इस निराभासित मृत्यु पर मैं हतप्रभ हूं। असत्य होगा यह कहना कि दारुण दुख में डूबा हूं। किन्तु दुख तो है मुझे! एक कचोटते हुए विस्मय ने मुझे घेरा है। यह कहना व्यर्थ होगा कि उनके जाने से कला जगत को अपूरणीय क्षति हुई है। पहले भी एक वयोवृद्ध कलावंत की मृत्यु पर लिखा था कि अपूरणीय क्षति तब होती है जब साधक, कलावंत नवीन प्रातिभ तेज से भरकर कुछ नया रच सिरज रहा हो। जाकिर हुसैन अपना श्रेष्ठ कब का दे चुके थे। अब तो उनकी सधी हुई उंगलियां किसी कलात्मक अभ्यास में ढलकर कुछ शैथिल्य के साथ अपने पूर्व के टुकड़ों को संभाल भर रही थीं किन्तु जाकिर हुसैन की उपस्थिति! उसका क्या होगा? वह तो चली गई। बुझ गई। तबले पर सैकड़ों ध्वनियों से खेलता वह कलावंत अब उस तरह से हंसता हुआ तो नहीं दीख पड़ेगा। मंच पर परदा गिर चुका है।
जाकिर हुसैन एक किवदंती हैं। संभवतः अपनी तरह का अलभ्य अनूठा, अनदेखा साधक जो अपने महाकाय पिता की छत्रछाया में बैठते हुए उनसे महत्तर होता चला गया। उसने अपनी संपूर्ण उपस्थिति को उस वाद्ययंत्र में मिला दिया इसलिए मुझे यह लिखते हुए असाध्य वीणा कविता याद आती रही। मैं कोई दावा नहीं करता। जाकिर हुसैन जैसे सधे हुए हाथ और भी होंगे। लेकिन दूसरा जाकिर हुसैन नहीं होगा। तबले को वैसा बरतने वाला विज्ञ दूसरा नहीं हुआ। एक ऐसा कलाकार जो उस वाद्ययंत्र का पर्याय हो गया। जाकिर हुसैन अपने पिता के साथ मंचासीन हुए। धीरे-धीरे और एक तरह से कुछ चमत्कारिक प्रभा से वे महान अल्ला रक्खा से अलग पहचान बनाते चले गए। एक बरगद के नीचे दूसरा बरगद खड़ा हो गया! यह बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि जिन महान गायकों वादकों की संगत के लिए अल्ला रक्खा को याद किया जाता रहा, देखते-ही-देखते उन सभी गायकों वादकों के लिए जाकिर हुसैन पिता के स्थानापन्न हो गए। यह पुत्रं मित्र वदाचरेत् का अनुपम उदाहरण है। जहां पुत्र मित्र होकर पिता के रूप में ढल गया। एक चमत्कृत करता हुआ कायान्तरण।
जाकिर हुसैन की महानता इस बात में भी है कि वे तबले को संगत वाद्य की भूमिका से उठाकर कई बार केन्द्रीय भूमिका में ले आए। तबला इतना गरिमामय हो उठा, इतना ग्लैमरस कि एक कल्ट चल पड़ा। दर्जनों वादक जाकिर हुसैन की तरह लंबे बाल रखने लगे और उनकी ही भंगिमाओं की नकल करने लगे किन्तु जाकिर हुसैन तो एक ही थे। आरिजिनल थे। उनके लिए सम्मान इसलिए भी अधिक है कि उन्होंने संगीत को सदैव हिन्दू संस्कृति से जोड़ कर देखा। उसे निर्मूल करने की कोई सेक्युलरी कुत्सा उनमें नहीं थी। वे भीतर से पक्के मुसलमान रहे हों तो भी प्रकट रूप में नाद को हमेशा शिव से जोड़ते रहे। सरस्वती की महिमा गाते रहे।
इस पीढ़ी में जाकिर हुसैन संभवतः अंतिम कलाकार हैं, जो अपनी प्रभा से हमें चकित करते हैं। उन्होंने कला की विरासत को जिस प्रभुत्व, गुरुता और चारुता से संभाला वह ग्रहणीय है। उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। मैं मानता हूॅं कि वह अदृष्टपूर्व है। जाकिर हुसैन को तबला बजाते हुए देखना और सुनना एक आनन्दानुभूति है। ऐसी अनुभूति जिसमें वादक और श्रोता एक-दूजे में संतरित होते रहते हैं। इसलिए असाध्य वीणा की अंतिम पंक्तियां मेरे ध्यान में आती हैं।
श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में—
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था—
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सब में गाता है।
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