में सामने आ रही है। एक सूचना के मुताबिक, राज्य के 11900 हेक्टेयर भूमि पर अवैध कब्जे हैं। जो कि पिछले छह सालों में 2400 हेक्टेयर बढ़ गए हैं।

वन विभाग द्वारा एनजीटी को 2023 में 9506 हेक्टेयर भूमि पर कब्जे होने की रिपोर्ट भेजी गई थी। इस रिपोर्ट में वो कब्जे भी शामिल हैं जिन पर अब बड़ी संख्या में आबादी रहती है। नैनीताल जिले में बिंदुखत्ता, जवाहर ज्योति जैसे वन क्षेत्र अब जंगल नहीं रहे अलबत्ता दस्तावेजों में वन भूमि है, जिन्हें सरकार को राजस्व ग्राम या शहरी क्षेत्र में शामिल करना है, यहां सड़कें हैं बिजली पानी और पक्के मकानों का निर्माण हो चुका है, फिर भी ये अतिक्रमण की श्रेणी में दर्ज है और इन पर बरसों से चुनाव के दौरान राजनीति होती रही है।

लेकिन, पिछले कुछ सालों से वनक्षेत्र में नदी श्रेणी की भूमि पर बड़ी संख्या में बाहरी लोगों ने आकर अवैध बसावट कर ली है, देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और उधम सिंह नगर जिलों में ये अवैध कब्जे उत्तराखंड सरकार के लिए नासूर से बन गए हैं।जानकारी के मुताबिक, करीब ढाई हजार हेक्टेयर क्षेत्र में पिछले छह सालों से अवैध कब्जे हुए हैं। उत्तराखंड में 14 नदियां ऐसी है जिनके किनारे सैकड़ों हेक्टेयर भूमि पर अवैध कब्जे तेजी से पांव पसार रहे हैं। देहरादून जिले में रिसपना, बिंदाल, कुल्हाल, यमुना और अन्य नदियां इस अतिक्रमण की चपेट में हैं, जबकि नैनीताल जिले में कोसी, गोला, नंधौर, हरिद्वार में गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे अतिक्रमण है।

वन विभाग का अपना प्रशासन चलता है। वन कर्मियों के पास समुचित साधन नहीं है, जिससे वो अतिक्रमण को हटा सके। इसी कमजोरी का फायदा कब्जेदार उठा रहे हैं। वन विभाग के उच्च अधिकारियों का प्रशासन के साथ तालमेल का भी आभाव देखा गया है। देहरादून में रिसपना और बिंदाल नदियों से अतिक्रमण हटाने के सख्त निर्देश एनजीटी भी दे चुका है, परन्तु इस पर राजनीतिक कारणों से कारवाई नहीं हो पा रही है।

नदी श्रेणी के साथ साथ जंगल के भीतर भी वन गुज्जरों ने सैकड़ों हेक्टेयर कब्जे कर खेती कर रहे हैं। जबकि, सरकार इन्हें मुआवजे देकर जंगल से बाहर करने की योजना को पूरा कर चुकी है। सरकारी वन भूमि पर ये अवैध कब्जे किसके संरक्षण में हुए? जब जंगल की भूमि है तो यहां से पेड़ कहां गए? और खेती करने की अनुमति कौन से रहा है? ऐसे कई सवालों पर वन विभाग या तो मौन साध लेता है या फिर अतिक्रमण करने वाले को कोर्ट जाने का मौका दे देता है और उसके बाद कोर्ट में कमजोर पैरवी की वजह से अवैध कब्जों की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है।

वन विभाग के सर्वोच्च अधिकारी पीसीसीएफ (हॉफ) डॉ धनंजय मोहन का कहना है कि वन भूमि से अतिक्रमण हटाने का अभियान जारी है, कुछ कब्जे ऐसे है जिसमें असंख्य आबादी है जिनपर सरकार को निर्णय लेना है। हमें अपना रिकॉर्ड दुरुस्त रखना होता है और वही हम एनजीटी को भी भेजते हैं और उसमें ऐसे अतिक्रमण का ब्यौरा लिख कर भेजते हैं।

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