विश्व प्रसिद्ध तबला वादक जाकिर हुसैन का 15 दिसंबर को सैन फ्रांसिस्को (अमेरिका) में निधन हो गया। वे 73 वर्ष के थे। शास्त्रीय संगीत की दुनिया में जाकिर हुसैन का भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में नाम था। उनकी साधना ने अनगिनत संगीतकारों पर एक अमिट छाप छोड़ी है। उन्होंने अगली पीढ़ी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। वे एक सांस्कृतिक राजदूत और महानतम संगीतकार थे।
अपूरणीय क्षति तब होती है, जब साधक कलावंत नवीन प्रातिभ तेज से भरकर कुछ नया रच सिरज रहा हो। जाकिर हुसैन अपना श्रेष्ठ कब का दे चुके थे। अब तो उनकी सधी हुई उंगलियां किसी कलात्मक अभ्यास में ढलकर कुछ शैथिल्य के साथ अपने पूर्व के टुकड़ों को संभाल भर रही थीं, किन्तु जाकिर हुसैन की उपस्थिति! उसका क्या होगा? वह तो चली गई। बुझ गई। तबले पर सैकड़ों ध्वनियों से खेलता वह कलावंत अब उस तरह से हंसता हुआ तो नहीं दिखेगा। मंच पर परदा गिर चुका है।
जाकिर हुसैन एक किंवदंती हैं। संभवत: अपनी तरह का अलभ्य अनूठा, अनदेखा साधक, जो अपने महाकाय पिता की छत्रछाया में बैठते हुए उनसे महत्तर होता चला गया। उन्होंने अपनी संपूर्ण उपस्थिति को उस वाद्ययंत्र में मिला दिया। जाकिर हुसैन जैसे सधे हुए हाथ और भी होंगे। लेकिन दूसरा जाकिर हुसैन नहीं होगा। तबले को वैसा बरतने वाला विज्ञ दूसरा नहीं हुआ।
एक ऐसा कलाकार, जो उस वाद्ययंत्र का पर्याय हो गया। जाकिर हुसैन अपने पिता के साथ मंचासीन हुए। धीरे-धीरे और एक तरह से कुछ चमत्कारिक प्रभा से वे महान अल्ला रक्खा से अलग पहचान बनाते चले गए। एक बरगद के नीचे दूसरा बरगद खड़ा हो गया! यह बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि जिन महान गायकों, वादकों की संगत के लिए अल्ला रक्खा को याद किया जाता रहा, देखते-ही-देखते उन सभी गायकों-वादकों के लिए जाकिर हुसैन अपने पिता के स्थानापन्न हो गए। यह ‘पुत्र मित्र वदाचरेत्’ का अनुपम उदाहरण है, जहां पुत्र मित्र होकर पिता के रूप में ढल गया। एक चमत्कृत करता हुआ कायान्तरण।
जाकिर हुसैन की महानता इस बात में भी है कि वे तबले को संगत वाद्य की भूमिका से उठाकर कई बार केंद्रीय भूमिका में ले आए। तबला इतना गरिमामय हो उठा, इतना ‘ग्लैमरस’ कि एक कल्ट चल पड़ा। दर्जनों वादक जाकिर हुसैन की तरह लंबे बाल रखने लगे और उनकी ही भंगिमाओं की नकल करने लगे, किन्तु जाकिर हुसैन तो एक ही थे। उनके लिए सम्मान इसलिए भी अधिक है कि उन्होंने संगीत को सदैव हिंदू संस्कृति से जोड़ कर देखा। उसे निर्मूल करने की कोई सेकुलर कुत्सा उनमें नहीं थी। वे भीतर से पक्के मुसलमान रहे हों तो भी प्रकट रूप में नाद को हमेशा शिव से जोड़ते रहे। सरस्वती की महिमा गाते रहे।
इस पीढ़ी में जाकिर हुसैन संभवत: अंतिम कलाकार हैं, जो अपनी प्रभा से हमें चकित करते हैं। उन्होंने कला की विरासत को जिस प्रभुत्व, गुरुता और चारुता से संभाला वह ग्रहणीय है। उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। जाकिर हुसैन को तबला बजाते हुए देखना और सुनना एक आनन्दानुभूति है। ऐसी अनुभूति, जिसमें वादक और श्रोता एक-दूजे में संतरित होते रहते हैं। इसलिए असाध्य वीणा की अंतिम पंक्तियां ध्यान में आती हैं-
श्रेय नहीं कुछ मेरा
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में—
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था—
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सब में गाता है।
