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‘पांडवों के साथ पाञ्चजन्य’-  सांसद सुधांशु त्रिवेदी

पाञ्चजन्य की सलाहकार संपादक तृप्ति श्रीवास्तव ने भाजपा के राज्यसभा सांसद सुधांशु त्रिवेदी से विस्तृत बातचीत

by पाञ्चजन्य ब्यूरो
Jan 20, 2025, 08:17 am IST
in साक्षात्कार, दिल्ली
भाजपा के राज्यसभा सांसद सुधांशु त्रिवेदी

भाजपा के राज्यसभा सांसद सुधांशु त्रिवेदी

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‘राज और नीति’ सत्र में पाञ्चजन्य की सलाहकार संपादक तृप्ति श्रीवास्तव ने भाजपा के राज्यसभा सांसद सुधांशु त्रिवेदी से विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत हैं उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश —

पिछले एक दशक से देश में नैरेटिव की राजनीति चल रही है। प्रयागराज में हो रहे महाकुंभ को लेकर भी विपक्षी दल झूठे नैरेटिव गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। बार—बार यह कहा जा रहा है कि महाकुंभ पर भाजपा द्वारा अनाप-शनाप पैसा खर्च किया जा रहा है। इस पर आपका क्या कहना है?
महाकुंभ कब अयोजित होता है, क्यों आयोजित होता है, इसका एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। पहले इस दृष्टिकोण को समझने की जरूरत है। बृहस्पति ग्रह के चक्र के अनुसार महाकुंभ आता है। हर 12 साल में बृहस्पति अपनी 12 राशियों की यात्रा पूरी कर वृषभ राशि में लौटते हैं, तब महाकुंभ का आयोजन होता है। लेकिन जब यह चक्र 12 बार पूरा होता है यानी 144 साल बाद पूर्ण महाकुंभ होता है। यह महाकुंभ वैसा ही है। सभी ग्रहों में बृहस्पति ग्रह का प्रभाव इतना क्यों माना जाता है। बृहस्पति को गुरु कहा गया है और गुरु रक्षा करते हैं। हमारे पूरे सौरमंडल में सबसे ज्यादा मजबूत यदि किसी ग्रह का गुरुत्वाकर्षण है तो वह गुरु का है। वैज्ञानिकों को अभी पिछले कुछ दशकों में पता चला है कि सौरमंडल में टूटकर गिरने वाले उल्कापिंड जो बेहद विशाल होते हैं, उनमें से 90 प्रतिशत को बृहस्पति अपने गुरुत्वाकर्षण से खींच लेता है।

पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश के लिए आते—आते वे लगभग नष्ट हो जाते हैं। यदि कोई उल्कापिंड गिरता भी है, तो उससे कोई क्षति नहीं पहुंचती। लेकिन यह बात हमारे धर्मशास्त्रों में पहले से लिखी है। यानी हजारों वर्षों से हमारे पूर्वज यह जानते हैं। महाकुंभ के आयोजन का इससे बड़ा वैज्ञानिक प्रमाण और क्या हो सकता है। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनकी किताबों में पृथ्वी को आज भी चपटी बताया गया है। लेकिन हमें यह समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई कि हम ‘अवैज्ञानिक’ हैं। आज जब सब प्रमाणित हो चुका है तो हमारे धर्म ग्रंथों पर सवाल उठाने वाले आज भी उनसे यह पूछने की हिम्मत नहीं कर सकते कि आपके यहां तो पृथ्वी को चपटी बताया गया है, इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण है? वे यह सब पूछने की हिम्मत जुटा ही नहीं सकते।

सुधांशु त्रिवेदी को सम्मानित करते भारत प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अरुण कुमार गोयल एवं  पाञ्चजन्य के सम्पादक हितेश शंकर

महाकुंभ में दूसरे पंथ और मजहब को मानने वाले हजारों विदेशी भी आ रहे हैं। क्या दुनिया में कहीं ऐसा है कि कोई किसी दूसरे पंथ और मजहब के आयोजन में जा सके? हमारे यहां दुनियाभर से लोग आ रहे हैं, वे आएंगे और उनसे यह भी कोई नहीं कहेगा कि आप कन्वर्जन कर लो। एप्पल के संस्थापक और विश्व के सबसे धनी स्टीव जॉब्स की पत्नी लॉरेन पॉवेल जॉब्स आध्यात्मिक शांति की खोज में भारत यात्रा पर आर्इं। उन्हें यहां पर माता कमला नाम दिया गया है। वे यहां अपने मन से रहेंगी, लेकिन उनसे भी कोई नहीं कह रहा है कि आप हिंदू बन जाएं। कन्वर्जन कर लें। समरसता ही हमारी पहचान है। हमारे यहां कभी कोई भेदभाव था ही नहीं। अंग्रेजों ने हमारी इसी समरसता, इसी भाव को देखकर हमारे समाज को तोड़ने की योजना बनाई थी। उन्होंने बहुत योजनाबद्ध तरीके से जातिगत वैमनस्य को फैलाया और समाज को बांट दिया।

