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विश्व को यूनान नहीं, ‘’वैशाली’’ से मिली गणतांत्रिक शासन प्रणाली

आज देश-दुनिया के बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि गणराज्यों की परंपरा यूनान के नगर राज्यों से प्रारंभ हुई थी; लेकिन उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि इन नगर राज्यों से हजारों वर्ष पहले भारतवर्ष में अनेक गणराज्य स्थापित हो चुके थे।

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पूनम नेगी

आज देश-दुनिया के बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि गणराज्यों की परंपरा यूनान के नगर राज्यों से प्रारंभ हुई थी; लेकिन उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि इन नगर राज्यों से हजारों वर्ष पहले भारतवर्ष में अनेक गणराज्य स्थापित हो चुके थे। इन गणराज्यों की शासन व्यवस्था अत्यंत सुदृढ़ थी। हर्ष का विषय है कि आज दुनिया के ज्यादातर देशों द्वारा विश्व की उसी शासन प्रणाली को सर्वोत्तम की मान्यता मिली हुई है जिसकी शुरुआत आज से ढाई हजार साल पहले भारत के वैशाली गणतंत्र के रूप में विकसित हुई थी।

दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कालेज में सहायक प्रोफेसर डा. प्रभांशु ओझा के अनुसार प्राचीन भारतीय साहित्य के विविध उद्धरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारत का सबसे पहला गणराज्य वैशाली था। अमेरिका व ब्रिटेन जैसे लोकतांत्रिक देशों में आज जो उच्च सदन और निम्न सदन की कार्यप्रणाली दिखायी देती है, उसकी बुनियाद वैशाली गणराज्य में ही रखी गयी थी। वैशाली मूलतः वज्जी महाजनपद की राजधानी थी जहां लिच्छवियों ने गणतंत्र की स्थापना की थी। लिच्छवियों का संबंध हिमालयन आदिवासी लिच्छ से माना जाता है। वैशाली गणराज्य में शासन को नियंत्रित करने के लिए समितियां बनायी जाती थीं जो जनता के लिए नियम और नीतियां बनाती थीं और उनकी हर तरह की गतिविधि पर बारीकी से नजर रखती थीं। साथ ही ये समितियां समय के अनुसार गणराज्य की नीतियों में बदलाव भी लाती थीं। कलांतर में ‘’वैशाली’’ एक शक्तिशाली गणराज्य के रूप में उभरा। इस प्रकार एक नई प्रणाली ईजाद हुई, जिसे आज हम ‘गणतंत्र’ कहते हैं।

प्राचीन भारत के सुप्रसिद्ध गणराज्य

कौटिल्य यानी आचार्य चाणक्य के अर्थशास्त्र में वैशाली के अलावा बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि प्राचीन भारत के कई अन्य गणराज्यों का भी उल्लेख मिलता है। पालि, संस्कृत, ब्राह्मी लिपि में उपलब्ध साहित्य में ऐसे बहुसमर्थित राज्य के बारे अनेक संदर्भ मौजूद हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि जनतांत्रिक पहचान वाले ‘गण’ तथा ‘संघ’ जैसे स्वतंत्र शब्द भारत में आज से 2600 वर्ष पहले ही प्रयोग होने लगे थे। यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी अपने यात्रा वृतांत ने ‘क्षुदक’, ‘मालव’ और ‘शिवि’ आदि गणराज्यों का वर्णन किया था। बताते चलें कि बौद्ध परंपरा में विद्यमान संघ की संकल्पना भी शासन करने की एक सभा के रूप में विकसित की गयी थी। इसमें किसी भी निर्णय के लिए मत का प्रयोग किया जाना अनिवार्य था।

गणराज्य की सफलता के मानक

बौद्ध साहित्य में वर्णित एक घटना के अनुसार महात्मा बुद्ध से एक बार पूछा गया कि गणराज्य की सफलता के क्या मानक होने चाहिए ? इस पर तथागत बुद्ध ने यह सात मानक बताये –

