हमारा प्यारा भारतवर्ष सम्पूर्ण विश्व में अपनी विविधता के लिए विख्यात है। प्रांत, जाति, भाषा, रीति-रिवाजों न जाने कितने आधारों पर इसे विभाजित किया जा सकता है, फिर भी हम देखते हैं कि इसकी अखंडता को कोई चुनौती नहीं दे पाया है। इन सारी अनेकता के बीच हमें एकता के सूत्र में बाँधा है हमारे बलिदानियों के रक्त ने। जो हमें याद दिलाता है कि हम सबकी मां भारत माता हैं और इनकी रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने बलिदान दिया है तथा जब भी देश पर संकट आएगा हम इनकी रक्षा में तत्पर रहेंगे।
भारत के विभिन्न प्रांतों में बसी लगभग 750 जनजातियां जब अपने सपूतों की गौरव गाथा को याद करती हैं, तो एक स्वर्णिम नाम उभरता है “बिरसा मुंडा” का। जिन्हें वनवासी बंधु प्यार से और श्रद्धा के साथ “धरती आबा – भगवान बिरसा मुंडा” के रूप में नमन करते हैं। संसद भवन में लगा बिरसा मुंडा का तैल चित्र और संसद परिसर में लगी उनकी मूर्ति जन-जन को याद दिलाती है कि अल्प शिक्षा, सीमित साधन और आधुनिक सुविधाओं के अभाव के बावजूद वनवासी समाज ने देश को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए कम योगदान नहीं दिया है। जब तिलक का “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” का मंत्र देश में गूंजा भी नहीं था उस वक्त गांधी और सुभाष का नाम भी राजनीतिक पटल पर नहीं आया था, तब झारखंड के छोटानागपुर के पिछड़े वनवासी इलाके में आजादी का शंखनाद और ब्रिटिश सत्ता को बिरसा मुंडा ने चुनौती देकर आश्चर्य में डाल दिया था।
छोटानागपुर की धरती ने 15 नवंबर 1875 के दिन इस लाल को जन्म दिया। खूंटी थाना के उलिहातु गाँव में बृहस्पतिवार के दिन जन्म लेने के कारण इनका नाम बिरसा पड़ा। पिता सुगना मुण्डा और माता करमी हातु अत्यंत निर्धन परंतु परिश्रमी थे। माता ने खेत में काम करते हुए ही पुत्र को जन्म दिया था और कपड़े के अभाव में पलाटी पत्ते में लपेट कर घर ले आई थी। इनके दो भाई और दो बहने थीं। बिरसा के पिता उनको पढ़ा-लिखा कर ‘बड़ा साहब’ बनाना चाहते थे।
बिरसा के पिता ने उन्हें मामा के घर भेज दिया जहाँ बिरसा ने भेड़-बकरियाँ चराते हुए शिक्षक जयपाल नाग से अक्षर ज्ञान और गणित की प्रारंभिक शिक्षा पाई। यहीं पर वे ईसाई धर्म प्रचारक के संपर्क में आए और निर्धनता एवं शिक्षा प्राप्त करने की चाह में उनके परिवार ने ईसाईयत को अपनाया। बिरसा ने ग्यारह वर्ष की आयु में बपतिस्मा लिया और उनका नाम दाऊद पूर्ति, इसी प्रकार पिताजी का नाम मसीह दास रखा गया। उन्होंने बुर्जू के स्कूल में प्राथमिक शिक्षा पाई और आगे की पढ़ाई के लिए चाईबासा के लुथरन मिशन स्कूल में दाखिल हुए। चाईबासा स्कूल मिशनरियों का होने के कारण वहाँ बाइबल शिक्षा पर जोर दिया जाता था। छात्रावास में गोमांस दिया जाता था, मुण्डा परिवार जहाँ बिरसा का बचपन बीता, वहाँ गौ पूजन का विधान था और गोमांस खाना उनकी कल्पना से भी परे थी। बिरसा ने गोमांस खाने से इंकार कर दिया और अपने सहपाठियों को भी इससे परहेज करने के लिए कहा। यह बात जब स्कूल प्रबंधकों तक पहुँची तो बिरसा को फटकार मिली और स्कूल से निकाले जाने की धमकी भी दी गई। मुण्डा जनजाति में शिखा (चोटी) रखने की परंपरा है जब एक दिन एक सहपाठी ने पीछे से उनकी शिखा कतर डाली तो उनका हृदय हाहाकार कर उठा, आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। स्कूल में मुण्डा लोगों को राक्षासी स्वभाव का बताना तथा उनके सनातन परंपराओं का उपहास उड़ाना उनको सहन नहीं हुआ। बिरसा ने पादरी नट्राटे से कहा, “साहब – साहब एक टोपी हैं” यानि अंग्रेज पादरी और अंग्रेजी शासक एक ही हैं। बिरसा ने यह संकल्प लिया कि वह एक भी क्षण चाईबासा में नहीं रुकेगा। बाद में वे