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ग्राहक का सशक्तिकरण ही “ग्राहक संप्रभुता” का मार्ग है!

भारतीय चिंतन के दृष्टिकोण से अर्थव्यवस्था के केंद्र बिंदु "ग्राहक की संप्रभुता" पर विचार करने से पहले "ग्राहक" शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है।

by श्री दिनकर जी सबनीस
Dec 24, 2024, 03:14 pm IST
in भारत
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भारतीय चिंतन के दृष्टिकोण से अर्थव्यवस्था के केंद्र बिंदु “ग्राहक की संप्रभुता” पर विचार करने से पहले “ग्राहक” शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। क्योंकि वैश्विक ग्राहक आंदोलन “ग्राहक” को बाजार में की जाने वाली खरीद-बिक्री की गतिविधियों तक ही सीमित रखता है। जबकि ‘ग्राहक’ शब्द अंग्रेजी में ‘उपभोक्ता’ या ‘कस्टमर’ का पर्याय नहीं है। इसे हिंदी शब्द ‘उपभोक्ता’ का पर्याय भी नहीं माना जा सकता। ‘उपभोक्ता’ शब्द उपभोग की अवधारणा से लिया गया है, जबकि ‘ग्राहक’ शब्द प्राप्त करने या स्वीकार करने की क्रिया से उत्पन्न हुआ है। दोनों के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है। उपभोग असीमित है और आवश्यकता के बजाय क्षमता को संतुष्ट करता है, जबकि प्राप्ति आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित है। आवश्यकता पूरी होने पर संतुष्टि प्राप्त होती है।

”ग्राहक” शब्द सुनकर वास्तव मे विचार यह होना चाहिए कि, ग्राहक ही अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। ग्राहक केवल वस्तुओं और सेवाओं के खरीदार नहीं हैं; ग्राहक आर्थिक ढांचे का केंद्रीय तत्व हैं। ग्राहक की मांग ही उत्पादन प्रक्रिया की शुरुआत करती है, और यही मांग अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखती है।

ग्राहक की प्राथमिकताएं और शक्ति अर्थव्यवस्था को दिशा देती हैं। अगर ग्राहक उत्पादों या सेवाओं के प्रति उत्साह नहीं दिखाते हैं, तो उद्योग और व्यवसाय मंदी का अनुभव कर सकते हैं, जिससे अंततः उत्पादन में कमी और अर्थव्यवस्था में संभावित ठहराव आ सकता है। इसका मतलब है कि आर्थिक समृद्धि के लिए ग्राहक का आत्मविश्वास और क्रय शक्ति आवश्यक है।

आर्थिक परिदृश्य में विभिन्न बाजार विकल्पों की उपलब्धता बढ़ रही है, परन्तु ग्राहक को प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता है। उनकी ज़रूरतें और प्राथमिकताएँ अद्वितीय हैं। इसलिए, सरकार और विभिन्न व्यवसाय अपने ग्राहक – अनुभव और संतुष्टि पर ध्यान केंद्रित करते हुए रणनीतियाँ तैयार करते हैं।

इस संदर्भ में, ग्राहक की संप्रभुता का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है। ग्राहकों के पास अब ज्ञान और विकल्प दोनों है, और वे इनका उपयोग संतोषजनक अनुभव सुनिश्चित करने के लिए करते हैं। उनके लिए अपने अधिकारों और विकल्पों के बारे में जागरूक होना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे न केवल उनकी संप्रभुता मजबूत होती है, बल्कि अर्थव्यवस्था भी सशक्त होती है।

अंततः हम कह सकते है, “ग्राहक” अर्थव्यवस्था के विकास और सुधार के लिए ज़रूरी कुंजी हैं; उनकी संतुष्टि और भरोसा दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता और विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

किसी भी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए ग्राहक की सक्रिय भागीदारी एक अनिवार्य शर्त है। लेकिन, वर्तमान में वैश्विक आर्थिक गतिविधियां ग्राहक की अनदेखी करते हुए संचालित की जा रही हैं। पारदर्शिता का पूर्ण अभाव है। यही कारण है कि दुनिया की अधिकांश अर्थव्यवस्थाएं इस समय संकट में हैं। सरकार, उत्पादक, कॉरपोरेट और व्यापारी – ग्राहकों को अंधेरे में रखकर न केवल उनका शोषण कर रहे हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था के पोषक तत्वों को भी नष्ट कर रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि जैसे ही ग्राहक का बाजार से भरोसा डगमगाता है, वैसे ही मंदी की काली छाया बाजार को अपनी चपेट में लेने लगती है। ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था के सभी घटक प्रभावित होने लगते हैं और वे ग्राहकों को बाजार की ओर आकर्षित करने के लिए अप्राकृतिक तरीकों का सहारा लेते हैं।

