पाञ्चजन्य के 78वें स्थापना वर्ष पर बात भारत की अष्टायाम कार्यक्रम में केंद्रीय संस्कृति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने कहा कि 450-500 साल पहले बाबर के सेनापति ने राम मंदिर को तोड़ा था, जिसे बचाने के लिए उस दौरान भी अनेक लोगों ने अपना बलिदान किया रहा होगा। भगवान श्रीराम का मंदिर टूटने के साथ ही भारत के सौभाग्य का भी सूर्यास्त हो गया था। लेकिन, 500 साल की ये जो अमावस्या की यात्रा पूरी करके जब से राम मंदिर बना है, तभी से फिर से भारत के सौभाग्य का सूर्य फिर से उदित हुआ है।
प्रश्न: भारतीय संस्कृति को लेकर पिछले एक दशक से एक प्रकार के पुनर्जागरण को देखा जा रहा है, लोग अपनी संस्कृति की बात गर्व के साथ करते हैं। इसे आप कैसे देखते हैं?
उत्तर: पिछले 10 साल में नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद सरकार में बैठे लोगों ने जब से अपनी संस्कृति पर गर्व करना शुरू किया है, तो आज भारत में संस्कृति को लेकर एक नई चेतना निश्चित तौर पर दिखाई देती है। भारत की स्वीकार्यता, यहां से निकले ज्ञान और विज्ञान को हमारे ऋषियों और मनीषियों ने खोजा और मनुष्य के कल्याण के लिए संचित किया था, जो कि वैज्ञानिकता पर पूरी तरह से सत्यापित भी है। लेकिन, दुर्भाग्य से जिसे संभाल कर रखा नहीं गया, उसे अब पिछले दस साल के अंदर जिस गति के साथ भारत ने प्रगति की, उसके चलते विश्व के पटल पर भारत के प्रति एक आदर भाव बना। साथ ही साथ जब भारत और उसके लोगों ने अपनी संस्कृति के मूल तत्वों पर गर्व करना प्रारंभ किया, एक बार फिर से भारत के मान बिन्दुओं की पहचान पूरे विश्व में नए सिरे से लिखी जा रही है। इसलिए पूरी जिम्मेदारी के साथ ये कहा जा सकता है कि भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का काल अब प्रारंभ हुआ है।
कुछ दिनों पहले मैंने एक बात कही थी कि 450-500 साल पहले बाबर के सेनापति ने राम मंदिर को तोड़ा था, जिसे बचाने के लिए उस दौरान भी अनेक लोगों ने अपना बलिदान किया रहा होगा। भगवान श्रीराम का मंदिर टूटने के साथ ही भारत के सौभाग्य का भी सूर्यास्त हो गया था। लेकिन, 500 साल की ये जो अमावस्या की यात्रा पूरी करके जब से राम मंदिर बना है, तभी से फिर से भारत के सौभाग्य का सूर्य फिर से उदित हुआ है। आप देखिए न पूरे विश्व में भारत योग, कृषि पद्धति, भारत की जीवन पद्धति की और भारत के पारिवारिक मूल्यों की जिस तरह से स्वीकार्यता नए सिरे से बन रही है, ये स्वीकार्यता ही भारत को आने वाले वक्त में विश्व के पटल में प्रणव में बनाएगी। भारत के लिए आदर का भाव सृजित करेगी।
प्रश्न: एक संस्कृति मंत्री के तौर पर जो आप दुनिया को दिखाने को कहते हैं, जो बात आपने कुंभ को लेकर भी कही। एक मंत्री के तौर पर आप इसे कैसे देखते हैं?
