संविधान कोई शब्द, कोई दस्तावेज भर नहीं। यह सहअस्तित्व और सहबद्धता की हमारी सदियों पुरानी संस्कृति से निकले नीति-निर्देशक सिद्धांतों का संकलन है। यह भारत की आत्मा है और इसके निर्माताओं ने इन्हीं भावनाओं को इसमें समाहित किया। आज हम संविधान की हीरक जयंती मना रहे हैं। हीरक जयंती अर्थात् एक विशेष अवसर। किस बात का अवसर? यह देखने का कि हमने जिन आधारभूत सिद्धांतों को सामने रखते हुए इसे अपनाया, उसके साथ कहीं कोई समझौता तो नहीं हो गया? अगर हुआ, तो आगे की यात्रा में क्या-क्या सावधानियां रखनी होंगी।
भारत की आधारशिला है यह संविधान। स्वतंत्रता के बाद देश के लोगों ने इसे केवल स्वीकार नहीं किया, बल्कि आत्मार्पित किया। लेकिन पीछे मुड़कर उन बीते वर्षों को देखते हुए हम पाते हैं कि हमारे संविधान ने अपने जन्म के साथ ही आघात भी सहे। संविधान पर पहला हमला हुआ 1951 में। देश में तब चुनाव भी नहीं हुए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा ‘‘हालात अब बर्दाश्त के बाहर हो गए हैं। हमें इसका समाधान ढ़ूंढना होगा। अगर इसका मतलब संविधान में संशोधन है, तब भी।…सरकार की सामाजिक नीति को लागू करने में अदालतों और संविधान को आड़े नहीं आने दिया जाएगा।’’ ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 12 मई, 1951 को संसद में पहला संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया। याद रखें, तब अंतरिम सरकार थी। ये विधेयक मूल संवैधानिक प्रावधानों से इतने भिन्न थे कि जाने-माने कानून-इतिहासविद् उपेंद्र बख्शी ने इसे ‘दूसरे संविधान’ या ‘नेहरू के संविधान’ की संज्ञा दी थी।
स्पष्ट है, संविधान बनाने वालों ने जिस भावना के साथ इसकी रूपरेखा तय की, या तो तब का राजनीतिक नेतृत्व उसे समझ नहीं सका, या तो उसके लिए सत्ता की सीढ़ियां चढ़ना कहीं महत्वपूर्ण था, बेशक संविधान की आत्मा कहीं शुरुआती किसी सीढ़ी के नीचे दबी रह जाए।
बेशक संविधान बनाने का काम एक बड़ी टीम ने किया, लेकिन उसके सर्वमान्य प्रतीक पुरुष बाबासाहेब ही हैं। अब दो बातों पर गौर करें। एक-बाबासाहेब को भारत रत्न इतनी देर से क्यों मिला और दो- देश में आपातकाल क्यों लागू हुआ? इन दोनों प्रश्नों को अलग-अलग करके देखेंगे तो शायद जड़ तक नहीं पहुंचेंगे, लेकिन अगर दोनों को एक साथ देखें, तो पाएंगे कि यह संविधान की मूल भावना का सम्मान न करने की दुराग्रही विरासत के कारण था। असल में कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार न कभी बाबासाहेब को पसंद करता था, न उनके विचारों को। कांग्रेस ने तो भरसक प्रयास किया था कि डॉ. आंबेडकर संविधान सभा का हिस्सा भी न बन सकें। इतना ही नहीं, कांग्रेस ने 1952 में बाबासाहेब को चुनाव हराने की चौसर भी बिछाई।
दरअसल, अंग्रेजों द्वारा अंग्रेजों के लिए बनाई गई ‘सेफ्टी वॉल्व पार्टी’ ने अंग्रेजों से राज करने का मूल मंत्र ‘बांटो और राज करो’ को इस तरह आत्मसात कर लिया कि उसके स्पष्ट संकेत हमेशा मिलते रहे हैं। मुसलमानों को वोट बैंक समझने वाली कांग्रेस को बाबासाहेब आंबेडकर इसलिए भी रास नहीं आते कि उन्होंने बौद्ध मत अपनाते हुए भी दलितों को हिंदुत्व के व्यापक सिद्धांतों से अलग नहीं होने दिया। ऐसे में खुद को भारतरत्न देने की परिपाटी शुरू करने वाली कांग्रेस भला बाबासाहेब को भारतरत्न कैसे देती?
बाबासाहेब को सम्मान देना एक बुनियादी ईमानदारी की भी बात है। ‘सबका साथ, सबका विकास’ की दृष्टि हो, सबके लिए समान कानून की बात हो, महिला को समता के अधिकार की बात हो, बाबासाहेब का संविधान इन सबकी गारंटी बनकर खड़ा हो जाता है।
ऐसी पृष्ठभूमि में जब हम संविधान की हीरक जयंती मना रहे हैं, तो यह आयोजन रस्मी नहीं होना चाहिए। देश का वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व अपनी निष्ठा प्रदर्शित कर रहा है, लेकिन बाकी सबके लिए भी संविधान उतना ही महत्वपूर्ण होना चाहिए। कहते हैं, जब जागो, तभी सवेरा। तो यह संदेश पूरी स्पष्टता के साथ देश को जाना चाहिए कि संविधान के लिए हममें कोई मतभेद नहीं, हम सब साथ-साथ हैं। यह मौका है इसे बताने, इसे जताने और एक साथ कदमताल करने का, क्योंकि भारत के भविष्य की गारंटी यह संविधान ही है। इसके मूल भाव से कोई समझौता नहीं होना चाहिए। हम रहें या न रहें, आज के दल रहें या न रहें, यह देश रहना चाहिए।
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