आद्य शंकराचार्य ने देश में चारों दिशाओं में अखाड़ों की स्थापना सनातन धर्म, संस्कृति के प्रसार और उसकी रक्षा के उद्देश्य से की थी। यही कारण था कि अखाड़ों से जुड़े साधु-संतों को शास्त्र के साथ-साथ शस्त्र की दीक्षा-शिक्षा भी दी गई, ताकि वे वैचारिक हमले का शास्त्रोक्त और शारीरिक हमले का शस्त्र से प्रत्युत्तर दे सकें, प्रतिकार कर सकें। अखाड़ों के नागा संन्यासियों ने विदेशी आक्रांताओं के लगातार हमलों के दौरान कई अवसरों पर राजाओं-महाराजाओं की मदद भी की। उनका संघर्ष आध्यात्मिकता और वीरता का अनूठा संगम है।
प्राचीनकाल में आतताइयों से आम जनमानस को शास्त्र और शस्त्र सहित सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। उस समय आद्य शंकराचार्य ने महसूस किया कि समाज में धर्म विरोधी शक्तियां सिर उठा रही हैं और अकेले आध्यात्मिक शक्ति ही इन चुनौतियों का मुकाबला नहीं कर सकती। ऐसे में उन्होंने सनातन धर्म की पुनर्स्थापना के लिए कई कदम उठाए। इनमें देश के चार कोनों पर चार पीठों-गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ की स्थापना भी शामिल हैं। शंकराचार्य ने इस बात पर जोर दिया कि युवा संन्यासी कसरत करके शरीर को सुदृढ़ बनाएं और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। साथ ही, उन्होंने यह सुझाव भी दिया कि मठ, मंदिरों और धर्मावलंबियों की रक्षा के लिए जरूरत पड़ने पर बल प्रयोग करें। इस तरह, बाहरी आक्रमणकारियों के दौर में अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया।
अखाड़ों की संघर्ष गाथा
अखाड़ों के संघर्ष की लंबी गाथा है। उनका इतिहास वीरता से भरा है। ये अखाड़े सदियों से धर्म की रक्षा करते आए हैं। प्राचीन काल से ही नागा साधु दल, जिन्हें झुंडी कहा जाता था, देश में घूमते रहते रहे हैं। समय-समय पर इन अखाड़ों ने मुगल आक्रांताओं और अंग्रेजों से मोर्चा लेने के लिए शस्त्र उठाया और बड़ी संख्या में अखाड़ा से जुड़े महंत, नागा साधु-संन्यासियों ने तीर्थस्थलों एवं मंदिरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुतियां दी हैं। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है, जिनमें बड़ी संख्या में नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया।
साधु-संन्यासियों में शस्त्र धारण की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। परशुराम, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा विश्वामित्र इसके उदाहरण हैं। महर्षि विश्वामित्र ने ही श्रीराम को अस्त्र-शस्त्र तथा दिव्यास्त्रों का प्रशिक्षण दिया था। अगस्त्य ऋषि ने रामजी को वनवास के समय दिव्यास्त्र भेंट किया था। (वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड, 12, 32-37)।
इसी तरह, ऋग्वेद में दशराज्ञ युद्ध का उल्लेख आता है, जिसमें भरतों और दश राजाओं के बीच युद्ध हुआ था। परुष्णी (रावी) के तट पर हुए इस युद्ध में भरतों का समर्थन ऋषि वशिष्ठ तथा दशराज्ञों के समूह का समर्थन विश्वामित्र ने किया था। नागा संप्रदाय की परंपरा भी बहुत पुरानी है। सिंध की रम्य घाटी में स्थित विख्यात मोहनजोदड़ो नामक स्थल की खोदाई में मिली मुद्रा तथा उस पर पशुओं द्वारा पूजित एवं दिगंबर रूप में विराजमान पशुपति का अंकन इसका प्रमाण है। योद्धा ब्राह्मणों के संबंध में प्रथम निर्विवाद प्रमाण ईसा पूर्व 300 में सिकंदर के आक्रमण के समय मिलता है। अपने मालवा अभियान के समय सिकंदर ने ब्राह्मणों के एक नगर पर आक्रमण किया था। उसे ब्राह्मणों के भीषण विरोध का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में 5,000 ब्राह्मणों में से अधिकांश बलिदान हो गए, जो थोड़े बच गए थे, उन्हें बंदी बना लिया गया था।
