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पूर्व राजदूत
नौ दिसम्बर को दमिश्क में असद सत्ता को ढहा दिया गया। गत 13 वर्ष से गृहयुद्ध की त्रासदी झेल रहे सीरिया से आई तस्वीरों में वहां की जनता अस्थायी रूप से राहत की सांस लेती दिखाई दी। राष्ट्रपति बशर अल असद को अंतत: देश छोड़ कर भागना पड़ा और इन पंक्तियों के लिखे जाने के वक्त वे रूस में सपरिवार राजनीतिक शरण ले चुके थे। माना जाता है कि विद्रोही गुट द्वारा कुर्सी से हटाए जाने से पहले असद ने विद्रोही नेता के समक्ष सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण का प्रस्ताव रखा था, किन्तु उसमें असफल रहने पर उन्हें राजधानी दमिश्क में प्रमुख विद्रोही गुट हयात-तहरीर-अल-शाम (एचटीएस) के दाखिल होने से पहले ही भागना पड़ा।
हमें इस असंतोष और विद्रोह का कारण जानने के लिए सीरिया के विगत पचास वर्ष के इतिहास को खंगालना होगा। 1971 से 2000 तक असद के पिता हाफिज अल बशर ने सीरिया में निरंकुश राज किया। उनकी मृत्यु के बाद साल 2000 में सत्तारूढ़ हुए असद शुरू में तो एक उदारवादी नेता लगे, किन्तु 2011 आते-आते उनका निरंकुश चेहरा सामने आ गया। उस वर्ष अरब क्षेत्र में हुई ‘अरब क्रांति’ में क्षेत्र के कई देशों में तानाशाही को उखाड़ फेंका गया था। असद ने उससे बचने के लिए सीरिया में बड़े पैमाने पर दमनचक्र चलाया और उसमें जनता का भयंकर दमन हुआ।
लगभग 2,36,00,000 की जनसंख्या वाले इस देश में असद के पिछले 13 वर्ष के शासनकाल में लगभग छह लाख लोग मारे गए और एक करोड़ से अधिक विस्थापित हुए। देश का कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 68 अरब डॉलर से घटकर 8 अरब डॉलर से भी कम रह गया। इस दौरान प्रति व्यक्ति आय 2,200 डॉलर से घट कर 500 डॉलर से भी नीचे आ गई और देश की 90 प्रतिशत जनता गरीबी रेखा से नीचे जा पहुंची। अमेरिका, रूस, इस्राएल और तुर्की के लिए भूराजनीतिक अखाड़ा बने इस देश में सरकार ने 2021 तक विद्रोह को कुछ हद तक काबू में रखा था और यह माना जा रहा था कि कुछ छिटपुट घटनाओं और स्थानों को छोड़कर विद्रोह को लगभग दबा दिया गया है।
लेकिन 2024 के उत्तरार्ध में रूस को यूक्रेन में व्यस्त पाकर तुर्किए ने अपनी वृहत योजना के तहत सीरिया में विद्रोहियों को मदद बढ़ा दी। शिया ईरान इस्राएल-हिज्बुल्लाह संघर्ष में सीरिया के रास्ते हिज्बुल्लाह को हथियारों की आपूर्ति कर रहा था, जिसे बंद करना इस्राएल और अमेरिका, दोनों के लिए अपरिहार्य हो गया था। उनकी योजना है कि हिज्बुल्लाह को समाप्त करने के बाद ईरान को पंगु किया जाए। 74 प्रतिशत सुन्नी मुस्लिम आबादी वाले सीरिया में 53 साल से शिया राष्ट्रपति का शासन रहना एक मुस्लिम देश के लिए विरोधाभास ही था, तिस पर जनता की बदहाली ने आग में घी का काम किया।
विद्रोह को जनसमर्थन!
