भारत को 15 अगस्त, 1947 को औपनिवेशिक शासन से राजनीतिक स्वतंत्रता मिली। लेकिन अंग्रेजों की 200 वर्ष की दासता का दुष्प्रभाव आज भी हमारी संस्थाओं, व्यवस्थाओं, राजनीतिक-सामाजिक प्रतीकों एवं जीवनशैली में मौजूद है। भौगोलिक परतंत्रता मानसिक और सांस्कृतिक गुलामी में परिवर्तित होती गई है।
वैश्विक महाशक्ति के रूप में उभरते भारत के लिए औपनिवेशिक मानसिकता एवं उसके प्रतीकों से पूर्ण मुक्ति आवश्यक हो गई है।
यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पंच प्रण तक ही सीमित न रहे, बल्कि इसे व्यापक राष्ट्रीय विमर्श का अभिन्न हिस्सा बनना चाहिए। आज विश्वभर के चिंतक इससे सहमत हैं कि गुलामी केवल शारीरिक रूप से किसी देश पर अधिकार जमाने तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह उस राष्ट्र के जीवन दर्शन एवं मूल्यों को भी प्रभावित करती है। अंग्रेजों ने भारत को न केवल भौगोलिक एवं आर्थिक शोषण किया, वरन् सामाजिकता, परंपरा, इतिहास और सांस्कृतिक अस्मिता एवं अस्तित्व को भी कमजोर एवं विकृत किया। परिणामस्वरूप ऐसी मानसिकता का विकास हुआ, जिसमें हम भारतीय ‘स्व’ को भूलकर पश्चिमी सभ्यतागत विमर्श के अनुगामी बन बैठे।
अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व
दुर्भाग्य से देश में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व बनाया गया है। अंग्रेजी के बरअक्स अन्य भारतीय भाषाओं को हेय दृष्टि से देखा गया। उच्च शिक्षा, न्याय प्रणाली एवं प्रशासनिक कार्यों में अंग्रेजी का ही बोलबाला रहा। भारतीय भाषाएं बोलने वालों को कमतर आंका जाता है, जबकि अंग्रेजी बोलने वालों को अधिक योग्य माना जाता है। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि हमारी मानसिकता अभी भी औपनिवेशिकता के चंगुल में फंसी हुई है? मानसिक गुलामी का आलम यह है कि अंग्रेजी माध्यम के कई विद्यालयों में यदि कोई विद्यार्थी हिंदी या अपनी मातृभाषा में बातचीत करता है, तो उस पर जुर्माना लगा दिया जाता है।
माता-पिता इस बात पर गर्व करते हैं कि उनके बच्चे जिस स्कूल में पढ़ते हैं, वहां हिंदी का एक शब्द भी बोलने नहीं दिया जाता है। निश्चित ही यह दयनीय स्थिति है। इस संदर्भ में भारतेंदु हरिश्चंद्र का भाषा संबंधी विचार ‘अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन, पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन’ सार्थक है। अंग्रेजी से परहेज नहीं होना चाहिए, परंतु उसे अपनी मातृभाषा से ज्यादा महत्व देना ठीक वैसा ही है, जैसे अपनी मां की बजाए दूसरे की मां को अधिक श्रेष्ठ मानना।
पश्चिमी अपसंस्कृति का अनुकरण
भारतीय संस्कृति की महत्ता के बारे में चीनी राजनयिक एवं विद्वान हू शिह ने कहा है, ‘भारत ने अपनी सीमा के पार बिना एक भी सैनिक भेजे बीस शताब्दियों तक चीन पर अपना सांस्कृतिक प्रभुत्व बनाए रखा।’ फिर भी भारतीय समाज पश्चिमी संस्कृति को अपनी संस्कृति से अधिक श्रेष्ठ और आधुनिक मानता है। हमारे पूर्वज मौसम के अनुकूल रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा एवं उत्सव मनाते थे। लेकिन आज आचार-व्यवहार, गीत-संगीत से लेकर जीवनशैली तक में पश्चिम की ‘स्टेटस सिंबल’ सा बन गया है।
परंपरागत व्यंजनों के प्रति रुचि कम हो रही है और पाश्चात्य व्यंजन थाली की शोभा बढ़ा रहे हैं। 16 संस्कारों का भी पश्चिमीकरण हो रहा है। फादर्स-मदर्स-ब्रदर्स-सिस्टर्स-वैलेंटाइन डे आदि मनाने का चलन हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं। ये पाश्चात्य संस्कृति की नकल हैं। पिछले कुछ दशकों से भारतीय त्योहारों एवं परंपराओं की तुलना में क्रिसमस और न्यू-ईयर जैसे पश्चिमी उत्सव अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं। युवावर्ग अपनी प्रकृति प्रेमी जीवनशैली से विरक्त होकर प्रकृति विरोधी पथ पर अग्रसर हो रहा रहा है।
शिक्षा-प्रशासन पर औपनिवेशिक प्रभाव
संपूर्ण व्यक्तित्व विकास सुनिश्चित करने वाली गुरुकल शिक्षा प्रणाली के बजाय भारतीय शिक्षा प्रणाली आज भी मैकाले द्वारा स्थापित ढांचे पर आधारित है, जिसका उद्देश्य भारतीयों को अंग्रेजी शासन के लिए तैयार करना था। यह शिक्षा प्रणाली भारतीयों को उनकी सांस्कृतिक विरासत एवं जड़ों से काटती है तथा उनमें पाश्चात्य मानसिकता विकसित करती है।