बंदगाँव आए तथा वहाँ उनकी भेंट वैष्णव धर्मावलंबी आनंद पाण्डे से हुई। जिनसे उन्होंने रामायण, महाभारत, हितोपदेश आदि के बारे में जाना और आगे चलकर उन्होंने मांस खाना छोड़ दिया, वे जनेऊ पहनने लगे, सर पर पीली पगड़ी बाँधने लगे और तुलसी की पूजा करने लगे। अपने समाज के पिछड़ेपन और अज्ञानता को खत्म करने के लिए उन्होंने दृढ़ संकल्प लिया। वनवासी समाज को विदेशी मिशनरियों, जमीनदारों, अंग्रेज शासकों तथा शोषणकर्ताओं से आज़ाद करने के लिए संगठित मुक्ति संघर्ष किया। उन्होंने वनवासी-वनवासी समाज को संगठन के सूत्र में बाँधने के लिए कई सभायें की और उलगुलान क्रांति का शंखनाद किया।
बिरसा के इस शंखनाद से वनवासी युवक जाग उठे। चलकद क्रांतिकारी आंदोलन का केन्द्र बना। विरोध के प्रथम चरण के रूप में एक असहयोग आंदोलन शुरू किया गया, बिरसा धरती आबा के रूप में जाने जाने लगे। बिरसा के आंदोलन से ब्रिटिश सरकार भौचक्की रह गई। ब्रिटिश सरकार ने तुरंत बिरसा को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। पुलिस ने गिरफ्तारी के लिए एक टुकड़ी को चलकद रवाना किया लेकिन गाँववालों के सशक्त विरोध ने बंदूकों से लैस पुलिस को भी थर्रा दिया परंतु उन्हें छल प्रपंच से गिरफ्तार कर 25 अगस्त 1895 को हज़ारीबाग जेल लाया गया। बिरसा की गिरफ्तारी से उन्हें अनुयायियों मे अंग्रेजों से टक्कर लेने की इच्छा और बलवती हो गई। 30 नवंबर 1897 को जब बिरसा रिहा हुए तो पूरा वनवासी अंचल जाग उठा। वे सब तीर धनुष के साथ आंदोलन की मांग कर रहे थे। अंग्रेजों से भीषण संग्राम के लिए प्रशिक्षण, संगठन, नीतियाँ और हथियार संग्रह का काम शुरू हुआ। बिरसा और वनवासी समाज के पूर्वजों का शोषण और अन्याय के विरुद्ध सरदारी लड़ाई शुरू हो गया, वनवासी योद्धा बिरसा के नेतृत्व में कई पुलिस थानों, गिरजाघरों, सरकारी कार्यालयों आदि को आग के हवाले कर दिया। जमीनदारों से अपने को मुक्त कराने के लिए लगान न देने और जंगल का अधिकार वापस लेने की बात कही गई। इन सबसे अंग्रेजी हुकूमत बौखला गई और कई बिरसाइतों को गिरफ्तार किया गया जिससे आंदोलन और उग्र हो गया।
9 जनवरी 1900 के दिन जब बिरसा डोंबारी पहाड़ी पर सभा कर रहे थे। सभी मुण्डा, उराँव, संथाल, खड़िया, हो, माँझी वनवासी लोग जुटे थे। हज़ारों की संख्या में वनवासी बिरसा के गीत गाते माथे पर चंदन लगाए, हाथ में सफेद और लाल पताका लिए एकत्रित हुए थे। तब अंग्रेजों को खुफिया सूचना मिली की बिरसा सभा कर है। कमिश्नर स्ट्रीट फील्ड डोंबारी पहाड़ी पहुँचे और अंधाधुंध गोलियाँ चलाना शुरू कर दिया। दोनों ओर से संग्राम आरंभ हो गया तोपों और बंदुकों के सामने तीर, धनुष, कुल्हाड़ी, भाला और पत्थर कहाँ टिक पाते पूरी डोंबारी पहाड़ी खून से लाल हो गई। बिरसा आंदोलन को जीवित रखने के लिए वहाँ से आग्रह करने पर सुरक्षित जंगल में चले गए। परन्तु भेदियों की मदद से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 9 जून 1900 के दिन इस महान वनवासी स्वतंत्रता सेनानी की रहस्यमय ढंग से राँची जेल में मृत्यु हो गई। कहा गया उन्हें हैजा था लेकिन धारणा यह है कि उन्हें जहर दिया गया। बिरसा आज हमारे बीच नहीं हैं परन्तु उनके जलाए दीप आज भी जल रहे हैं। आज भी वनवासी – वनवासी समाज उनको धरती आबा के रूप में याद करता है। वर्तमान भारत की परिस्थिती में जनजाति समाज उपेक्षा, दरिद्रता, शोषण, विदेशी षडयंत्रों, दीनता आदि का शिकार बना है। आवश्यकता है कि जनजाति बंधुओं को गले लगाएँ तभी उनके सर्वागींण विकास का मार्ग प्रशस्त होगा और भारत पुन: वैभवशाली बनकर विश्व का मार्गदर्शन करेगा और यही भगवान बिरसा मुण्डा को उनके प्रति सच्ची श्रदांजली होगी।
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