गरीबी और अत्याचार से त्रस्त सीरियाई जनता ने सरकार के विरोध में उठे विद्रोही/छापामार संगठनों को समर्थन देना शुरू किया। लोगों ने ऐसा यह समझे बिना किया कि अंतिम लक्ष्य क्या है।
परिणामत: सरकार के विरोध में कई सशस्त्र बल खड़े हो गए थे जिनमें से किसी का उद्देश्य स्वतंत्र कुर्दिस्तान था, तो किसी का कट्टर इस्लामी राज स्थापित बनाना था और किसी का तुर्किए का समर्थन प्राप्त कर उसमें विलय करने का। इन्हीं में से एक—एच.टी.एस., जो अल कायदा से अलग हुआ था-अप्रत्याशित तेज़ी से एक के बाद एक सीरियाई शहर पर कब्ज़ा करते हुए मात्र कुछ दिनों में ही दमिश्क तक पहुंच गया और सीरिया के एक लाख सैनिकों ने 20,000 लड़ाकों वाले एचटीएस के आगे हथियार डाल दिए। यह भी कहा जा रहा है कि संभवत: ऐसा अमेरिका द्वारा सीरियाई सेना के कुछ वरिष्ठ आधिकारियों को अपनी ओर मिला लेने से हुआ।
कारण जो भी रहा हो, विद्रोही अब देश के अधिकांश भाग पर काबिज हैं और प्रधानमंत्री मोहम्मद गाजी जलाली ने लोगों से अपील की है कि वे नए शासन के साथ सहयोग करें। अपुष्ट समाचार यह भी है कि अभी भी देश के कुछ इलाकों में असद समर्थकों और विद्रोहियों के बीच छिटपुट संघर्ष जारी है। सीरियाई प्रधानमंत्री ने 9 दिसंबर को सामान्य स्थिति का आभास देने का प्रयास किया और दावा किया कि पूर्व राष्टÑपति बशर अल असद के देश छोड़कर रूस में शरण ले लेने के बावजूद, अधिकांश कैबिनेट मंत्री राजधानी दमिश्क स्थित अपने कार्यालयों से काम कर रहे हैं।
तात्कालिक परिणाम
बशर अल असद के सत्ताच्युत होने और विभिन्न विद्रोही गुटों का देश के अलग-अलग क्षेत्रों पर अधिकार होने के क्या परिणाम होंगे? इस सवाल को खंगालें तो तात्कालिक परिणाम तो यही दिखता है कि इस्राएल ने फुर्ती दिखाते हुए सीरिया की गोलन पहाड़ियों के बफर जोन (मध्यवर्ती क्षेत्र) पर यह कहकर कब्ज़ा कर लिया है कि स्थिति में बदलाव के कारण अब इस्राएल और सीरिया के बीच 1974 में गोलन पहाड़ियों के विषय में हुआ समझौता अमान्य हो गया है और इस्राएल के लिए यह अपरिहार्य है कि वह अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए बफर ज़ोन पर कब्जा रखे।
इस्राएल ने संभवत: दमिश्क पर भी बम बरसाए हैं। अमेरिका ने इसी अवसर का फायदा उठाते हुए सीरिया में इस्लामी जिहादी संगठन आईएसआईएस के अड्डों पर बमबारी की है। रूस ने चेतावनी दी है कि यदि सीरिया में मौजूद रूस के सैन्य प्रतिष्ठानों पर हमला हुआ तो वह चुप नहीं बैठेगा। अभी तक तो रूसी सैन्य ठिकाने बचे हुए हैं। तुर्किए समर्थित एचटीएस इन पर हमला करेगा भी नहीं, क्योंकि तुर्किए अभी रूस से दूसरा एस-400 एंटी मिसाइल सिस्टम लेने के प्रयास में है, भले ही कुछ साल पहले पहला सिस्टम लेने पर उसे ‘नाटो’ की सदस्यता के बावजूद अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा था।
प्राप्त समाचारों के अनुसार, सीरिया में अभी अस्थायी शांति है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि यह स्थिति कब तक बनी रहेगी। बशर अल असद की सरकार के समर्थन में जहां रूस और ईरान के अलावा चार और स्थानीय गुरिल्ला समूह शबीहा (अलावती), फतिमियन ब्रिगेड (अफगानिस्तान से), जनाबियन ब्रिगेड (पाकिस्तान से) और लेबनान के हिज्बुल्लाह लड़ रहे हैं, वहीं सरकार के विरोध में अमेरिका और इस्राएल के अतिरिक्त 11 गुरिल्ला संगठन मैदान में हैं। ये हैं— आईएसआईएस, अल-कायदा, एचटीएस, मुस्लिम ब्रदरहुड, कुर्दिश मुक्ति सेना, फ्री सीरियन आर्मी, अस्सीरियन आर्मी, हुर्रास अल दीन, एएएनईएस (उत्तर पूर्व सीरिया का स्वायत्त प्रशासन), कुर्दिश नेशनल अलायंस, सीरियन डेमोक्रेटिक फोर्सेज और सीरियन नेशनल आर्मी। समस्या यह है कि इन विरोधी गुटों की निष्ठा और उद्देश्य अलग-अलग हैं। अमेरिका समर्थित सीरियन डेमोक्रेटिक फोर्सेज कुर्दों के वर्चस्व वाला समूह है जिसका पूर्वी सीरिया के एक बड़े भूभाग पर कब्ज़ा है। लेकिन यह तुर्किए का विरोधी है, क्योंकि इसके सम्बन्ध पीकेके (कुर्दिश कामगार पार्टी) से हैं जिसे तुर्किए अपने खिलाफ एक आतंकवादी संगठन मानता है।