  • जल्दी- जल्दी सभाएं करना और उनमें अधिक से अधिक सदस्यों का भाग लेना।
  • राज्य के कामों को मिलजुल कर पूरा करना।
  • कानूनों का पालन पूरी ईमानदारी से करना।
  • समाज विरोधी कानूनों का निर्माण न करना।
  • वृद्धों व महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार न करना।
  • स्वधर्म में दृढ़ विश्वास रखना।
  • नागरिक कर्तव्यों का पालन निष्ठा से करना।
  • वैदिक साहित्य में गणतंत्रीय व्यवस्था

बताते चलें कि गण शब्द का प्रयोग ‘ऋग्वेद’ में 40 बार, ‘अथर्ववेद’ में नौ बार और ‘ब्राह्मण ग्रंथों’ में अनेक बार मिलता है। वैदिक साहित्य के विभिन्न उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अखंड भारत के कई राज्यों में गणतंत्रीय व्यवस्था कायम थी। ‘’समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों’’; ऋग्वेद का यह सूक्त प्राचीन भारत में गणतंत्रीय व्यवस्था की सुदृढ़ता का परिचायक है। यह सच है कि अखंड भारत में मूलत: राजतंत्र था लेकिन विशेष बात यह थी कि राजतंत्र में भी निरंकुश राजा को स्वीकार नहीं किया जाता था। राजतंत्र में जनमत की अवहेलना एक गंभीर अपराध था। दंड से स्वयं राजा या राजवंश भी नहीं बच सकता था। इस बात का प्रमाण है त्रेतायुगीन वह कथानक जिसमें राजा सगर ने अत्याचार के आरोप में अपने पुत्र को राज्य से निष्कासित कर दिया था और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को भी लोकापवाद के कारण अपनी पत्नी सीता का परित्याग करना पड़ा था। इसी तरह पौराणिक साक्ष्य बताते हैं कि द्वापर युग में ‘’कुरु’’ और ‘’पांचाल’’ राज्यों में पहले राजतंत्रीय व्यवस्था थी किन्तु ईसा से लगभग चार या पाँच शताब्दी पूर्व उन्होंने भी गणतंत्रीय व्यवस्था अपना ली थी। महाभारत के ‘’सभापर्व’’ में अर्जुन द्वारा अनेक गणराज्यों को जीतकर उन्हें कर देने वाले राज्य बनाने का जिक्र मिलता है। महाभारत में गणराज्यों की व्यवस्था की भी विशद विवेचना है जिसके अनुसार गणराज्य में एक जनसभा होती थी, जिसमें सभी सदस्यों को वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। गणराज्य के अध्यक्ष पद पर जनता ही किसी नागरिक का निर्वाचन करती थी। आचार्य पाणिनी के व्याकरण ग्रन्थ ‘अष्ठाध्यायी’ में ‘’जनपद’’ शब्द का उल्लेख अनेक स्थानों पर किया गया है, जिनकी शासन व्यवस्था जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के
हाथों में रहती थी।

उत्खनन में मिले मध्ययुगीन गणतंत्र के साक्ष्य
कई अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य भी बताते हैं कि मध्य युग में आधुनिक आगरा और जयपुर के क्षेत्र में भी विशाल ‘अर्जुनायन’ नामक गणतंत्र था, जिसकी मुद्राएँ भी उत्खनन में मिली हैं। यह गणराज्य सहारनपुर-भागलपुर-लुधियाना और दिल्ली के बीच फैला था। इसमें तीन छोटे गणराज्य और शामिल थे, जिससे इसका रूप संघात्मक बन गया था। गोरखपुर और उत्तर बिहार में भी अनेक गणतंत्र थे। इन गणराज्यों में राष्ट्रीय भावना बहुत प्रबल हुआ करती थी और किसी भी राजतंत्रीय राज्य से युद्घ होने पर, ये मिलकर संयुक्त रूप से उसका सामना करते थे।

भारत की पहली संसद ‘अनुभव मंडप’

