पश्चिमी देशों और उनकी संस्थाओं का भारत के प्रति रवैया हमेशा ही दोहरे मापदंडों से भरा रहा है। चाहे वह किसी कंपनी का भारत को निशाना बनाना हो, नीतियों के जरिए प्रतिबंध लगाने या आयात-निर्यात संतुलन को गड़बड़ाने की कोशिश हो, या किसी प्रायोजित रिपोर्ट के माध्यम से भारत की छवि को खराब करने का प्रयास, इन सभी कदमों का उद्देश्य एक ही है—भारत की प्रगति को रोकना। हालिया घटनाओं से यह स्पष्ट हो गया है कि यह रवैया दुराग्रह और दुर्भावना से प्रेरित एक निरंतर चलने वाला उपक्रम है। हालांकि, यह भी सही है कि भारत ने इन आधारहीन चालों का रणनीतिक रूप से मुकाबला करना और बिना डगमगाए मजबूती से आगे बढ़ना सीख लिया है।
हिंडनबर्ग का उदाहरण लें। यह एक ऐसी संस्था थी, जिसे शेयर बाजार में उथल-पुथल मचाकर मुनाफा कमाने के उद्देश्य से खोला गया था, और इसे ‘रिसर्च फर्म’ का ठप्पा भी दिया गया था। इस संस्था ने एक प्रमुख भारतीय उद्योगपति के खिलाफ रिपोर्ट जारी कर उनकी कंपनियों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए। यह रिपोर्ट उस समय आई, जब भारत वैश्विक मंच पर अपनी आर्थिक ताकत का प्रदर्शन कर रहा था। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस रिपोर्ट में तथ्यात्मक साक्ष्यों की भारी कमी थी, बावजूद इसके इसे पश्चिमी मीडिया में बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया। प्रभावित कंपनी और निवेशकों ने शुरुआती घबराहट के बाद दृढ़ता से जवाब दिया और न केवल आरोपों को खारिज किया, बल्कि भारत की कॉर्पोरेट स्थिरता को भी प्रदर्शित किया।
इसी तरह, मेटा और फेसबुक जैसी पश्चिमी टेक कंपनियों ने भारत में निवेश रोकने या अपनी सेवाओं को सीमित करने की धमकी दी। इन कंपनियों का तर्क था कि भारत की नीतियां ‘लोकतांत्रिक स्वतंत्रता’ के खिलाफ हैं। विडंबना है कि ये वही कंपनियां हैं, जो अपने देशों में डेटा और निजता के दुरुपयोग के लिए बदनाम हैं। फेसबुक और इसके संस्थापक जुकरबर्ग को पहले अमेरिकी और ब्रिटिश जनमत को शातिर तरीके से प्रभावित करने के आरोपों में संसद के सामने पेश होकर अपमानित होना पड़ा था। भारत में आम चुनावों पर जुकरबर्ग के बयान के लिए मेटा ने माफी भी मांगी। भारत को लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाने वाले फेसबुक को पहले अपने घर में झांकने की आवश्यकता है। फेसबुक पर झूठी खबरों के प्रसार और डेटा लीक के मामले अब वैश्विक चिंता का विषय बन गए हैं।
पश्चिमी मीडिया ने भी कई बार भारत को ‘पांथिक असहिष्णुता और लोकतांत्रिक कमजोरियों’ का केंद्र दिखाने की कोशिश की है। उनकी रिपोर्टों में अक्सर तथ्यों की उपेक्षा की जाती है और भारतीय संदर्भों को गलत तरीके से प्रस्तुत किया जाता है, जिससे भ्रम और दुर्भावना का माहौल बनता है।
भारत के दृष्टिकोण से ये बातें कष्टप्रद हैं, लेकिन हमें यह समझना होगा कि वैश्विक शक्तियां आज के भारत से क्यों असहज हैं। इसके पीछे मुख्य कारण है आर्थिक प्रतिस्पर्धा का डर। भारत आज दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है, और पश्चिमी देशों को भय है कि भारत उनके आर्थिक प्रभुत्व को चुनौती दे सकता है।
भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्वतंत्र और संतुलित विदेश नीति को मजबूती से लागू किया है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत की तटस्थता ने पश्चिमी देशों को असहज कर दिया है। ‘ग्लोबल साउथ’ की आवाज बनना और ‘मेक इन इंडिया’ तथा ‘डिजिटल इंडिया’ जैसी योजनाओं ने भारत को एक तकनीकी महाशक्ति के रूप में उभारा है। इन प्रयासों से भारतीय स्टार्टअप्स और टेक उद्योग का पश्चिमी देशों के बाजारों पर प्रभाव बढ़ रहा है। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट, जिस पर इतना हंगामा मचा, उस रिपोर्ट में कोई सच्चाई नहीं थी। जब इसे पढ़ा गया, तो यह साफ हुआ कि रिपोर्ट पूरी तरह से कल्पना पर आधारित थी। थोथे तथ्यों की नाव कितना तैरती। अंतत: हिंडनबर्ग के बंद होने की खबर आ ही गई।