मध्य सीरिया के एक बड़े क्षेत्र में प्रभावशाली गुट एचटीएस जो अभी सबसे बड़ा गुट बन कर उभरा है और इसी ने दमिश्क पर अधिकार किया है। यह तुर्किए द्वारा समर्थित है किन्तु इसके नेता अबू मुहम्मद अल गोलानी पर अमेरिकी सरकार ने एक करोड़ डॉलर का पुरस्कार रखा था। इसी ने ऐलान किया है कि इदलिब में ‘साल्वेशन’ सरकार चलाने का अनुभव रखने वाले मुहम्मद अल बशीर को सीरिया का प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है। उधर सीरिया में तुर्किए समर्थित सीरियन नेशनल आर्मी का दबदबा है। इसके अलावा कई छोटे कुर्दिश गुट हैं जो स्वतंत्र कुर्दिस्तान बनाने का लक्ष्य रखते हैं और इसलिए तुर्किए के विरुद्ध हैं।
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आईएसआईएस और अल कायदा का उद्देश्य एक कट्टर सुन्नी इस्लामी राज स्थापित करना है। अब देखना यह है कि इन परस्पर विरोधी गुटों में स्थायी शांति स्थापना के लिए मतैक्य और सामंजस्य कब, किसके द्वारा और किन शर्तों पर होता है। यह भी संभव है कि सीरिया में इन गुटों में लंबे समय तक छिटपुट संघर्ष चलता रहे, जिसका अंत सीरिया के बाल्कनीकरण से हो।
ईरान है परेशान
बदली परिस्थितियों में, बशर के पलायन से मध्य-पूर्व में सत्ता संतुलन कैसा रहेगा? तुर्किए इस घटनाक्रम में विजेता और पहले से अधिक शक्तिशाली बन कर उभरा है। वहीं इस्राएल को यह लाभ हुआ है कि उसने गोलन पहाड़ियों पर फिर अधिकार कर लिया है और ईरान से सीरिया के रास्ते हिज्बुल्लाह को होने वाली सैन्य सामग्री की आपूर्ति बंद कर दी है जिससे हिज्बुल्लाह को नष्ट करने में आसानी होगी। अमेरिका को भी इसी बहाने सीरिया स्थित आतंकी सगठनों पर प्रहार करने और अपने समर्थन वाली सरकार बनाने का मौका मिल गया है।
अगर नुकसान की बात करें तो वह ईरान को सबसे ज्यादा हुआ है, क्योंकि एक तो उसका हिज्बुल्लाह को सहायता देने का रास्ता बंद हो गया है और दूसरे, सीरिया के रूप में ईरान ने एक दोस्त खो दिया है। अब अमेरिका के लिए अपने शत्रु ईरान पर कार्रवाई करना अधिक आसान हो जाएगा। ईरान के कमज़ोर होने से रूस भी कमज़ोर हो सकता है और डोनाल्ड ट्रम्प के नए शासनकाल में यूक्रेन से युद्ध रोकने की अपनी शर्तों में कुछ ढील दे सकता है।
वैसे मध्य-पूर्व के अन्य देशों पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि अरब स्प्रिंग के बाद क्षेत्र के ज्यादातर देशों ने उदारवादी सुधार करने शुरू कर दिए थे। हां, यदि सीरिया में शांति नहीं स्थापित हुई तो तेल और गैस के निर्यात में कमी आने से इन देशों की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।
यदि इस घटना के भारत पर प्रभावों के विषय में विचार करें तो निकट भविष्य में हमारे ऊपर तो कोई असर नहीं होगा। लेकिन यदि सीरिया में शांति स्थापित नहीं होती और संघर्ष का दायरा बढ़ता है तो तल और गैस के दामों में बढ़ोतरी हो सकती है तथा खाड़ी के देशों में कार्यरत भारतीयों की सुरक्षा और जीविका खतरे में पड़ सकती है। आज की स्थिति में यही आशा की जा सकती है कि सीरिया में शांति और सुरक्षा शीघ्र स्थापित हो। लेकिन अरबी ऊंट किस करवट बैठेगा, यह कुछ समय बाद ही स्पष्ट हो सकेगा।
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