पश्चिमी दुनिया में ग्राहकों की प्रकृति, व्यवहार और विशेषताओं के कारण बाजार मंदी से उबर जाते हैं, लेकिन इसकी कीमत ग्राहकों को चुकानी पड़ती है, जो लगातार कर्ज के बोझ तले दबते जाते हैं। इसके विपरीत हमारे देश में ग्राहक, भारतीय ग्राहक आंदोलनों और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर अपनी आवश्यकताओं को सीमित करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। सरकार विभिन्न वित्तीय संस्थानों के माध्यमो द्वारा ग्राहकों को अपनी ज़रूरतें बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए आसान पूंजी और ऋण उपलब्ध कराने के बाद भी, स्थानीय ग्राहक अपनी ज़रूरतें बढ़ाने में बहुत कम रुचि दिखाते हैं, क्योंकि वे अपने कर्ज का बोझ नहीं बढ़ाना चाहते। भारतीय बाजार में ग्राहक मांग बढ़ाने के कृत्रिम तरीकों से दूर रहते हैं। हालांकि, यह स्पष्ट है कि बाजार की समृद्धि पूरी तरह से ग्राहक के व्यवहार और आवश्यकताओं पर निर्भर करती है।

इसके बावजूद वर्तमान में सरकार, उत्पादक और व्यापारी ग्राहक की अनदेखी कर रहे हैं। हालाँकि, ग्राहक आंदोलनों के प्रचार प्रसार और ग्राहक कार्यकर्ताओं की सतर्कता के कारण, ग्राहक सहायता के नाम पर कुछ कार्यक्रम शुरू किए गए हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश कार्यक्रम ग्राहक की समस्या को हल करने के बजाय उसे और जटिल बनाते नज़र आते हैं। वे ग्राहक की समस्याओं को सुनते नहीं हैं, बल्कि ग्राहक को अपनी समस्याओं को अपने तैयार किए गए ढाँचे में बाँधने के लिए मजबूर करते हैं, जिससे समस्या-समाधान की आड़ में उनका ध्यान भटक जाता है। इन कार्यक्रमों का मूल उद्देश्य उत्पादकों के हितों की सेवा करना है, जिसके कारण अपनी समस्याओं का समाधान चाहने वाले अधिकांश ग्राहक निराशा में सिर पकड़कर बैठ जाते हैं। उत्पादक वस्तुओं का निर्माण करते हैं और सेवा प्रदाता ग्राहक को सेवाएँ प्रदान करते हैं। ग्राहक को इन वस्तुओं और सेवाओं की आवश्यकता होती है। इसलिए दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। फिर इस प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव क्यों है? उत्पादकों/सेवा प्रदाताओं द्वारा लिए जाने वाले मुनाफे पर ग्राहकों को कोई आपत्ति नहीं है। हालाँकि, इन मुनाफों की सीमा निर्धारित होनी चाहिए। आजकल ग्राहकों का शोषण करने के लिए नई-नई मार्केटिंग तकनीकें अपनाई जा रही हैं। यह शोषण बंद होना चाहिए। ग्राहक आंदोलन वस्तुओं को सस्ता बनाने के बारे में नहीं है; यह “उचित मूल्य पर उचित वस्तु” की वकालत करता है। जब कोई ग्राहक किसी उत्पाद के लिए निर्माता द्वारा मांगी गई पूरी कीमत चुकाता है, तो उसे ऐसा उत्पाद मिलना चाहिए जो निर्माता द्वारा वादा किए गए गुणों को पूरा करता हो। वे उत्पाद की गुणवत्ता से समझौता क्यों करें? ग्राहक उत्पाद के लिए चुकाई गई कीमत का पूरा मूल्य चाहता है, थोड़ा भी कम नहीं। यही परिस्थितियाँ हैं जो बाजार में टकराव का माहौल बनाती हैं।

नीतिगत विषय तो यह है कि, “ग्राहक” आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु होने तथा आर्थिक ढांचे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण संप्रभुता होना चाहिए। ये गतिविधियां पर्दे के पीछे नहीं, बल्कि पारदर्शी तरीके से संचालित होनी चाहिए। इन आर्थिक गतिविधियों में ग्राहक को शामिल होना चाहिए। आर्थिक गतिविधियां त्रिकोणीय (सरकार, उत्पादक और व्यापारी) नहीं होनी चाहिए; वे चतुर्भुज (सरकार, उत्पादक, व्यापारी और ग्राहक) होनी चाहिए। अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से और स्थायी रूप से विकसित करने के लिए यह एक आवश्यक शर्त है। इसके अभाव में सरकार, उत्पादक और ग्राहक के बीच टकराव जारी रहेगा, जो देश और उसकी अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक नहीं है। यह अलग बात है कि आज ग्राहक आंदोलन इतना संगठित या मजबूत नहीं है कि वह सीधे आर्थिक गतिविधियों में हस्तक्षेप कर उन्हें पंगु बना सके। हालांकि, ग्राहकों को संगठित करने के लिए अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत के प्रयास सफल हो रहे हैं। वर्तमान समय की आवश्यकता है कि, ग्राहकों को आर्थिक व्यवस्थाओ के नीति निर्धारण में शामिल करना और उन्हें उनका उचित स्थान देना, प्राथमिकता होना चाहिए तथा आर्थिक ढांचे के सभी घटकों को साथ मिलकर अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए।

Topics: ग्राहक दिवसग्राहक की संप्रभुताCustomer DayNational Consumer Rights Day
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