मस्जिदों का इतिहास बताने में समस्या क्या है? : आखिर मंदिरों का इतिहास ध्वस्त तो हुआ ही है!
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मस्जिदों का इतिहास बताने में समस्या क्या है? : आखिर मंदिरों का इतिहास ध्वस्त तो हुआ ही है!

क्या यह देश के हिंदुओं का अधिकार नहीं है कि वे यह कम से कम जानें तो कि उनके मंदिरों के साथ हुआ क्या था.? आखिर भारत भूमि पर इतनी मस्जिदें कहाँ से बन गई.?

by सोनाली मिश्रा
Dec 5, 2024, 10:00 pm IST
in भारत, विश्लेषण
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उत्तर प्रदेश के संभल जिले से लेकर राजस्थान के अजमेर की अढ़ाई दिन की मस्जिद के ऐतिहासिक तथ्यों पर इन दिनों बहस हो रही है। भारत में असंख्य मस्जिदें ऐसी हैं, जिनका स्थापत्य और इतिहास यह बताता है कि इन मस्जिदों का इतिहास कुछ और रहा है। जिन मस्जिदों का स्थापत्य खुद ही यह कह रहा हो कि यह पूर्व में मंदिर रहा है या फिर इनके बनाने में उन मंदिरों की सामग्री का प्रयोग हुआ है, जिन्हें आक्रमणकारियों ने तोड़ा, तो यह स्वीकारने में क्या आपत्ति है।

क्या यह देश के हिंदुओं का अधिकार नहीं है कि वे यह कम से कम जानें तो कि उनके मंदिरों के साथ हुआ क्या था? आखिर भारत भूमि पर इतनी मस्जिदें कहाँ से बन गईं? और यदि ये मस्जिदें मंदिर तोड़कर बनी हैं, तो कम से कम यह स्वीकारा तो जाए! यह तो बताया न जाए कि ये मस्जिदें बेजोड़ स्थापत्य का नमूना है। यह हिंदुओं के साथ दोहरा अन्याय है।

एक तो उनके उपासना स्थलों को तोड़ा गया और दूसरी ओर उनके इतिहास को भी दबा दिया गया। हिंदुओं के हजारों मंदिरों को तोड़ा गया और उनपर मस्जिदें बनाई गईं। क्या कभी हिंदुओं की उस पीड़ा का अनुमान भी लगाया गया है जो उन्हें उन मस्जिदों को देखकर होती है, जिनमें उनके मंदिरों के खंभों आदि को प्रयोग किया गया है। संभल की मस्जिद में तो वर्ष 2012 तक पूजा होती रही थी।

एकदम से उनकी पूजा के अधिकार छीन लिए जाएं तो कैसा लगेगा? यदि यह मांग की जा रही है कि सर्वे हो कि वहाँ क्या था, तो समस्या किसे और क्यों है? इसी प्रकार अजमेर की अढ़ाई दिन का झोपड़ा मस्जिद है। लगभग हर पाठ्यपुस्तक में यह पढ़ाया जाता है कि कुतुबउद्दीन एबक ने अजमेर विजय के दौरान यह मस्जिद बनवाई और यह ढाई दिन में बनकर तैयार हुई थी, इसलिए इसका नाम अढ़ाई दिन का झोपड़ा पड़ा।

अजमेर में अढाई दिन का झोपड़ा मस्जिद, दरअसल मस्जिद नहीं है। यह मस्जिद मंदिर को तोड़कर उसके अवशेषों से बनाई गई है। अढ़ाई दिन का झोपड़ा पर सियासत गरमा रही है। अजमेर के डिप्टी मेयर नीरज जैन ने यह दावा किया कि यहाँ पर पहले मंदिर और संस्कृत पाठशाला हुआ करती थी।

उन्होंने सरकार से मांग की कि वहाँ पर नमाज पर रोक लगाई जाए और एएसआई से जांच कराई जाए। उन्होंने वर्ष 1911 में प्रकाशित हर बिलास सारदा की पुस्तक अजमेर : हिस्टोरिकल एंड डिस्कि्रप्टिव का हवाला दिया है। मगर यह बताने के लिए कि यह मस्जिद मंदिरों के अवशेषों से बनी है, केवल एक ही पुस्तक प्रमाण नहीं है। बल्कि इसके प्रमाण कई पुस्तकों में प्राप्त होते हैं।

लेखक डॉ आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव की दिल्ली सल्तनत नामक पुस्तक में भी यह लिखा है कि गोरी के गुलाम कुतुबउद्दीन ऐबक ने दो मस्जिदें बनवाई थीं। उसने हिन्दू मंदिरों को तोड़कर उनकी सामग्री से दो मस्जिदें बनवाई थीं। एक दिल्ली में कुवत-उल-इस्लाम के नाम से प्रसिद्ध है और दूसरी अजमेर में, जिसे “ढाई दिन का झोपड़ा” कहते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि इसे ढाई दिनों में बनाया गया था। ढाई दिनों में इतनी विशाल इमारत को बनाना असंभव है। ढाई दिनों में केवल तभी बनाया जा सकता है, जब सब कुछ सामग्री तैयार हो। The Rough Guide to India By David Abram, Rough Guides (Firm) नामक पुस्तक में यह स्पष्ट लिखा है कि यह एक संस्कृत विद्यालय था। इसमें लिखा है कि मूल रूप से वर्ष 1153 में यह एक हिंदू विद्यालय थी। जिसे 40 वर्षों के बाद अफगानी गोर द्वारा तोड़ दिया गया यथा और बाद में इसके अवशेषों से दोबारा से मस्जिद बना दिया गया।

ऐसा झूठ कहा जाता है कि इसे बनाने में केवल ढाई दिन लगे। इसे दोबारा बनाने में पूरे पंद्रह वर्ष लगे और इसे उन ईंटों और मेहराबों आदि से बनाया गया, जिन्हें हिंदू और जैन मंदिरों से लूटा गया गया।

जे एल मेहता की पुस्तक Vol. III Medieval Indian Society And Culture में भी यह लिखा है कि कुतुबउद्दीन ऐबक ने अजमेर में मंदिरों को तोड़ा था और उनके अवशेषों से मस्जिद का निर्माण किया था।

ये तमाम ऐतिहासिक तथ्य हैं। पुस्तकों में दर्ज तथ्य हैं। फिर यह प्रश्न उठता है कि आखिर जो तथ्य पुस्तकों में हैं, उनका एक बार फिर जनता में कानूनी रूप से सामने आना क्यों आवश्यक नहीं है? मंदिर टूटने की पीड़ा और उस पर एक दूसरी मजहबी पहचान की पीड़ा वह पीड़ा होती है, जो दिखती नहीं है, मगर वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रही है।

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