ब्रिटेन और यूरोप में ‘ग्रूमिंग गैंग’ की घटनाओं के मुद्दे का जिन्न फिर बोतल से बाहर निकल आया है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने नाबालिग लड़कियों को योजना के तहत फंसाकर उनका यौन शोषण करने, ड्रग्स देने वाले संगठित अपराधियों के गिरोह को ‘एशियाई ग्रूमिंग गिरोह’ कहा जबकि यौन शोषण करने वाले ज्यादातर आरोपी पाकिस्तानी मुसलमान हैं।
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महिलाओं के प्रति बर्बर कट्टर कबाइली मानसिकता से ग्रसित समुदाय के लोगों द्वारा इस तरह के अपराध को एशियाई गिरोह बताने पर उद्धव ठाकरे की अगुआई वाली शिवसेना की नेता प्रियंका चतुर्वेदी ने एक्स पर अपनी पोस्ट में कहा कि ये ‘एशियाई’ नहीं, बल्कि ‘पाकिस्तानी ग्रूमिंग गैंग’ हैं। इसका समर्थन अमेरिका के अरबपति बिजनेसमैन एलन मस्क ने भी किया। वैसे, जो इन दोनों ने कहा, वही 2023 में ब्रिटेन की तत्कालीन गृह मंत्री सुएला ब्रेवरमैन ने भी कहा था। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था कि पाकिस्तानी पुरुषों का गैंग ब्रिटेन की श्वेत लड़कियों को अपना निशाना बना रहा है।
ब्रिटेन में जो हुआ या हो रहा है, उसे किसी एक देश के संदर्भ में न देखते हुए यदि समाज के संदर्भ में देखें तो यह मानसिकता एक ऐसे कट्टरपंथी मजहबी समाज की है जो बाकी सारी दुनिया, सारी सभ्यताओं और आस्थाओं और उनकी पहचान से द्वेष और पूर्वाग्रह रखता है।
1997 से 2013 के बीच, ब्रिटेन के रॉदरहैम में लगभग 1,400 नाबालिग लड़कियां संगठित यौन शोषण की शिकार बनीं। यह संयोग नहीं कि अधिकांश पीड़ित श्वेत समुदाय से थीं, जबकि अपराधी मुख्यत: पाकिस्तानी मूल के मुसलमान थे। ये घटनाएं केवल व्यक्तिगत विकृतियों का परिणाम नहीं थीं। यह एक व्यवस्थित और संगठित अपराध था, जो कबाइली मानसिकता और सभ्य समाज से दुराग्रह से प्रेरित था।
शोधकर्ता एला हिल, जो स्वयं इस शोषण का शिकार रही हैं, का दावा है कि ब्रिटेन में पिछले चार दशक में लगभग 5 लाख लड़कियों का इसी तरह यौन शोषण हुआ। यह आंकड़ा हृदयविदारक है। इससे भी ज्यादा चिंताजनक यह है कि स्वयं के उदार और संवेदनशील होने का दम भरने वाले प्रशासन और राजनीतिक व्यवस्था ने इन घटनाओं के प्रति निर्ममता से आंखें मूंद लीं।
क्यों? क्योंकि सचाई का सामना करने का साहस शायद किसी में नहीं था।
वैसे, ऐसा केवल ब्रिटेन में ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। 1990 के दशक में जब कश्मीरी पंडितों को रातों-रात वहां से पलायन करने को मजबूर होना पड़ा तब कट्टरपंथियों द्वारा नारे लगाए जाते थे-‘हमें कश्मीर चाहिए, तुम्हारे बिना, लेकिन तुम्हारी औरतों और लड़कियों के साथ।’ अजमेर में 1992 में कुछ ऐसा ही हुआ था। इस गैंग का मुखिया अजमेर यूथ कांग्रेस का तत्कालीन जिला अध्यक्ष फारुख चिश्ती था। उसने अपने साथियों नफीस चिश्ती, सलीम चिश्ती, इकबाल भाटी, नसीम, जमीर और सोहिल समेत कई अन्य को लेकर स्कूल-कॉलेज की करीब 100 हिन्दू लड़कियों को फंसाकर उनका यौन शोषण किया था।
इस केस में हालांकि फैसला आ चुका है लेकिन बहुत से मामले तो ऐसे हैं जो दर्ज ही नहीं कराए गए। कितनी ही लड़कियों ने आत्महत्या तक कर ली थी। आईएसआईएस के आतंकियों ने यजीदी महिलाओं के साथ कितनी बर्बरता की, इसे पूरा विश्व जानता है। यौन गुलाम के तौर पर उनकी मंडियां तक लगाई जाती रहीं। उनके चंगुल से छूटकर भागी कई लड़कियों ने उनकी बर्बरता के बारे में बताया है। ऐसी एक-दो नहीं, हजारों कहानियां हैं।
ऐसी घटनाएं न केवल मानवता को झकझोरने वाली हैं बल्कि यह भी उजागर करती हैं कि कैसे तुष्टीकरण की राजनीति और प्रशासनिक निष्क्रियता पूरे समाज और पीढ़ियों को गहरे संकट में डाल सकती हैं।
ऐसी घटनाएं सिर्फ अपराध ही नहीं बल्कि सभ्य समाज के बुनियादी मूल्यों- न्याय, समानता और सह-अस्तित्व-के खिलाफ हमला भी हैं। जब पूरे विश्व में इस तरह की घटनाएं एक सोची-समझी साजिश के तहत कट्टरपंथी सोच रखने वाले मजहबी समुदाय के द्वारा अंजाम दी जा रही हों तो घटनाओं से सबक लेना जरूरी हो जाता है। यह केवल पीड़ितों को न्याय दिलवाने की बात नहीं है बल्कि यह समाज को फिर से विश्वास दिलाने और भविष्य को सुरक्षित बनाने की बात है।
हमें यह समझना ही होगा कि न्याय और सुरक्षा के बिना कोई समाज सभ्य नहीं बन सकता। न्याय सुनिश्चित करने के लिए, समाज को कट्टरता और घृणा से मुक्त करने के लिए हमें उदारवाद का चश्मा उतारकर साहसिक कदम उठाने ही होंगे। वरना यह सवाल हमेशा बना रहेगा कि हमने कब अपनी जिम्मेदारी निभाई?
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