उत्तर: हाल ही में मैंने एक नोबल विजेता का आर्टिकल पढ़ा, जिसमें उन्होंने कहा कि दुनिया का कोई भी देश विश्व का अग्रणी देश बने, उसके लिए आवश्यक है कि वो आर्थिक दृष्टि से मजबूत बने। भारत की आर्थिक दृष्टि की रफ्तार कितनी तेज है ये इस बात से समझा जा सकता है कि जब पूरी दुनिया वैश्विक मंदी के दौर से गुजर रही है तो भी हम एक ध्रुव तारे की तरह से चमक रहे हैं। लेकिन, अगर जिन देशों ने आर्थिक दृष्टि से प्रगति की है और उनकी प्रति व्यक्ति आय दुनिया में सबसे अच्छी है, लेकिन फिर भी दुनिया में वो नेतृत्वकर्ता देश नहीं हो सकते।
दूसरा विषय नोबल विजेता ने ये रखा कि किसी भी देश को आर्थिक दृष्टि से आगे बढ़कर विश्व का नेतृत्वकर्ता बनना है तो उसे सामरिक दृष्टि से खुद को सशक्त बनाना होगा। पिछले 10 साल में हमने रक्षा के क्षेत्र में तेज प्रगति की है। अब तो हम कुछ ही चीजों का आयात कर रहे हैं। इसी को अगर दूसरे नजरिए से देखें तो दुनिया के ऐसे देश, जिनके पास बहुत मिलिट्री पॉवर है। हम देख रहे हैं एक देश अपने 8 पड़ोसियों से अकेले लड़ रहा है (इजरायल), लेकिन वो भी दुनिया का नेतृत्व कर्ता नहीं है।
लेकिन इन दोनों से ही आगे बढ़कर उसे विश्व का नेतृत्व करना है तो किसी भी देश को तकनीकी तौर पर दक्ष होना पड़ेगा। ताइवान का हाल हम देख चुके हैं। भारत में हम देख रहे हैं कि सेमी कंडक्टर से लेकर नई नई तकनीकों को ग़ढ़ा जा रहा है। भारत में तकनीक के नए दौर का सूत्रपात हुआ है। उसके चलते देश से बाहर जाने वाला भारत का ब्रेन अब भारत में ही ठहर रहा है। लेकिन, इन तीनों के अलावा वो तत्व जो किसी भी देश के लिए आदर अर्जित करता है, वो उसकी सॉफ्ट पॉवर है। भारत की यही सांस्कृतिक ताकत ही उसे विश्व का नेतृत्वकर्ता बनाएगी।
जिस प्रकार से हम इन चारों पिलर्स पर एक साथ आगे बढ़ रहे हैं। जब से हमने खुद की संस्कृति का सम्मान करना शुरू किया है, तभी से पूरी दुनिया ने हमारा सम्मान करना शुरू किया है। क्योंकि दुनिया में किसी कमजोर का कोई सम्मान नहीं करता। यही विश्व गुरु बनने का रास्ता तय करता है।
प्रश्न: भारत की सांस्कृतिक समृद्धता या फिर भारत की सांस्कृतिक पहचान के साथ सामाजिक समरसता के भाव को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर: असल में यूनिट इन डाइवर्सिटी की बात करने वाले लोग भारत की सांस्कृतिक आत्मा को पहचानते ही नहीं थे। भारत में ऊपरी तौर पर कितनी भी विविधताएं दिखाई देती हों, चाहे वो क्राफ्ट की, क्लॉथ की या फिर कोई और इन सब के होते हुए भी भारत जैविक रूप से एक था। हमारी मान्यताओं, विश्वासों, त्योंहारों हमारी नदियों के चलते, हिन्दी और कुंभ के चलते हुए कोई भी अगर आप कुंभ में स्नान कर रहे होते हैं तो कोई किसी से आपकी जाति या धर्म नहीं पूछता। भारत के मूल तत्व को न समझने वाले लोगों ने इस तरह के विचारों को खड़ा किया। मैं ये मानता हूं कि भारत एक था और एक है।
केंद्रीय मंत्री ने सवालिया लहजे में कहा कि क्या किसी के शरीर को देखकर किसी ने सवाल किया कि आपके हाथ या पांव को समरसता की आवश्यकता है। क्योंकि समरसता का सूत्र व्यक्ति की आत्मा में निहित होता है। उस पर किसी तरह के विमर्श की आवश्यकता नहीं है।
प्रश्न: समरसता का ये विमर्श पिछले 10 सालों में अधिक पुनर्जागृत हुआ है। आप क्या मानते हैं कि इसे और अधिक दूर तक जाना चाहिए?
