हमारे गौरवशाली अतीत का इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि जिस वीर प्रसूता भारतमाता की कोख से दुधमुहीं आयु में शेर के दांत गिनने वाले भरत, पांच वर्ष की आयु में मृत्यु के देवता यमराज से ब्रह्म विद्या का ज्ञान प्राप्त करने वाले नचिकेता और छह व सात वर्ष की आयु में भक्ति की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने वाले ध्रुव व प्रह्लाद जैसे दिव्य नगीने जन्में थे; उसी दिव्य भूमि में समय के अंतराल (अब से तीन शताब्दी पूर्व) में देश व धर्म की रक्षा में स्वयं का बलिदान दे देने वाले खालसा पंथ के संस्थापक दशम पातशाह गुरु गोविन्द सिंह के चार पुत्रों का भी जन्म हुआ था। माँ भारती के यह चार बाल रत्न थे – अजीत सिंह (17 वर्ष), जुझार सिंह (14 वर्ष), जोरावर सिंह (9 वर्ष) और फतेह सिंह (7 वर्ष)।
खालसा पंथ का इतिहास साक्षी है कि गुरु गोविन्द सिंह ने धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए मुगल आक्रान्ता औरंगज़ेब से एक दो नहीं, अपितु 14 बार युद्ध लड़ा था। इन युद्धों में वर्ष 1704 में हुए चमकौर और सरहिंद के युद्ध में सिख योद्धाओं ने अभूतपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया था। उस युद्ध में गुरु गोबिन्द सिंह के नेतृत्व में उनके किशोरवय बेटों और 40 सिख सैनिकों यानी कुल 43 लोगों ने मिलकर 10 लाख सैनिकों की मुगल सेना को खत्म कर दिया था। सोचने से ही अकल्पनीय और अविश्वसनीय प्रतीत होता है कि एक ओर मात्र 43 सिख और दूसरी ओर 10 लाख मुग़ल सैनिक; लेकिन विजय गुरु गोबिन्द सिंह की हुई । कहा जाता है कि तभी से हमारे समाज में “सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं, तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं” की कहावत प्रचलित हो गयी; जो भारत की वीर परम्परा का पर्याय मानी जाती है। गुरु गोबिन्द सिंह का उदघोष ‘’सूरा सो पहचानिए, जो लडै दीन के हेत, पुरजा-पुरजा कट मरै, कबहू ना छाडे खेत’’ देश व संस्कृति की रक्षा के लिए सर्वस्व समर्पित कर देने के संकल्प का प्रतीक है।
‘जफ़रनामा’ में दर्ज सिख धर्म के इतिहास के अनुसार, उस युद्ध में चमकौर साहिब में मुगलों की सेना से लड़ते हुए गुरु गोबिन्द सिंह के दो बड़े बेटे अजीत सिंह और जुझार सिंह युद्धभूमि में शहीद हो गये थे और जोरावर सिंह और फतेह सिंह जी को धोखे से पकड़कर औरंगज़ेब के सेनापति वजीर खान के सामने प्रस्तुत किया गया। उसने दशम गुरु के दोनों छोटे बेटों के सामने जान बख्शने के इस्लाम अपनाने की शर्त रखी। लेकिन, उन दोनों नन्हें शूरवीरों ने जिन्दा दीवार में चुनवाया जाना स्वीकार कर मौत को गले लगा लिया पर स्वधर्म नहीं त्यागा। इतिहास की वह अविस्मरणीय घटना 26 दिसंबर 1704 में घटी थी। शौर्य की पराकाष्ठा के समक्ष आयु कोई मायने नहीं रखती; माता गूजरी और गुरु गोबिन्द सिंह जी के जांबाज पुत्रों का यह महान बलिदान इसी बात का प्रतीक है।
अत्यंत खेद का विषय है कि भारत के अतीत का यह गौरवशाली स्वर्णिम अध्याय आजादी के बाद कांग्रेसी शासन में इतिहास के पृष्ठों में अंकित नहीं किया गया; जबकि यह युद्ध इस देश में मात्र तीन सदी पहले ही हुआ था। एक तरफ कट्टर मुगल सल्तनत थी तो वहीं ज्ञान और तपस्या में तपे हुए सिख गुरु। एक तरफ आतंक की पराकाष्ठा तो दूसरी तरफ अध्यात्म का शीर्ष। एक तरफ लाखों की फौज थी तो दूसरी तरफ अकेले ही निडर खड़े बाल वीर। यह उन वामपंथी इतिहासकारों की कलम का दोष था जिनके नीलाम मन और बिकी स्याही से आजाद भारत में भी अंग्रेज अफसरों के नामों के आगे ‘सर’ लगाया और देश के क्रांतिकारियों को अपराधी तक लिखा। इतना ही नहीं उन्होंने देशवासियों को यह जानने ही नहीं दिया कि देश के लिए सच्चा बलिदान किसने और कब दिया। यह देश को अनंत काल तक पीड़ा पहुंचाने वाला धोखा है। किन्तु गर्व का विषय है कि आज का ‘नया भारत’ दशकों पहले हुई ऐसी भूलों को सुधार रहा है। इसी क्रम में प्रधानमंत्री मोदी की एक अत्यंत प्रेरणादायी पहल है दशम गुरु के वीर सपूतों के महान बलिदान की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए वर्ष 2022 में 26 दिसंबर की तिथि को वीर बालक दिवस के रूप में मनाने की उद्घोषणा। इसके पीछे का मूल भाव है इन वीर बालकों के जीवन संदेश को देश के हर बच्चे तक पहुंचाना ताकि वे उनसे प्रेरणा लेकर देश के लिए समर्पित नागरिक बन सकें। आज भारत की युवा पीढ़ी भी इसी संकल्प के साथ देश को नई ऊंचाई पर ले जाने के लिए निकल पड़ी है। ऐसे में ‘वीर बाल दिवस’ की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है।
‘वीर बाल दिवस’ पर सम्मानित होंगे बहादुर बच्चे
हर्ष का विषय है कि इस वर्ष भारत सरकार ने ‘वीर बाल दिवस’ की थीम को और अधिक परिमार्जित किया है। इस वर्ष से सरकार ने गणतंत्र दिवस के बजाय ‘वीर बाल दिवस’ के मौके पर बहादुर बच्चों को सम्मानित करने का निर्णय लिया है। इस बार वीरता के लिए राष्ट्रीय बाल पुरस्कार से पुरस्कृत होने वाले 17 बच्चों को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु आज (26 दिसंबर को) राजधानी दिल्ली स्थित भारत मंडपम में आयोजित समारोह में सम्मानित करेंगी। गौरतलब हो कि ये पुरस्कार सिर्फ वीरता के लिए ही नहीं बल्कि कला-संस्कृति, अन्वेषण, विज्ञान व तकनीकी, समाजसेवा, खेल और पर्यावरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिए जाएंगे।
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