हमारी शिक्षा व्यवस्था आज भी पश्चिमी ज्ञान को श्रेय देती है एवं भारतीय ग्रंथों, विज्ञान और परंपराओं को हाशिए पर धकेल रही है। यहां तक कि आर्ष ग्रंथों, सामाजिक संरचना एवं परंपराओं की मनमानी व्याख्या करके समाज के भीतर विद्वेष के बीज बोए गए, जिसका दुष्परिणाम सामाजिक-आर्थिक जीवन में आ रही विशृंखलता के रूप में देख रहे हैं। इस पर रोक लगाने के लिए भारतीय ज्ञान प्रणाली का नए सिरे से अध्ययन एवं वर्तमान में उनकी उपादेयता पर सघनता से कार्य करने की आवश्यकता है।
भारतीय न्याय प्रणाली एवं प्रशासनिक व्यवस्था ब्रिटिश मॉडल पर आधारित है। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), पुलिस एक्ट और अन्य कानून जो ब्रिटिश शासन के दौरान लागू किए गए थे, कमोबेश आज भी उसी रूप में हैं। मोदी सरकार ने पहली बार आईपीसी की जगह भारतीय न्याय संहिता लागू की है। न्यायिक प्रक्रिया भी अंग्रेजी में होती है, जो आम जनमानस की समझ से परे है। यह पूरी व्यवस्था औपनिवेशिक मानसिकता का प्रतिबिंब है। इस दिशा में परिवर्तन किया जा रहा है, किंतु उसकी गति बहुत ही धीमी है।
हीनता के शिकार
अंग्रेजों ने भारतीयों में यह भावना विकसित की कि वे सभ्यता, ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में पश्चिम से कमतर हैं। भारत के गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत एवं इतिहास से दूर रखने की साजिश रची गई। फलस्वरूप हम भी भारत के मूल स्वभाव को ही नहीं जान पाए एवं उससे दूर होते गए। यहां तक कहा गया कि भारत तो सपेरों का देश है और यहां के काले लोगों को सभ्य बनाना अंग्रेजों का अतिरिक्त कर्तव्य है। यानी अंग्रेजों की दृष्टि में भारतीय असभ्य थे। दुर्भाग्य यह है कि यह हीनभावना भारतीय समाज में अब भी जड़ें जमाए हुए।
पश्चिमी देशों से आयातित वस्तुओं, आचार-विचार को श्रेष्ठ और भारतीय उत्पादों व विचारों को कमतर मानना औपनिवेशिक मानसिकता का ज्वलंत उदाहरण है। यह मानसिकता विकास और आत्मनिर्भरता के रास्ते में अवरोध पैदा कर रही है। भारतीय परंपराओं, त्योहारों, संस्कारों, रीति-रिवाजों, कौशल-विकास परंपरा, ग्रामीण अर्थव्यवस्था आदि को आधुनिकता के नाम पर त्यागा जा रहा है। युवा पीढ़ी अपनी जड़ों और संस्कृति से अनभिज्ञ होती जा रही है। योग, आयुर्वेद और वास्तु जैसे अन्यान्य भारतीय ज्ञान-विज्ञान को पश्चिमी देशों द्वारा पुन: प्रस्तुत किए जाने पर ही मान्यता दी जाती है। औपनिवेशिक मानसिकता ने भारतीयों में राष्ट्रीय गौरव बोध की भावना को भी कमजोर कर दिया है।
भविष्य की राह
मानसिक गुलामी से मुक्ति कैसे पाई जाए, यह एक यक्ष प्रश्न है। इसके लिए व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आध्यात्मिक पुनर्जागरण जरूरी है। यह केवल सरकारी नीतियों तक सीमित नहीं हो सकता, अपितु समाज के प्रत्येक वर्ग को मनसा, वाचा, कर्मणा से इस महायज्ञ में आहुति डालनी होगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में निहित सुधारों को पूरी तरह लागू करके ही शिक्षा में भारतीय संस्कृति, परंपराओं, ज्ञान भंडार एवं गौरवशाली इतिहास को प्राथमिकता दी जा सकती है। भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान-तकनीक की शिक्षा को प्रोत्साहित करना आवश्यक है। छात्रों को भारतीय ज्ञान परंपरा जैसे योग, आयुर्वेद, वैदिक गणित, दर्शनशास्त्र और भारतीय विज्ञान के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को प्रशासन, न्याय प्रणाली एवं शिक्षा व्यवस्था में अनिवार्य बनाने के साथ अंग्रेजी को माध्यम भाषा तक सीमित करना होगा। हालांकि, भारतीय त्योहारों, परंपराओं एवं संस्कारों को बढ़ावा देने के प्रयास हो रहे हैं। सनातन संस्कृति के प्रतीक मंदिरों और ऐतिहासिक धरोहरों के जीर्णोद्धार के अलावा भारतीय संगीत, कला व साहित्य को मुख्यधारा में लाने के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं। स्वतंत्रता सेनानियों और इतिहास के गौरवशाली अध्यायों को शिक्षा और मीडिया में उचित स्थान मिलने लगा है।
जब तक भारतीय समाज औपनिवेशिक बीमारी से मुक्त नहीं होगा, स्वतंत्रता अधूरी रहेगी। इसलिए हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना और उन्हें सींचना होगा। अपनी संस्कृति एवं जीवंत परंपरा पर गर्व करने के साथ आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी, विकसित एवं ‘स्व’ के तंत्र वाले भारत का निर्माण करना होगा, तभी वास्तविक अर्थों में हम स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बन पाएंगे।
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