यह एक भ्रामक तथ्य है कि लोकतंत्र की संकल्पना पश्चिमी समाज में मैग्नाकार्टा के माध्यम से विकसित हुई। योरोपियन ‘मैग्नाकार्टा’ से भी कई वर्ष पूर्व दक्षिण भारतीय दार्शनिक, समाज सुधारक एवं लिंगायत संप्रदाय के संस्थापक गुरु बसवेश्वर द्वारा ‘अनुभव मंडप’ की स्थापना की गयी थी। यह ‘अनुभव मंडप’ सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा के लिए जनप्रतिनिधियों को एक सामान्य मंच उपलब्ध कराता था। इसे भारत की पहली संसद माना जाता है, जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया जाता था। तब विश्व के किसी भी भाग में यह परंपरा देखने को नहीं मिलती थी। इसी क्रम में एक और उदाहरण है तमिलनाडु का। यहां एक छोटा सा शहर है उत्तरामेरूर। यह चेन्नई से लगभग 90 किलोमीटर दूर है। दक्षिण के उत्तरामेरूर के बैकुंठ पेरुमल मंदिर की दीवारों पर एक शिलालेख है। यह शासन की एक बहुत विस्तृत लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक जीता जागता उदाहरण है। अकादमिक उद्देश्यों के लिए आप इसे अर्ध-लोकतांत्रिक संस्था कह सकते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया को समुदाय द्वारा लोकतांत्रिक रूप से स्वीकार किया गया था। तमिलनाडु में दसवीं सदी के प्रारंभ में परंथका चोल प्रथम चोल राजा था।

उत्तरामेरूर के ग्रामीणों ने यह तय करने के लिए एक प्रणाली को लागू करने का फैसला किया कि उनके प्रतिनिधि कौन हो सकते हैं? यह चुनाव प्रक्रिया साल में एक बार आयोजित की जाती थी। पूरे क्षेत्र को 30 हिस्सों में व्यवस्थित किया गया था। तीन समितियों के लिए चुनाव होते थे। खातों को सत्यापित करने के लिए एक प्रकार के लेखाकार की व्यवस्था थी। निर्वाचित उम्मीदवार को वापस बुलाने के लिए नियमों का एक समुच्चय निर्धारित था। गौर करने वाली बात यह है कि नैतिकता को सुनिश्चित करने हेतु ईमानदारी, सत्यनिष्ठा एवं मूल्यों से ओतप्रोत उम्मीदवारों का चयन किया जाता था। यह एक लिखित संविधान था। गांव होने के कारण इसका दायरा छोटा हो सकता है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू स्वशासन की व्यवस्था थी। प्रत्येक समिति का कामकाज काफी विस्तृत था, जिसमें न्यायिक, वाणिज्यिक, कृषि, सिंचाई और परिवहन कार्य शामिल थे।

भारत की लोकतंत्रात्मक व्यवस्था विश्व के लिए प्रेरणादायक

दरअसल लोकतंत्र जीवन को समुचित ढंग से संचालित करने का एक तरीका है। वर्तमान में लोकतंत्र की प्रकृति में बदलाव आ रहा है। यह शासन व्यवस्था के विशेष स्वरूप तक सीमित न होकर व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के सभी पक्षों को संबोधित करने का एक पर्याय हो गया है। इस संकल्पना में भागीदारी, प्रतिनिधित्व, जवाबदेही, जनसामान्य की सहमति, बंधुता का आदर्श और आत्मविकास सन्निहित है। भारत में मौजूद शासन प्रणाली की त्रिस्तरीय संरचना है, जिसमें विकेंद्रीकरण की प्रासंगिकता महत्वपूर्ण है। इसी भावना के साथ भारत में सदियों से चली आ रही लोकतंत्रत्मक व्यवस्था भावी वैश्विक समाज के लिए प्रेरणादायक है। जो लोकतांत्रिक व्यवस्था उपहार स्वरूप हमारे पूर्वजों ने हमें दी, उसे सहेजना और भावी पीढ़ी तक संप्रेषित करना समस्त भारतीय समाज और उसके नागरिकों का दायित्व है।

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