फातिमा शेख को अब तक भारत की पहली मुस्लिम शिक्षिका और फेमिनिस्ट माना जाता रहा है। उन्हें ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का निकट सहयोगी माना जाता है जिन्होंने दलित और मुस्लिम बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए अनथक काम किया। भारत सरकार ने 2014 में फातिमा शेख की कहानी को पाठ्यपुस्तकों में जगह दी और गूगल ने डूडल बना कर उनको सम्मान दिया। लेकिन देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका के पूर्व संपादक ने यह दावा कर तहलका मचा दिया है कि फातिमा शेख एक काल्पनिक चरित्र हैं जिसका इजाद उन्होंने खुद किया है। घोर अंबेडकरवादी और उतने ही भाजपा के घोर विरोधी रहे इन पूर्व संपादक के इस दावे के बाद विरोधी और आलोचक उन पर टूट पड़े हैं। सोशल मीडिया पर यह बहस का मुद्दा बना हुआ है। वजह यह है कि आजकल वे हिंदू एकता की बात करते हैं और वैचारिक रूप से भाजपा के साथ खड़े दिखते हैं। लेकिन पूर्व संपादक के इस दावे में दम दिखता है क्योंकि वे बार-बार चुनौती दे रहे हैं कि अगर 2006 से पहले किसी ने भी कहीं फातिमा शेख का नाम सुना हो या उनके बारे में कुछ पढ़ा है तो वे आगे आएं। वे विरोधियों का जवाब भी अकाट्य तथ्यों के साथ दे रहे हैं। उनकी इस चुनौती का जवाब देने के लिए किसी ने कोई भी सबूत पेश नहीं किया है। सबूत के तौर पर हाल-फिलहाल छपी अखबारों की कुछ कतरनें हैं लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है जो पुराना हो।
फातिमा शेख नामक इस काल्पनिक चरित्र को स्थापित करने में दो दशक लगाने वाले ये पूर्व संपादक साफगोई से स्वीकार करते हैं कि मूर्तियां गढ़ना उनकी विशेषज्ञता है और ये सारा झूठ एक योजना के तहत था। वे फातिमा शेख नाम के इस चरित्र के जरिए दलितों व मुसलमानों को करीब लाना चाहते थे। ताकि भीम-मीम के नारे को वोट बैंक में बदला जा सके और भाजपा विरोधी पार्टियों को लाभ पहुंचाया जा सके। दलितों व मुस्लिमों का एका प्रत्येक ‘धर्मनिरपेक्ष’ पार्टी चाहती है। सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख के पोस्टर लगवा कर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल यह कोशिश 2022 में ही कर चुके हैं। जाहिर है कि नायक अगर अल्पसंख्यक समुदाय का है तो फिर धर्मनिरपेक्षता की पूरी राजनीति उसके आगे शीर्षासन करने लगती है। पूर्व संपादक की स्वीकारोक्ति देश में नरेटिव के खेल के स्याह चेहरे से नकाब उठाने के लिए काफी है। दशकों से इस देश में किसी खास वर्ग या जाति के साथ मुस्लिम वोटों के समीकरण बैठाने की राजनीति चल रही है। इसके लिए नायक भी गढ़े गए। कुछ नायक असली थे जिनका बहुत बढ़ा-चढ़ा कर महिमामंडन किया गया, कुछ नायकों को इतिहास के पन्नों से गायब कर दिया गया लेकिन काल्पनिक नायक गढ़ने का यह शायद पहला मामला है।
छवि बना और ध्वस्त कर सकता है ईकोसिस्टम
बहरहाल यह पूरा प्रकरण यह साबित करता है कि नरेटिव गढ़ने में लेफ्ट-लिबरल ईको-सिस्टम की महारत कितनी है। यह ईको-सिस्टम किसी की छवि बना सकता है तो उसे आसानी से ध्वस्त भी कर सकता है। यह सिलसिला स्वतंत्रता के बाद से ही चल रहा है जिसमें बड़े ही सुनियोजित तरीके से विश्वविद्यालयों में वामपंथियों को बढ़ावा दिया गया। अकादमिक जगत में इनके वर्चस्व का आलम यह था कि कोई राष्ट्रवादी विमर्श अर्से तक पनप ही नहीं पाया। और वामपंथी विमर्श व वामपंथी इतिहास भारत को टुकड़ों में बांटकर देखने का था। मिथक गढ़ने की परंपरा भी तभी से शुरू हुई। प्रोपेगेंडा हमेशा से वामपंथ का सबसे घातक हथियार रहा है और एकाध अपवादों के अलावा पूरी दुनिया में वामपंथ की दृष्टि कभी भी राष्ट्रीय नहीं रही। इसलिए टीपू सुल्तान चरमपंथी होने के बजाय राष्ट्रवादी हो गया तो अकबर महान हो गया। यहां तक कि नरसंहार कर हजारों मंदिर तोड़ने वाले औरंगजेब को मंदिर बनवाने वाले बादशाह के रूप में स्थापित करने की नाकाम कोशिश की गई।
