भारत की कला और संस्कृति का इतिहास अत्यंत समृद्ध और वैभवशाली रहा है। भारतीय संस्कृति में कला मनोरंजन का साधन तो थी मगर इसकी रचना मनुष्य के हित के लिए हुई। इसका उदाहरण प्राचीन ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ में मिलता है: ‘सतयुग के अंत में, जब त्रेता प्रारंभ हुआ, तब मानव समाज में नैतिकता का पतन होने लगा और लोग धर्म से विमुख होकर असत्य, हिंसा, और अधर्म के मार्ग पर चलने लगे।
देवताओं ने इस स्थिति से चिंतित होकर भगवान ब्रह्मा से आग्रह किया कि वे ऐसा कुछ सृजन करें, जिससे समाज में नैतिकता की पुनर्स्थापना हो सके और लोगों को धर्म और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले। तब ब्रह्माजी ने चारों वेदों से मूल्यों को निकालकर ‘भरतमुनि’ को ‘नाट्यशास्त्र’ रचने के लिए प्रेरित किया।’ नाट्यशास्त्र में नाटक, नृत्य और संगीत की संपूर्ण विधियों और नियमों का वर्णन है और इसे वर्तमान परिदृश्य में भी प्रामाणिक माना जाता है।
भरतमुनि ने पहला नाटक ‘समुद्रमंथन’ पर लिखा, जो देवताओं और असुरों के बीच अमृत की प्राप्ति के लिए किए गए संघर्ष पर आधारित था। अखंड ब्रह्मांड के नायक भगवान विष्णु का मोहिनी अवतार धारण करना भी इसी से जुड़ा है। शोधकर्ताओं के अनुसार, इसे विश्व का पहला ‘अभिनय’ और ‘प्ले’ माना गया, और यहीं से वैश्विक थिएटर का इतिहास प्रारंभ हुआ। इतिहास इस तथ्य की गवाही देता है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत और कला की समृद्ध परंपरा को नष्ट करने के लिए यहां के शोध संस्थानों, नाट्यगृहों और नालंदा विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों को आक्रमणकारियों द्वारा सुनियोजित तरीके से तबाह किया गया। वे जानते थे कि भारत की कला और संस्कृति उसकी असली शक्ति है और इसे नष्ट करके वे भारतीय सभ्यता को कमजोर कर सकते हैं।
हमारी संस्कृति के विरुद्ध चल रहे इस षड्यंत्र को ध्वस्त करने हेतु हमें सिनेमा को लेकर जागरूक व सावधान होने की जरूरत है। पिछले 60-70 साल से भारतीय सिनेमा के साथ ऐसा ही हो रहा है। इसके लिए हमें ‘प्रोपेगेंडा फिल्मों का इतिहास’ समझना होगा क्योंकि किसी भी रचनात्मक चीज की रचना के बाद उपद्रवियों द्वारा उससे छेड़छाड़ किया जाना स्वाभाविक है।
सिनेमा का प्रारंभ 1895 में हो गया था जब सिनेमैटोग्राफ नामक कैमरा-प्रोजेक्टर विकसित करने वाले फ्रांसीसी ल्यूमियर ब्रदर्स ने पेरिस में सैलून इंडियन के ग्रैंड कैफे के बेसमेंट में दुनिया की पहली व्यावसायिक फिल्म ‘वर्कर्स लीविंग द ल्यूमियर फैक्ट्री’ की स्क्रीनिंग की थी, सिनेमा अच्छा चल रहा था। वहीं 30 साल बाद वामपंथी उपद्रवियों द्वारा पारंपरिक सिनेमा से छेड़छाड़ करने के प्रयास शुरू कर दिए गए। इसके बाद ‘प्रोपेगेंडा फिल्मों का युग’ भी सिनेमाई इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय बना, जिसमें सिनेमा को केवल मनोरंजन या कला के माध्यम के रूप में नहीं, बल्कि एक सशक्त उपकरण के रूप में देखा गया, जिसका उपयोग राजनीतिक, सामाजिक, वामपंथी और साम्यवादी विचारधाराओं को प्रसारित करने के लिए किया गया।