उत्तर: ऐसे लोग जिनकी मानसिकता ही गुलामी से भरी हुई थी उनके चलते हुए डाइवर्सिटी की ये परिस्थिति खड़ी हुई। लेकिन, अब सोच, विचारा और दृष्टिकोण जब बदल रहा है तो ये विमर्श बदलेगा। भारत के विचारों को भारत में खड़ा करने की जरूरत ही नहीं। अगर हम उस तरीके से सोचनें लगें तो वैसा विमर्श अपने आप ही खड़ा हो जाएगा। भारत परंपरा से ही नेतृत्व करने वाले लोगों का देश रहा है। जिस तरह से उस दौरान लोग नेतृत्व कर रहे थे उनकी मानसिकता ड्रेन होकर नीचे तक आई थी। हर्षवर्धन के समय में भारत उस तरीके से सोच रहा था और पुष्यमित्र शुंग के काल में उसी दृष्टि से सोच रहा था। उसी प्रकार से पिछले 10 साल में भारत में जिस प्रकार से ऊपर से नीचे तक लोगों की सोच गई है। उस दिन ये विमर्श अपने आप ही धरातल में बैठे अंतिम व्यक्ति तक गया।
धरातल में बैठे व्यक्ति के विचार पहले भी अपनी सांस्कृतिक मूल्य की ओर थे और अब भी हैं। लेकिन उसके विचार ऊपर बैठे लोगों से प्रभावित होते हैं। ये जो वक्त है ये पुनरुद्भव का दौर है। अब ऊपर और नीचे बैठे लोगों के बीच के गैप को पाटना है। अब ये ऊपर पहुंचता हुआ दिखेगा।
प्रश्न: हम तो ये सुनते आए हैं कि ये आइडिया ऑफ इंडिया है या फिर नया भारत अपने आपको रिपैकेजिंग करने की कोशिश है?
उत्तर: देखिए किसी भी प्रकार की पैकेजिंग की जरूरत नहीं है। जिस प्रकार अंगार के ऊपर थोड़ी से राख जम जाती है, तो उसे केवल झाड़ने की जरूरत होती है। वो राख अब झड़ गई है। अब जो भारतीय की हवा चलेगी और उससे जो अग्नि प्रज्वलित होती उससे अपने आप ही उजियारा चारों तरफ अपने आप होगा।
प्रश्न: आपने विकास और विरासत की भी बात की, क्रिएटिव इकोनोमी की बात भी सरकार कर रही है। कुंभ में आप जा चुके हैं वहां आपको क्या झलक दिखी?
उत्तर: कुंभ के धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष की चर्चा कई वर्षों से हो रही है। अगर हम वैश्विक पटल पर टूरिज्म की बात करें तो लोग फ्रांस में हर साल 4 करोड़ लोग आते हैं, थाइलैंड में 4 करोड़ लोग आते हैं, सिंगापुर में 2 करोड़ लोग आते हैं। दुबई में ढाई करोड़ लोग आते हैं, लेकिन भारत में एक करोड़ 30 लाख लोग ही आते हैं। लेकिन, वो भारत को भारत की नजर से नहीं देखते हैं। यहां हर 12 साल में 45 करोड़ लोग इकट्ठे होते हैं। दुनिया के सारे टूरिज्म को इकट्ठा कर दे तो भी कुंभ की बराबरी नहीं हो सकती। अगर हम अपने धार्मिक स्थानों की बात करें तो केवल उज्जैन में ही महाकाल के दर्शन के लिए साल में साढ़े 4 करोड़ लोग आते हैं। लेकिन, हमने कभी उस इकोनोमी को ऑर्गनाइज नहीं किया। कुंभ की दृष्टि से देखें तो सोचो 45 करोड़ लोग अपने घरों से निकल कर वहां पहुंचेंगे तो वो अपने आप में जीडीपी में कितना बड़ा योगदान होगा। इस कुंभ के बाद भारत की तरफ देखने की पूरी दुनिया का दृष्टिकोण बदलने वाला है। कुंभ भारत के लिए भारत को विराट रूप में देखने का अवसर है।
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