आप कभी पत्रकार भी रहे हैं, तो अपने उस छोटे से कॅरियर के बारे में बताएं?
बचपन से पाञ्चजन्य के संपादकीय को पढ़कर वास्तविक ज्ञान का अनुभव हुआ, क्योंकि किताबों में तो कुछ और ही पढ़ाया गया। आजकल की युवा पीढ़ी में अधिकांश को पाञ्चजन्य का अर्थ भी नहीं पता होगा। हम इस बात को सामान्य रूप से सुनते आए हैं कि महाभारत का युद्ध शुरू हुआ था तो युधिष्ठिर ने अनंत विजय, अर्जुन ने देवदत्त,भीष्म ने पॉण्ड्र और भगवान श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य शंख फूंका था। अब उस शंख का नाद भारत की जनता के कानों में धीरे-धीरे पहुंचने लगा है।

पाञ्चजन्य पांडवों के साथ है। 1991 में जब मैं इंजीनियरिंग करके आया तो दो विश्व संवाद केंद्र स्थापित किए गए थे। एक दिल्ली में और दूसरा लखनऊ में। जहां से विश्व संवाद केंद्र पत्रिका निकलनी शुरू हुई थी। उसमें मुझे संपादक का दायित्व दिया गया था। उसके प्रधान संपादक डॉ. दिनेश शर्मा थे, जो उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री भी रहे। महत्वपूर्ण बात यह है कि जो पौधा उस वक्त लगाया गया, वह आज विराट वट वृक्ष बन गया है। इसी पर एक पंक्ति है-

रहिमन यों सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत 
ज्यों बड़री अंखियां निरखि, आंखिन को सुख होत 

कांग्रेस जातिगत जनगणना की बात कर समाज को बांटने की कोशिश रही है। लेकिन भाजपा कहती है कि बंटेंगे तो कटेंगे? 
जब विपक्षी दल ‘बटेंगे तो कटेंगे’,  ‘एक है तो सेफ हैं’ पर राजनीति करते हैं तो उन्हें इतिहास में झांकना चाहिए। जब राजा आम्भी और पोरस बंटे तो यूनानियों के हाथों कटे। जब पृथ्वीराज चौहान और जयचंद बंटे तो गोरी के हाथों कटे। जब महाराणा प्रताप और मानसिंह बंटे तो अकबर के हाथों कटे। जब छत्रपति शिवाजी महाराज एक तरफ थे और मिर्जा राजा जयसिंह दूसरी तरफ तो औरंगजेब के हाथों कटे। तब रियासतों के राजा हुआ करते थे, अब जातियों के राजा हैं।

आज जातियों के राजाओं को लगता है कि हम कट्टरपंथी ताकतों का साथ लेंगे तो हमारा राज आ जाएगा। मगर वे यह भूल जाते हैं कि मुहम्मद गोरी जीता तो जयचंद भी नहीं बचा था। इसलिए जिसने भी अपनों के विरुद्ध जाकर दूसरों का साथ दिया, अंत में वह भी नहीं बचा। आजादी के समय पाकिस्तान में 24 प्रतिशत हिंदू थे। आज कितने हैं? बांग्लादेश में 32 प्रतिशत थे, लेकिन अब 7 प्रतिशत रह गए हैं। उस 32 प्रतिशत में एससी/एसटी और ओबीसी थे। वे बंट गए तो कट गए।

राहुल गांधी कहते हैं कि संविधान खतरे में है। क्या आपको लगता है कि पिछले 70-75 वर्ष में संविधान खतरे में नहीं रहा और अब है?
आज विपक्षी दल कहते हैं कि संविधान खतरे में है। जब केंद्र सरकार द्वारा पारित नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ राज्यों की विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित किए जा रहे हैं तो इस लिहाज से वाकई संविधान खतरे में है। यदि विपक्षी दल, जहां पर उनकी सरकारें हैं, अपने राज्यों में ऐसा प्रस्ताव पारित कराते हैं तो यह सरासर संविधान का उल्लंघन है। सीएए कानून देश की नागरिकता से जुड़ा हुआ है और जो सिर्फ और सिर्फ केंद्र सरकार का अधिकार क्षेत्र है, राज्य का इसमें रत्ती भर भी अधिकार नहीं है।