वैश्विक स्तर पर प्रोपेगेंडा फिल्मों का प्रारंभ 20वीं सदी आरंभ में हुआ, जब फिल्मों को विचारधारा के प्रचार का माध्यम बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। उल्लेखनीय है कि सबसे पहले सोवियत संघ में फिल्म निर्माता सर्गेई आइजेंस्टीन ने ‘बैटलशिप पोटेमकिन’ (1925) जैसी फिल्में बनाईं। फिल्म के रिलीज होने के बाद समाज में विद्रोह और असंतोष बढ़ गया, इसे विभिन्न देशों जैसे, अमेरिका में प्रतिबंधित कर दिया गया। इसके बाद अनेक देशों में साम्यवादी विचारों के प्रसार के लिए प्रोपेगेंडा फिल्में बनने लगीं।
वहीं भारतीय सिनेमा के इतिहास में, प्रारंभिक दौर की फिल्मों का मुख्य उद्देश्य समाज और भारतीय संस्कृति के आदर्शों को दर्शाना था। राजा हरिश्चंद्र (1913) जैसी फिल्म, जो भारत की पहली मूक फिल्म थी या मोहिनी भस्मासुर और कृष्ण जन्म जैसी फिल्मों में धार्मिक और नैतिक मूल्यों का प्रचार किया गया था।
समय के साथ, भारतीय सिनेमा में ऐसा भयानक बदलाव आया जहां हिंदू धर्म, भारतीय परंपराओं और संस्कृति को नकारात्मक रूप में दिखाने का प्रयास किया गया। आज भी यह ‘एंटी भारत नेरेटिव’ जारी है। यह बदलाव विशेष रूप से 1970 के बाद से देखा गया जब सिनेमा में हिंदू प्रतीकों और धार्मिक आ स्थाओं को या तो विकृत करके या फिर उनका मजाक उड़ाकर पेशकिया गया।
ज्यादातर वामपंथी प्रायोजित फिल्म महोत्सव में ही दिखाई देते हैं। उन में चयनित फिल्मों का उद्देश्य केवल सिनेमा की कला का सम्मान करना नहीं होता, बल्कि वामपंथी विचारधारा को समर्थन देने वाले कथानकों को बढ़ावा देना होता है। ऐसे फिल्म महोत्सव में अक्सर वही फिल्में पुरस्कार प्राप्त करती हैं जो उनके विचारों को आगे बढ़ाती हैं। जो फिल्में भारत को नकारात्मक ढंग से दर्शाती या समाज में स्थापित ढांचे को चुनौती देने से लेकर परिवारों के टूटने जैसे मुद्दों पर केंद्रित होती हैं, उन्हें प्रमुखता दी जाती है।
एक तरफ तो यथार्थवादी सिनेमा के नाम पर फूहड़ता का प्रचार किया जाता है, वहीं दूसरी ओर समय-समय पर वामपंथी लेखक राष्ट्रवादी फिल्मों के प्रति जहर उगलते हैं और अपने विचार की फिल्मों का महिमामंडन करते लेख लिखते हैं।
भारत के कुछ नामी फिल्मकारों ने विश्व को ‘समानांतर सिनेमा’ दिया। एक पूरा ‘इकोसिस्टम’ समानांतर फिल्मों की परिभाषा बदलने के लिए काम करता है। यदि फिल्म निर्माण के तौर पर देखा जाए तो इस वर्ष राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फिल्में आट्टम, कांतारा, गुलमोहर, कधीकन भी समानांतर फिल्में ही हैं। मगर वामपंथी इनकी बात नहीं करेंगे। वे कश्मीर फाइल्स, अजमेर 1992 और द साबरमती रिपोर्ट जैसी सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्मों को प्रोपेगेंडा बताते हैं। आज आवश्यकता है कि हम भारत विरोधी वामपंथियों की प्रोपेगेंडा फिल्मों के षड्यंत्र को समझें और भारतीय विचार की फिल्मों को ही देखें। (लेखिका फिल्म निर्माता व निर्देशक हैं )
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