सोवियत संघ के वाम तानाशाहों से सीखी अनपर्सन करने की तकनीक
वामपंथियों ने विरोधी विचारों या नेताओं को ‘अनपर्सन’ करने की तकनीक सोवियत संघ के वाम तानाशाहों से सीखी है। किसी व्यक्ति या विचार को अनपर्सन करना वह होता है जिसमें उसका जिक्र सभी जगहों से मिटा दिया जाता है। जैसे किसी नेता की सभी तस्वीरें, आलेख या नाम सभी जगह से मिटा दिए जाएं ताकि कुछ सालों में लोग भूल जाएं कि वह आदमी कौन था या उसके विचार क्या थे। विपरीत विचार लोगों तक पहुंचने ही नहीं दिए जाते। वामपंथी नरेटिव ने भारत में भी यही किया। भारतीय योद्धा शासकों या स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस से असहमति रखने वाले नायकों के नाम इतिहास के पन्नों से या तो गायब कर दिए गए या एक पैरे में समेट दिए गए।
क्या कहते हैं इतिहासकार विलियम डेलरिंपल
हालांकि इतिहास के नाम पर यह सरलीकृत प्रोपेगेंडा कभी स्वीकार्य नहीं हो पाया। वामपंथ के वर्चस्व के बावजूद इस घोर अराष्ट्रीय इतिहास और नरेटिव को चुनौती देने के प्रयास बंद नहीं हुए। शासन व सत्ता के प्रश्रय के अभाव के बावजूद राष्ट्रवादी विचार के इतिहासकारों ने इसे चुनौती देना जारी रखा। इसके नतीजे में इतिहास एक अखाड़ा बन गया। दशकों से भारत में रह रहे नेहरूवियन मिजाज के लेखक और इतिहासकार विलियम डेलरिंपल कहते हैं, “ भारत में दो प्रतिद्वंदी इतिहास हैं। यह इजराइल और फिलिस्तीन जैसा है और दोनों ही एक दूसरे के इतिहास को खारिज करने पर तुले हैं।” लेकिन डेलरिंपल ये नहीं बताते कि एक इतिहास सरकारी प्रश्रय में व उसकी मर्जी के अनुकूल लिखा गया और इसे ही सत्य और आधिकारिक इतिहास बताया गया। दूसरी तरफ राष्ट्रवादी सोच के इतिहासकार हमेशा से हाशिये पर रहने के बावजूद जो इतिहास लिख रहे हैं, उसे चुनौती दे पाने में वामपंथी इतिहासकार विफल हो रहे हैं।
इसकी वजह यह है कि वामपंथी नरेटिव को फलने फूलने के लिए सत्ता के प्रश्रय और सूचनाओं के प्रवाह पर नियंत्रण की जरूरत होती है। लेकिन इंटरनेट और सूचना क्रांति के दौर में खबरों व सूचनाओं पर तमाम कोशिशों के बावजूद मोनोपाली संभव नहीं रह गई है और सत्ता का प्रश्रय रहा नहीं। नित नए तथ्यों के आलोक में वामपंथियों द्वारा गढ़े गए महानायक अपनी चमक खो बैठे हैं। और कइयों का तो बिलबिलाता सच सामने आ चुका है।
लेफ्ट-लिबरल ईको सिस्टम है प्रभावी
फिर भी छवि गढ़ने, आख्यान रचने की कला के अपने फायदे हैं। एक काल्पनिक चरित्र को महज दो दशकों में एक महानायक की तरह स्थापित कर देना यह साबित करता है कि लेफ्ट-लिबरल ईको सिस्टम कितना प्रभावी है। लेकिन कल तक उसी खेमे का एक अहम पुर्जा रहे एक व्यक्ति का सामने आकर यह स्वीकार करना कि उन्होंने इस काल्पनिक चरित्र को गढ़ा था और अब वे अपने झूठ को स्वीकार कर इस चरित्र को ध्वस्त कर रहे हैं, कई मायनों में चौंकाने वाली घटना है। पहला तो यह कि भारतीय समाज में इस तरह की ईमानदारी लगभग नगण्य है जहां कोई व्यक्ति सीना ठोंक कर कहे कि उसने झूठ बोला था। दूसरे, यह उस खेमे की विश्वसनीयता पर करारी चोट है जिस पर पहले से ही तथ्यों को तोड़ने मरोड़ने, फर्जी नैरेटिव तैयार करने और मिथक गढ़ने के इल्जाम थे। तीसरे, यह स्वीकारोक्ति कहीं इस बात का स्वीकार तो नहीं कि मुस्लिम वोट बैंक को आधार बना कर दलित-मुस्लिम या पिछड़ा-मुस्लिम राजनीति की अपनी सीमाएं हैं और इसके नतीजे में हिंदुओं में हो रहा ध्रुवीकरण उनके खिलाफ जा रहा है। यानी तुष्टीकरण आधारित और हिंदुओं को जातियों में बांट कर रखने और मुसलमानों को एकजुट करने की राजनीति अब शायद उतनी प्रभावी नहीं रह गई है। फातिमा शेख को गढ़ने वाले मूर्तिकार ने दीवार पर लिखी इबारत पढ़ ली है। देखने वाली बात यह होगी कि कथित सामाजिक न्याय के योद्धा इसे कब पढ़ पाते हैं।
(लेखक मीडिया रणनीतिकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं)
Leave a Comment