भारतीय संस्कृति में अटूट श्रद्धा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा, ‘‘जाकिर हुसैन को भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया में क्रांति लाने के लिए याद किया जाता रहेगा।’’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने स्व. हुसैन को याद करते हुए एक्स पर लिखा, ‘‘भारत की सरगम, संगीत ऋषि पद्मविभूषण श्री जाकिर हुसैन जी के दुखद निधन से न केवल भारत के संगीत विश्व की क्षति हुई है, अपितु संपूर्ण विश्व ने आज एक महान संगीत विभूति को खोया है। मां सरस्वती के इस महान पुत्र की भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट श्रद्धा थी। उन्होंने तबले को विश्व में अनोखे एवं आकर्षक स्वरूप में स्थापित किया है। उनकी दिव्य आत्मा को सद्गति प्राप्त हो, यही ईश्वर के चरणों में प्रार्थना।’’
दुनिया में शायद ही कोई ऐसा बड़ा संगीतकार होगा जिसके साथ उस्ताद जाकिर हुसैन ने तबले पर संगत करके सुरों का जादू न बिखेरा हो। तबले पर थिरकती उनकी उंगलियां बिजली की रफ्तार से सुर छेड़ती थीं। कहरवा, एकताल, झपताल हो या तीनताल… उनके स्पर्श मात्र से तबला संगीत की अद्भुत सरिता बहाता था। उन्होंने शास्त्रीय पद्धति से तो तबला बजाया ही,उसके साथ अनेक प्रयोग भी किए। पश्चिम के स्वनामधन्य संगीतकारों में उस्ताद जाकिर के साथ मंच साझा करने की ललक रहती थी। नवोदित तबला वादकों के लिए वे चलता-फिरता संस्थान थे। उस्ताद जाकिर भले चले गए हों, लेकिन उनकी बजाई ताल आज भी आकाश को गुंजायमान किए हुए है।
जिससे मिले उसी के हो गए
जाकिर हुसैन की एक आदत थी। कई बार वे किसी से मिलते थे तो उसका एक नाम रख देते थे। अगली बार जब उससे मिलते थे तो उसी नाम से बुलाते थे। वे ऐसे व्यक्ति थे, जिनसे राह चलता कोई भी व्यक्ति बात कर सकता था। उन्होंने अजनबी को भी कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि उसे नहीं जानते।
1987 के आसपास दूरदर्शन पर हर रविवार दोपहर को सिद्धार्थ बासु का ‘क्विज टाइम’ नाम का कार्यक्रम आता था। एक बार वे उस कार्यक्रम में बतौर मेहमान आए थे। सिद्धार्थ बासु ने उनसे पूछा था, ‘‘आपने पूरी दुनिया की यात्रा की है। कृपया हमें बताएं कि भारतीय और पश्चिमी संस्कृति में आपको क्या अंतर दिखता है।’’ उन्होंने कहा था, ‘‘जब मैं पश्चिमी संगीतकारों से मिलता हूं, तो उनसे हाथ मिलाता हूं और कहता हूं-हैलो माइक, हैलो मार्क। लेकिन जब पं. रविशंकर जी, पं. शिवकुमार शर्मा जी, पं. हरि प्रसाद चौरसिया जी जैसे दिग्गजों से मिलता हूं, तो चरण स्पर्श कर उन्हें प्रणाम करता हूं। जब हमउम्र लोगों से मिलता हूं तो दोनों हाथ जोड़कर उन्हें अपने दिल के पास लाता हूं, सिर झुकाकर उनका स्वागत करता हूं। और जो छोटे होते हैं, उन्हें अपने दिल के करीब रखता हूं। बड़ों का आदर करना और छोटों को प्रेम करना, यही मेरी भारतीय संस्कृति है।’’
उस्ताद मूल्योें वाले व्यक्ति थे। तीन साल पहले उन्होंने अपने पिता की बरसी पर पद्म विभूषण बेगम परवीन सुल्ताना का कार्यक्रम आयोजित किया था। उस्ताद के बाद परवीन सुल्ताना की बारी आने वाली थी। वह ड्रेसिंग रूम में बैठी हुई थीं, जहां लोग जमा हो गए थे। वह सोफे पर बैठी हुई थीं और उनके बगल में अन्य वरिष्ठ संगीतज्ञ बैठे थे। प्रस्तुति देने के बाद जाकिर हुसैन जब आए तो परवीन सुल्ताना के पास जमीन पर बैठ गए। किसी ने आग्रह किया कि वह उनकी बगल वाली कुर्सी पर बैठ जाएं। इस पर उन्होंने धीरे से कहा, ‘‘परवीन जी सीनियर हैं। उनके बगल में बैठना उचित नहीं होगा।’’
उनका रहन-सहन भी बहुत साधारण था। पूरी दुनिया घूमने वाले उस्ताद जब भारत आते थे तो छोटी-छोटी दूरी लोकल ट्रेन में तय करते थे। अगर महाराष्ट्र के कल्याण, डोंबिवली में उनका कोई कार्यक्रम होता था तो वे ट्रेन से ही जाते थे। स्टेशन पर इतने महान कलाकार को देखकर लोगों का सहज विश्वास ही नहीं होता था। वे स्टेशन पर कुलियों, टिकट संग्राहकों और यात्रियों के साथ बड़ी सहजता से घुल-मिल जाते थे। हर कोई उनके साथ जितनी चाहे तस्वीरें ले सकता था। वे एक विशेष ब्रांड का पानी ही पीते थे। अगर वह उपलब्ध नहीं होता था, तो पानी ही नहीं पीते थे। उनकी एक और आदत थी। वे अपने कार्यक्रम स्थील पर हमेशा समय से कुछ घंटे पहले ही पहुंच जाया करते थे।
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