अरविंद केजरीवाल घूम-घूमकर दिल्ली सरकार के कथित शिक्षा मॉडल का प्रचार कर रहे हैं। लेकिन जमीनी हकीकत इससे कहीं अलग है। शिक्षा के लिए जरूरी होते हैं शिक्षक, लेकिन विज्ञापनों के उलट दिल्ली के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की स्थिति अत्यन्त खराब है। शिक्षक आआपा की कथित शिक्षा क्रांतिकारी नीतियों के शिकार हैं। उन पर दबाव काफी बढ़ गया है। कारण, सुधारों के लिए लक्ष्य तो बड़े हैं, लेकिन कक्षाओं के अंदर देखने भर से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सुधार सरकार के विज्ञापनों की तरह व्यापक और प्रभावी, बिल्कुल भी नहीं हैं।
शिक्षकों को शिक्षा के अतिरिक्त चुनावी ड्यूटी, सर्वेक्षण जैसे गैर-शैक्षणिक कार्यों में झोंका जा रहा है, जिससे वे अपनी मूल जिम्मेदारियों से हट जाते हैं। 2022 में दिल्ली सरकार के शिक्षा मॉडल पर एक सर्वेक्षण किया गया, जिसमें सरकार के दावों की पोल खुलती दिखती है। उस सर्वेक्षण के अनुसार, दिल्ली में 68 प्रतिशत शिक्षकों ने स्वीकार किया था कि सरकार की नीतियों से उनके मूल कर्तव्य बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। साथ ही, उन पर जरूरत से अधिक बोझ बढ़ गया है। इससे पता चला कि आआपा की कथित शिक्षा सुधार योजना नवउदारवादी नीतियों से प्रेरित है। लेकिन इनकी विडंबना यह है कि इन नीतियों के कारण शैक्षणिक व्यवस्था पर राज्य का नियंत्रण बढ़ने के कारण संस्थाओं की स्वतंत्रता छिन गई है।
नतीजे सिफर
शिक्षा मॉडल का हौवा खड़ा करने के बाद भी सरकारी स्कूलों के अधिकांश छात्र अपेक्षित परिणाम नहीं ला सके। आआपा सरकार ने ‘टीच अवर इंडिया’ जैसे कॉपोर्रेट एनजीओ ने आआपा सरकार की शिक्षा नीति को बेहतर तरीके से लागू करने के प्रयास भी किए, लेकिन यह भी तकनीक से वंचित छात्रों की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाया। सच तो यह है कि जिस प्रकार से यह सरकार कॉपोर्रेट परोपकार पर निर्भर है, उससे शिक्षा की समावेशी स्थिरता अधिक प्रभावित हुई है। अपने कथित क्रांतिकारी कदमों के तहत आआपा सरकार ने ‘मिशन बुनियाद’, ‘चुनौती’, ‘हैप्पीनेस करिकुलम’, ‘देशभक्ति’ और एंटरप्रेन्योरशिप माइंडसेट करिकुलम (ईएमसी) सहित कई कार्यक्रम शुरू किए, लेकिन वे सभी धरातल पर वैसे बिल्कुल भी नहीं दिखे, जैसे होने चाहिए थे। 2021 के राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण को देखें तो मामूली-सा सुधार हुआ है। लेकिन गणित में सरकारी स्कूलों के छात्रों का प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत जैसा ही रहा।
आआपा सरकार के कथित क्रांतिकारी शिक्षा मॉडल पर दिल्ली भाजपा अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा ने कहा, ‘‘अरविंद केजरीवाल के तथाकथित शिक्षा मॉडल की सच्चाई बेहद चिंताजनक है। नौवीं कक्षा के 17,308 बच्चे दूसरी बार फेल हो गए और उन्हें कहा गया है कि वे किसी और स्कूल में जाकर पढ़ाई करें। यह स्थिति न केवल शिक्षा प्रणाली की विफलता को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि बच्चों के भविष्य को लेकर सरकार कितनी असंवेदनशील है। शिक्षा की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ओपन स्कूल में मात्र 6,000 बच्चों ने पंजीकरण कराया, जबकि 11,000 बच्चों ने तो पढ़ाई ही छोड़ दी। यह अरविंद केजरीवाल के शिक्षा के झूठे दावों की पोल खोलता है और दर्शाता है कि उनका मॉडल सिर्फ प्रचार का हिस्सा है, वास्तविकता नहीं।’’
प्रचार पर ध्यान
कई रिपोर्ट से पता चलता है कि आआपा सरकार दिल्ली में प्रतिभा विकास स्कूलों को बंद कर रही है। इसमें पहले ही 6 से 10 तक कक्षाएं बंद की जा चुकी हैं। अब इस वर्ष तक 11वीं और 12वीं के स्कूलों को भी बंद करने की तैयारी है। इसके अलावा, सरकार के भ्रष्टाचार, गलत धन के आवंटन के आरोपों के बीच उच्च शिक्षा व्यय की स्थिरता पर भी लगातार सवाल उठ रहे हैं। बावजूद इसके सरकार शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक सुधार करने की कोशिश करने की जगह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनीति चमकाने के लिए अपने छद्म सुधारों को मीडिया में ‘क्रांतिकारी’ सफलता के रूप में पेश कर रही है।
दिल्ली सरकार के कॉलेज वित्त पोषण की समस्या से जूझ रहे हैं। एक ओर दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति कर रहा है, दूसरी ओर उसी से संबद्ध दिल्ली सरकार के द्वारा वित्तपोषित 12 कॉलेजों में प्रशासन के संचालन पर ही विवाद चल रहा है। कारण बहुत स्पष्ट है, इन कॉलेजों को वित्तपोषण, शिक्षकों के वेतन और अन्य दूसरे कार्यों के लिए जूझना पड़ रहा है। इस मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने एक रिपोर्ट में आरोप लगाया था कि इन कॉलेजों के 78 प्रतिशत शिक्षकों को 2021 में कई माह देरी से वेतन दिया गया।
2021 के आंकड़ों को देखें तो कुल 352 करोड़ रुपये इन कॉलेजों के लिए आवंटित किए गए थे, लेकिन अगले वर्ष इसमें मामूली सी बढ़ोतरी करते हुए इसे 361 करोड़ किया गया। वहीं 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली विश्वविद्यालय के अन्य संकायों में 5000 से अधिक नियुक्तियां की गईं, जबकि इन 12 कॉलेजों में 40 प्रतिशत पद अभी रिक्त हैं। इसका सबसे बुरा असर छात्रों पर भी पड़ा है। 2022 के ही एक आंकड़े की मानें तो 67 प्रतिशत छात्र इन कॉलेजों से पूरी तरह से असंतुष्ट थे। छात्रों को स्कॉलरशिप भी नहीं दी गई। इससे सरकार की विफलता और कुप्रबंधन दिखता है। सरकार की बयानबाजी और हकीकत के बीच सच में एक बड़ा अंतर दिखता।
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