मेगस्थनीज ने लिखा है कि, ‘‘भारत में ब्राह्मणों का एक दार्शनिक संप्रदाय है, जो स्वतंत्र जीवन व्यतीत करता है। वह मांस और पके भोजन से परहेज करता है और केवल फलाहार करता है। वे नग्न रहकर जीवन व्यतीत करते हैं और कहते हैं कि ईश्वर ने शरीर आत्मा को ढकने के लिए दिया है। वे मंत्रों से ईश्वर की पूजा करते हैं। उनके साथ स्त्री एवं बच्चे नहीं होते।’’
एरियन ने भी अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में ब्राह्मण दार्शनिक को समाज की सर्वाधिक सम्मानित जाति बताते हुए लिखा है, ‘ये दार्शनिक नग्न रहकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। जाड़ों में खुले आकाश के नीचे धूप में, किंतु ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य बहुत तपने लगता है, तो वह घास के मैदानों में और आर्द्र स्थानों में पेड़ों के नीचे रहते हैं। शैव संप्रदायों में अस्त्र-ग्रहण की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। पतंजलि के महाभाष्य में लोहे का भाला धारण करने वाले एक शैव-भागवत का उल्लेख है। 7वीं सदी में बाण भट्ट द्वारा लिखित हर्षचरित में उल्लेख है कि तांत्रिक योगी भैरवाचार्य के दो शिष्यों ने राजा पुष्यभूति के अंगरक्षक के रूप में रहना पसंद किया और अनिवार्य सैनिकों की तरह उनके दरबार में रहे।
आक्रांताओं से संघर्ष
1260 में गुलाम वंश की सेना ने कनखल पर हमला किया था। 11 दिन चले उस युद्ध में नागा साधुओं ने अफगान सेना को हराया था। इस युद्ध 5,000 नागा साधु बलिदान हुए थे। इस युद्ध का नेतृत्व श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा के महंत भगवानंद ने किया था। नागा साधुओं की वीरता के प्रतीक दो भाले आज भी कनखल स्थित छावनी में रखे हैं। इन भालों के नाम सूर्य प्रकाश और भैरव प्रकाश हैं। हर साल विजयादशमी के दिन इन भालों की पूजा की जाती है।
1664 में दशनामी संन्यासियों ने वाराणसी में बाबा विश्वनाथ की गद्दी की प्रतिष्ठा सुरक्षित रखने के लिए मुगल आक्रांता औरंगजेब की सेना को, जो मिर्जा अली के नेतृत्व में लड़ रही थी, को परास्त किया था। जब औरंगजेब की सेना ने काशी में ज्ञानव्यापी पर हमला किया तो पहले से ही तैयार लगभग 15,000 नागा साधुओं ने तलवारों, भालों और फरसों से मुगल सेना का सामना किया। दिनभर चले इस युद्ध में नागा साधुओं ने अपने युद्ध कौशल से औरंगजेब की सेना को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। इस युद्ध में लगभग 1,000 नागा साधु बलिदान हुए थे। जेम्स जी. लोचटेकफेल्ड ने अपनी पुस्तक ‘द इलस्टेटिड इनसाइक्लोपीडिया आफ हिंदुइज्म’ के पहले खंड में मुगलों की हार का वर्णन किया है। दूसरी बार 1669 में जब औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर पर हमला किया, तब भी नागा साधुओं ने उसका मुकाबला किया। मंदिर की रक्षा के लिए उस युद्ध में 40,000 नागा साधु बलिदान हुए थे।
इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने भी नागा साधुओं के शौर्य का उल्लेख किया है। 18वीं सदी में अवध क्षेत्र में अफगान आक्रांताओं का उत्पात था। उनके उत्पात से प्रयाग भी अछूता नहीं था। 1751 में प्रयाग के संगम तट पर कुंभ में हजारों नागा साधु एकत्र हुए। महंत राजेंद्र गिरि के नेतृत्व में नागा साधुओं ने चारों तरफ से घेर कर अफगानों पर आक्रमण किया और उन्हें खदेड़ दिया। 1756-57 में मथुरा में नागा साधुओं का सामना अफगान आक्रांता अहमदशाह अब्दाली से भी हुआ था। मथुरा में बड़ी संख्या में हिंदू जनता के साथ-साथ साधु-संतों के नरसंहार की सूचना मिलने पर नागा साधुओं का एक जत्था पहुंचा और अब्दाली की सेना को खदेड़ दिया। इस भीषण युद्ध में लगभग 2,000 नागा साधु बलिदान हुए थे। इसके बाद 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में भी नागा साधुओं ने मराठों का समर्थन किया था। मराठों और अफगानों के बीच हुए इस युद्ध में महंत पुष्पेंद्र गिरि के नेतृत्व में नागा साधुओं ने युद्ध लड़ा और अफगानों को मार भगाया।
अकबर के शासन काल में मुसलमान मलंग फकीर हिंदू ग्रामीणों को तंग करते थे, क्योंकि हिंदू जनता नागा संन्यासियों को आदर और सम्मान देती थी। मलंगों को यह ग्राह्य नहीं था। अंतत: मलंगों की यह घृणा नागाओं से संघर्ष का कारण बनी। मलंग पहले से ही तलवारों से लैस थे। उन्होंने निर्ममता से कुछ नागा संन्यासियों की हत्या कर दी। जब हिंदुओं ने अकबर से न्याय की गुहार लगाई तो उसने यह कहकर हस्तक्षेप करने से मना कर दिया कि ‘दो गायें लड़ रही हैं।’ इसके बाद पहली बार राजपूताना के राजाओं ने मलंगों का सर्वनाश करने के लिए साधुओं के वेश में कुछ सैनिक भेजे। नागा संन्यासियों ने धीरे-धीरे स्वयं को युद्ध-कला में न केवल प्रवीण किया, बल्कि आगे चल कर कई युद्ध भी लड़े। हालांकि, मुस्लिम शासन के दौरान हिंदू राजाओं द्वारा अस्त्र आपूर्ति के बहुत पहले ही नागा संन्यासी संगठित हो चुके थे।
1925 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 16वीं सदी में हजारों मलंग मुस्लिम शासकों की सेना में नौकरी करते थे। उस समय उनका विशेष प्रभाव था। वे निहत्थे हिंदू संन्यासियों की हत्या भी करते थे। सदी के मध्य में जब हिंदू संन्यासियों पर उनके अत्याचार बढ़ गए तो काशी के विख्यात संन्यासी मधुसूदन सरस्वती अकबर से मिले और उसे अत्याचार का प्रतिकार करने को कहा। व्यापक विचार-विमर्श के बाद संन्यासियों की रक्षा के लिए अकबर ने सशस्त्र अब्रह्म संन्यासियों की नियुक्ति की थी।
कर्नल टॉड ने राजस्थान के इतिहास में कई स्थानों पर दशनामी नागा साधुओं और कनफटा योगियों का उल्लेख किया है। उसके अनुसार, ‘‘एकलिंग के पुजारी गोसार्इं या गोस्वामी कहलाते थे, जो अस्त्र विद्या एवं व्यापार-वाणिज्य में दक्ष थे और 13वीं शताब्दी के पूर्व से ही अस्तित्व में थे। वे मठों में रहते थे। इनके पास प्रचुर भू-संपत्ति थी। अनेक संन्यासी राजपूत सरदारों के अंगरक्षक थे। कवि चंद कन्नौज के राजा के अंगरक्षकों का जोशपूर्ण विवरण देता है जो कि मठवासी योद्धाओं से संघटित था। ये संन्यासी राजपूत सरदारों की सेना में भर्ती होकर युद्ध लड़ते थे।