वास्तविकता यह है कि पिछले एक दशक में भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर खुद को मजबूती से स्थापित किया है। भारत ने जी-20 अध्यक्षता के दौरान विकासशील देशों की आवाज उठाई, और अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन एवं डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे अभियानों से अपनी छवि को मजबूत किया है। भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर आज दुनिया में सबसे तेज है। स्टार्टअप्स और उद्यमशीलता ने भारत को ‘युवाओं का देश’ और ‘संभावनाओं का देश’ बना दिया है। योग, आयुर्वेद और भारतीय सिनेमा ने भारत की सॉफ्ट पावर को अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। मंगलयान, चंद्रयान-3 और अंतरिक्ष में डॉकिंग प्रयोग वाले स्पेडेक्स जैसे मिशनों ने भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी को नई पहचान दिलाई है। इसलिए पश्चिमी मीडिया और संस्थाओं का भारत के प्रति दुराग्रह न केवल हास्यास्पद है, बल्कि यह उनकी संकीर्ण सोच को भी उजागर करता है, जो आज के बदलते परिदृश्य और उन्नत दुनिया में कहीं भी स्थान नहीं पा सकती।
रॉयटर्स और वाशिंगटन पोस्ट जैसी एजेंसियां भारत को ‘पांथिक असहिष्णुता’ का प्रतीक बताती हैं, लेकिन अपने देशों में नस्लवाद और पांथिक भेदभाव पर चुप्पी साध लेती हैं। 21वीं सदी में हुए कई अनुसंधानों ने अमेरिकी समाज में नस्लीय भेदभाव को उजागर किया है, जैसे कि न्याय प्रणाली, व्यवसाय, अर्थव्यवस्था, आवास, स्वास्थ्य देखभाल, मीडिया और राजनीति के क्षेत्रों में। 2016 में हर 13 में से एक अफ्रीकी अमेरिकी को मताधिकार से वंचित किया गया था, जो गैर-अफ्रीकी अमेरिकियों की तुलना में चार गुना अधिक था।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि पश्चिमी मीडिया, जो खुद को बहुलतावादी, लोकतांत्रिक और मानवाधिकार का संरक्षक बताता है, भारत में ‘पांथिक असहिष्णुता’ का दावा करता है, जबकि वह हिंदुओं, उनके त्योहारों और तिरंगा यात्राओं पर इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा किए गए हमलों पर चुप रहता है। इससे भी बढ़कर, पश्चिमी देशों की संस्थाएं मजहबी उन्मादियों को कानूनी सहायता उपलब्ध कराने के लिए वित्तीय मदद देती हैं। हाल ही में एक अदालत ने चंदन गुप्ता हत्याकांड में पश्चिमी संस्थाओं के इस षड्यंत्र को उजागर किया है।
पश्चिमी देशों का भारत के खिलाफ यह दुष्प्रचार दशकों से जारी है, जिसमें सनातन धर्म, हिंदू समाज, भारतीय संस्कृति और लोकतंत्र को कमजोर करने की कोशिशें की जाती रही हैं। अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी के बयान से यह स्पष्ट होता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘भारत से उसकी संस्कृति बहुत हद तक छीन ली गई है।’
अंत में बात इसी भारतीय संस्कृति की जिसे दुनिया कभी कुचेष्टा, कभी कौतूहल से तौलती रही।
जब इस भारतीय संस्कृति की बात होती है, तो महाकुंभ इसे समझने की एक महत्वपूर्ण खिड़की है। महाकुंभ सामाजिक समरसता और एकता का संदेश देने वाला एक अद्वितीय धार्मिक आयोजन है, जिसमें सभी जातियां, वर्ग और समुदाय एकजुट होकर संगम में श्रद्धा की डुबकी लगाते हैं। विविधता में एकता का यह विराट दर्शन अद्वितीय है। यही भारत है। सबके लिए समानता, स्नेह और ‘गुंजाइश’ रखने की यह गूंज पश्चिम सहित पूरे विश्व के लिए भारत का दर्शन भी है, मार्गदर्शन भी।
भारत ने हमेशा साबित किया है कि वह आलोचनाओं से ऊपर उठकर अपनी प्रगति जारी रखेगा। आइए, हम इस नए भारत का हिस्सा बनें और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के भारतीय विचार को गर्व से विश्व मंच पर प्रस्तुत करें।
टिप्पणियाँ