जब केंद्र सरकार को राज्य सरकारें कहें कि हम आपको काम करने नहीं देंगे तो समझ लीजिए, वाकई संविधान खतरे में है। वे लोग जब सत्ता में थे, तो भी उन्होंने ही संविधान को खतरे में डाला और आज भी वही संविधान को कुचलने की कोशिश कर रहे हैं। जब 6 दिसंबर, 1992 को उत्तर प्रदेश सरकार को नियमों के विरुद्ध जाकर बर्खास्त कर दिया गया, तब संविधान खतरे में था। 1980 में जब इंदिरा गांधी दोबारा से जीतकर सत्ता में आईं तो उन्होंने 9 राज्यों की सरकारों को बर्खास्त कर दिया था। लेकिन संविधान का दुरुपयोग करने वाले कहते हैं कि आज संविधान खतरे में है।

दिल्ली के चुनावों में भाजपा की स्थिति को आप किस तरह से देखते हैं?
दिल्ली का चुनाव इस वक्त त्रिकोणीय हो रहा है। तीनों पार्टियों की अपनी एक अलग फितरत है। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है। जब कोई चीज अधिक पुरानी हो जाए तो कहते हैं कि पुरानी-धुरानी हो गई, अब इसे किनारे रख दो। उससे भी अधिक पुरानी हो जाए तो लोग कहते हैं कि यह फटी-पुरानी हो गई है, इसे बाहर फेंक दो। कांग्रेस का यही हाल है। दूसरी पार्टी नई नवेली, अजब और अलबेली पार्टी है, जिसकी फितरत को समझना ही चुनौती है। ये लोग आते हैं और झूठ बोलकर चले जाते हैं। अब केजरीवाल का असली चेहरा जनता के सामने है। केजरीवाल के असली चेहरे और उनके शीशमहल को देखकर दिल्ली की जनता यही कहती होगी कि ‘बड़े मासूम लगते थे मेरे सनम, क्या से क्या हो गए देखते-देखते। जिन्हें पत्थर से हमने बनाया सनम वो खुदा हो गए देखते-देखते।’ वे ऐसी बातें करते हैं कि जैसे सारी खुदाई उन्हीं की हो।

 केजरीवाल कहते हैं कि दिल्ली में भाजपा के पास कोई मुख्यमंत्री चेहरा ही नहीं है?
कितनी मजेदार बात है कि जहां मुख्यमंत्री पद पर मुख्यमंत्री बैठी हुई हैं, वही उनका चेहरा नहीं हैं। आआपा के लिए कुर्सी पर बैठा मुख्यमंत्री ही मुख्यमंत्री नहीं है। केजरीवाल न मुख्यमंत्री हैं, इन उपमुख्यमंत्री, लेकिन उनके नाम पर योजनाएं चल रही हैं।

 इस समय नैरेटिव की लड़ाई चल रही है। आने वाले समय में इससे निपटने के लिए क्या किया जाएगा?
नैरेटिव की लड़ाई वास्तविक लड़ाई है। आप सत्ता में रहें और नैरेटिव नहीं बदला तो ‘कश्मीर फाइल्स’ का वह डायलॉग याद करें कि ‘सरकार भले ही उनकी है, सिस्टम आज भी हमारा है।’ नैरेटिव को लेकर 13 दिन की सरकार गिरने के वक्त सुषमा स्वराज ने कहा था कि ‘‘लुटियंस जोन में आप अपने आपको बुद्धिमान तब तक न समझें, जब तक कि आप अपने भारतीय होने पर ग्लानि का अनुभव न करने लगें और हिंदू होने पर शर्म का अनुभव न करें। तब तक आपको बौद्धिक जगत में मान्यता नहीं मिल सकती।’’ मोदी जी के आने के बाद इस नैरेटिव को बहुत ही भयानक तरीके से आगे बढ़ाने का प्रयास किया गया कि देश खत्म हो जाएगा। दरअसल, नैरेटिव की यह लड़ाई पिछले 50-60 साल से चल रही है।

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