बदले में उन्हें बड़े-बड़े भूखंड दिए जाते थे। ‘अकबरनामा’, ‘तबकात-ए-अकबरी’, बदायूनी तथा अन्य पांडुलिपियों में मिले उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि अकबर के पहले भी दशनामी एवं बैरागी नागा सैनिकों का अस्तित्व था। लेकिन संभवत: इस्लामी शासन के दौरान वे अस्त्र-शस्त्र में निपुण होने के बावजूद उनका प्रयोग करने से परहेज करते थे। बाद में मधुसूदन सरस्वती ने उनमें साहस का संचार किया और संन्यासी दल को आत्मरक्षा करने तथा अत्याचार का प्रतिकार करने के लिए प्रेरित किया। 16वीं और 17वीं सदी के बीच ये संन्यासी पूरी तरह से योद्धा संन्यासियों के रूप में संगठित हो चुके थे। 17वीं और 18वीं सदी में नागा संन्यासियों के युद्धक प्रवृत्ति के अनेक उदाहरण इतिहास में मिलते हैं। ‘दबिस्तान-ए-मजाहेब’ में 1640 में हरिद्वार में संन्यासियों एवं मुंडियों के बीच हुए एक संघर्ष का उल्लेख किया गया है, जिसमें संन्यासी विजयी हुए थे। उस युद्ध में बड़ी संख्या में मुंडी मारे गए थे।
जेम्स ग्रांट ने भी लिखा है कि एक बार सशस्त्र संन्यासियों के एक दल ने किसी वृद्धा के नेतृत्व में औरंगजेब की सेना के विरुद्ध युद्ध किया था, मुगल फौज को मुंह की खानी पड़ी थी। इस पराजय ने दिल्ली में मयूर सिंहासन पर बैठे औरंगजेब को थरथरा दिया था। इसी तरह, विलियम इर्विन ने नागा-सेना का उल्लेख करते हुए लिखा है, ‘‘18वीं शताब्दी तक सेनाओं ने नागा संन्यासियों की मौजूदगी सामान्य बात थी। 1752 से 18वीं सदी के अंत तक अवध की सेवा में इनकी एक टुकड़ी थी। इनके अंतिम नेता हिम्मत बहादुर थे, जिनका नाम बुंदेलखंड के साथ संबंधों के दौरान बार-बार आता है।’’
18वीं सदी में बुंदेलखंड में भी शैव नागाओं के बड़ी संख्या में विद्यमान होने के प्रमाण मिलते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि योद्धा संन्यासियों की परंपरा बहुत पुरानी है। 16वीं शताब्दी आते-आते उनका संगठन अत्यंत सुदृढ़ हो गया तथा था। आगे की शताब्दियों में तो वे बाकायदा देशी राजाओं की सेनाओं के प्रमुख अंग के रूप में काम करने लगे। ये योद्धा-संन्यासी ‘अखाड़ा’ से जुड़े होते थे।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
अंग्रेजों के विरुद्ध कई विरोधों और आंदोलनों में भी अखाड़ों ने हिस्सा लिया था। ब्रिटिश शासन के दौरान जब धर्म, संस्कृति पर हमले हुए और समाज पर अत्याचार बढ़ा, तब उसके खिलाफ नागा साधुओं ने सशस्त्र संघर्ष किए। वे न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपने धार्मिक कर्तव्यों का पालन कर रहे थे, बल्कि राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता के लिए भी समर्पित थे। धार्मिक अनुशासन और युद्ध कला में निपुण होने के कारण वे अंग्रेजी सेना के खिलाफ संघर्ष करने में सक्षम थे। भारतीय संस्कृति और समाज की निरंतर रक्षा करने के अलावा नागा संन्यासियों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सशस्त्र आंदोलनों में भाग लिया, बल्कि भारतीय समाज को एकजुट और जागरूक करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रयागराज कुंभ में नागा साधुओं ने सैन्य संगठन बनाया था, जो स्वतंत्रता संग्राम का महत्वपूर्ण केंद्र था। 1857 का विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला संगठित प्रयास था। इसमें समाज के सभी वर्गों ने हिस्सा लिया था। इसमें नागा साधु भी पीछे नहीं थे। नागा साधुओं ने विद्रोहियों के साथ मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध किए। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नागा साधुओं ने विशेष रूप से उत्तर भारत के विभिन्न इलाकों में ब्रिटिश सेना के खिलाफ संघर्ष किया था। उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान देखा गया। इस आंदोलन में गांधी जी ने आम भारतीयों से अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का आह्वान किया था, जिसे नागा साधुओं ने भी समर्थन दिया था। नागा साधुओं ने अपने अनुयायियों के माध्यम से गांव-गांव जाकर लोगों को एकजुट किया और उन्हें अंगे्रजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित किया।
ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन में नागा साधुओं ने मुख्य रूप से गुरिल्ला युद्ध किए। उनका उद्देश्य था ब्रिटिश शासन को परोक्ष रूप से चोट पहुंचाना और समाज में स्वतंत्रता की भावना जाग्रत करना। वे शारीरिक तौर पर सशक्त तो थे ही, उनका मनोबल और नैतिकता भी उच्च स्तर पर थी। उनके लिए स्वतंत्रता संग्राम केवल ब्रिटिश शासन का विरोध नहीं था, बल्कि यह एक धार्मिक कर्तव्य था। वे मानते थे कि जब तक भारत स्वतंत्र नहीं होगा, तब तक उनकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी। उनका यह विश्वास उनके योगदान को और भी महत्वपूर्ण बनाता है।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जब रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष छेड़ा, तब नागा साधुओं से उन्हें पूरा समर्थन मिला था। नागा साधु उस समय स्वतंत्रता संग्राम के सशस्त्र घटक थे। नागा साधु राजा धन सिंह और उनकी सेना ने रानी की रणनीतिक लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में एकजुट नागा साधुओं ने झांसी की रक्षा के लिए ब्रिटिश सेना से संघर्ष किया था। उनके साथ होने के कारण रानी लक्ष्मीबाई की सेना को पर्याप्त शारीरिक बल और युद्ध कौशल मिला, जो ब्रिटिश सेना के लिए एक बड़ा खतरा बन गया था।
इसी तरह, 1858 का ग्वालियर युद्ध, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण संघर्षों में से एक था। इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई की सेना और ब्रिटिश सेना के बीच कड़ा मुकाबला हुआ था। ग्वालियर में भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा और इसमें काफी संख्या में लोग मारे गए। एक अनुमान के अनुसार, इस युद्ध में 2000 से अधिक भारतीय सैनिक और 745 नागा साधु बलिदान हुए थे। लेकिन स्वतंत्रता के बाद अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया और इस बात पर जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें।
नागा साधु विशेष रूप से शारीरिक कठोरता, तपस्या और निर्लिप्तता के लिए जाने जाते हैं। वे सांसारिक मोह-माया से दूर रहते हैं और भगवद् भक्ति और आत्म-निर्भरता के मार्ग पर चलते हैं। उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य आत्मज्ञान और मोक्ष प्राप्ति होता है। हालांकि, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने शस्त्र उठाना छोड़ दिया, लेकिन आज भी वे शस्त्र धारण करते हैं। उनके अस्त्र-शस्त्र अधर्म के नाश के प्रतीक माने जाते हैं।
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